मंगलवार, 31 जनवरी 2012

बसपा से भी हाथ मिला सकते हैं अजीत

मथुरा। जब से राष्ट्रीय लोकदल के युवराज जयंत चौधरी को जनपद की मांट विधानसभा सीट से चुनाव लड़ाने का ऐलान किया गया है तब से कोई कह रहा है कि रालोद मुखिया चौधरी अजीत सिंह ने इस एक तीर से कई निशाने साधे हैं और कोई उनकी राजनीतिक समझ-बूझ के कसीदे गढ़ रहा है।
किसी-किसी ने तो यहां तक कयास लगाने शुरू कर दिये हैं कि भविष्य में यूपी का विभाजन होने पर पश्चिमी उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री जयंत चौधरी ही होंगे।
आश्चर्य की बात यह है कि राजनीतिक पण्डितों से लेकर मीडिया तक ने अब तक के रालोद के इतिहास और उसके सत्ता की खातिर पाला बदलते रहने की उसकी फितरत पर गौर भी फरमाना जरूरी नहीं समझा जबकि उनका यही पक्ष उजागर किया जाना बेहद जरूरी है क्योंकि उनकी इस फितरत का खामियाजा हमेशा जनता ने भुगता है।
गौरतलब है कि वर्ष 2009 में हुए लोकसभा चुनावों के लिए राष्ट्रीय लोकदल ने भारतीय जनता पार्टी से पैक्ट किया था और इसी पैक्ट के बल पर रालोद के युवराज जयंत चौधरी भारी मतों से विजयी हुए।
यहां यह जान लेना भी जरूरी है कि पूर्व में जब रालोद ने अपने बूते पर डॉ. ज्ञानवती को लोकसभा का चुनाव लड़वाया तो उसे मुंह की खानी पड़ी। डॉ. ज्ञानवती चौधरी चरण सिंह की पुत्री और चौधरी अजीत सिंह की सगी बहिन हैं।  चौधरी चरण सिंह की पत्नी गायत्री देवी भी मथुरा से लोकसभा का चुनाव हार चुकी थीं और यही वो कारण थे कि चौधरी अजीत सिंह ने 2009 के लोकसभा चुनाव में भाजपा का सहारा लेकर जयंत को उतारा। वह जयंत के  मामल में कोई जोखिम उठाना नहीं चाहते थे। 
इस चुनाव के दौरान जयंत चौधरी ने मथुरा की जनता से वादा किया था कि वह मथुरा को ही अपना स्थाई आवास बनाकर जनता की सेवा करेंगे और आमजन की सर्वाधिक महत्वपूर्ण मांगों में से एक यमुना को प्रदूषणमुक्त कराकर रहेंगे।
जयंत पर मथुरा की जनता ने भरपूर भरोसा किया नतीजतन वह रिकॉर्ड मतों से विजयी हुए। जनता अपना वादा निभा चुकी थी लेकिन जयंत चौधरी और रालोद ने अपना वादा नहीं निभाया।
मथुरा को स्थाई आवास बनाने का उनका वादा केवल वादा बनकर रह गया। कहने को उन्होंने विश्वलक्ष्मी नगर में किराये का एक मकान जरूर लिया लेकिन वहां उनके दर्शन जब-तब ही हुए।
जनता के बीच तो उन्हें शायद ही कभी किसी ने देखा हो।
बाकी रहा सवाल यमुना को प्रदूषणमुक्त कराने का तो इस मामले में मथुरा की जनता को हर नेता न छला है, फिर चाहे वह स्थानीय रहा हो या बाहरी।
बहरहाल, रालोद के युवराज मथुरा से सांसद बन गये और पूरी शान के साथ बने। पर जब बात शुरू हुई केन्द्र में सरकार बनने की तो रालोद का नाम उन दलों में पहले नम्बर पर था जो कांग्रेस की सरकार बनवाने में सबसे आगे खड़े थे। यह बात दीगर है कि तब कांग्रेस को समर्थन देने वालों की अच्छी-खासी फेहरिस्त थी लिहाजा चौधरी अजीत सिंह की दाल नहीं गली क्योंकि वह सशर्त समर्थन देना चाहते थे। जाहिर है उनकी एकमात्र शर्त केन्द्र में मंत्री पद पाने की थी जो उस समय नहीं मानी गई। देर से ही सही अब चौधरी अजीत सिंह अपने मकसद में कामयाब हो चुके हैं और रालोद के युवराज सांसद रहते हुए इस बार विधायकी का चुनाव मांट क्षेत्र से लड़ रहे हैं।
अब सबसे बड़ा सवाल यह खड़ा होता है कि कुर्सी के लिए गत लोकसभा चुनावों के तत्काल बाद कांग्रेस से पीगें बढ़ाने वाले और कुर्सी के लिए अब कांग्रेस से हाथ मिलाने वाले चौधरी अजीत सिंह क्या भविष्य में गुलाटी नहीं मारेंगे।
आज उनकी समझ-बूझ के कसीदे गढ़ने वाले राजनीतिक पण्डितों और मीडिया के लोगों के पास क्या इस बात का कोई जवाब है कि जनता से बार-बार छल करने का अधिकार रालोद मुखिया को आखिर किसने दिया।
क्या इनमें से कोई रालोद मुखिया से यह पूछने का साहस करेगा कि अगर यूपी में किसी एक दल को स्पष्ट बहुमत नहीं मिलता जिसकी कि प्रबल संभावना है और यदि कांग्रेस किसी के साथ मिलकर सरकार बनाने या सपा जैसे अपने सहयोगी की सरकार बनवाने में सफल नहीं होती, तो भी क्या रालोद कांग्रेस का साथ निभायेगा?
क्या यूपी में अगर फिर से बसपा की सरकार बनने जैसे हालात पैदा होते हैं तो क्या रालोद मुखिया बसपा से हाथ नहीं मिला लेंगे ?
रालोद और चौधरी अजीत सिंह का इतहिास तो यही कहता है कि वह इतिहास को बार-बार दोहराते रहने में यकीन करते हैं और इसलिए राजनीति में निष्ठाएं बदलने के सूत्र वाक्य पर भरपूर अमल करते रहे हैं।
इन चुनावों के बाद उनका ऊंट किस करवट बैठेगा, यह बता पाना तो मुश्किल है अलबत्ता यह अवश्य कहा जा सकता है कि रालोद का सारा गणित सिर्फ और सिर्फ यूपी की सत्ता में शरीक होने के लिए है, न कि जनभावनाओं के लिए। कल अगर रालोद बसपा के साथ खड़ी दिखाई दे तो कोई आश्चर्य नहीं होना चाहिए।

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