शनिवार, 11 फ़रवरी 2012

मतदान अवश्‍य कीजिये क्‍योंकि...


आपके हाथ में इससे अधिक कुछ है नहीं
इसे देश और देश की जनता का दुर्भाग्‍य कहें या नेताओं का सौभाग्‍य कि उत्‍तर प्रदेश के चुनावी परिदृश्‍य पर इस बार भी माफिया ही हावी है।
वोटों के लिए किसी भी स्‍तर तक गिरकर आरोप-प्रत्‍यारोप में उलझी दलगत राजनीति ने टिकटों के बंटवारे में माफिया से कोई परहेज नहीं किया, बावजूद इसके दावा सबका यही है कि वह दूसरी पार्टियों से भिन्‍न हैं।
मतदान को अधिकार ही नहीं कर्तव्‍य बताने वाले भी दलगत राजनीति के शिकार लोगों के इतर आम मतदाता को यह समझा पाने में असमर्थ हैं कि आखिर वह वोट किसे दे। इन्‍हीं माफियाओं में से किसी एक को जो अपने प्रबल प्रतिद्वंदी से या तो कुछ कम है या कुछ ज्‍यादा। या फिर उसे जो जीत जाने के बाद भी माफियाओं से भरी राजनीति में प्रथम तो मात्र एक संख्‍या साबित होगा और यदि ऐसा नहीं हुआ तो उसकी आवाज़ नक्‍कारखाने में तूती से अधिक नहीं रहेगी।
धनबल, बाहुबल और संख्‍याबल में भारी दलगत राजनीति की एक इकाई बनकर रह जाने वाला कोई विधायक हो अथवा विधानसभा के अंदर उठने वाले उनके शोर के बीच मिमियाने वाला कोई जनप्रतिनिधि, वह अपने क्षेत्र की जनता का कितना भला कर पायेगा, इसका अंदाजा लगाना कोई कठिन काम नहीं है।
विवाद होने की स्‍िथति में अपने ही थूके हुए को चंद घण्‍टों के अंदर चाट लेने की फितरत रखने वाले नेता कितने नैतिक हैं, यह बताने और समझाने की शायद अब जरूरत नहीं रह गई। ताजा उदाहरण बटला हाउस एनकाउण्‍टर का सामने है। दूसरे दल और उनकी पहली पंक्‍ित के नेता भी ऐसे मामलों में अपवाद नहीं हैं। यह बात दीगर है कि चुनावों के इस मौसम में एक-दूसरे पर कीचड़ उछालने का इन्‍हें अधिकार प्राप्‍त है। बेशक इस अधिकार का इस्‍तेमाल यह जनता को गुमराह करने के लिए ही करते हैं जबकि हकीकत में चोर-चोर मौसेरे भाई की कहावत को वर्षों से चरितार्थ करते चले आ रहे हैं।
अगर इस कहावत को चरितार्थ होते देखना है तो वहां देखा जा सकता है जहां ये लोग एकत्र होते हैं। मसलन किसी शादी-समारोह अथवा ऐसे सार्वजनिक कार्यक्रम में जहां सबकी उपस्‍िथति अनिवार्य हो।
उत्‍तर प्रदेश की राजगद्दी पर फिर से मायावती काबिज हो जाएं या मुलायम अथवा उनके परिवार का कोई कथित युवराज बैठ जाए, कांग्रेसी युवराज राहुल के रिमोट से संचालित कोई काठ का उल्‍लू उसे सुशोभित करे या भाजपा की मुंह से आग उगलने वाली कथित साध्‍वी उस पर जम जाए, आम जनता का भला कोई नहीं करने वाला। इस बार तो प्रबल संभावना यह है कि आज एक-दूसरे को लगभग गालियां देने वाले दल और उनके नेता स्‍पष्‍ट बहुमत न मिल पाने की स्‍िथति में जनता को ठेंगा दिखाकर गठबंधन की सरकार बनायेंगे। तब उनके लिए जनता के साथ विश्‍वासघात के कोई मायने नहीं होंगे और नीति व नैतिकता अगले चुनावों तक के लिए ताक पर रखी जा चुकी होगी।
वैसे आज भी कोई बहुत अंतर नहीं है। जो अंतर दिखाई दे रहा है वह भी खालिस बाजीगरी का कमाल है। ऐसी बाजीगरी जिसमें दर्शकों को बाजीगर जो और जैसा दिखाना चाहता है, उन्‍हें वही दिखता है। घड़ी की सुइयां तक बाजीगर के अनुरूप नजर आती हैं।
तभी तो केन्‍द्र में कांग्रेस की सरकार को समर्थन जारी रखने वाले सपा और बसपा जैसे दल उत्‍तर प्रदेश के चुनावों में परंपरागत दुश्‍मन दिखाई देते हैं। दिखाई ही नहीं देते, जनता ऐसा मान भी रही है। संभवत: इसी को कहते हैं सच्‍ची बाजीगरी और शायद इसीलिए अब तमाशा सड़क पर नहीं उन इमारतों में होता है जिनमें से किसी को संसद तथा किसी को विधानसभा कहते हैं।
लोग आह भरते हैं और कहते हैं कि जमाना बदल चुका है लेकिन मैं तो बचपन से यही सुनता चला आ रहा हूं कि ''कोऊ नृप होय हमें का हानि''। जब सभी धान बाईस पसेरी हो तो धान-धान में अंतर कैसा। आमजन की नियति है इनके हाथ बेमोल बिक जाना, बेमौत मारे जाना। वोट किसी को दे लें, राज तो किसी चोर के मौसेरे भाई का रहना है। या चारों के उस समूह का, जिसमें शरीफों की भूमिका तमाशबीनों की तरह होगी। न इससे कम, ना इससे ज्‍यादा। फिर भी लोकतंत्र का तकाजा है कि मतदान अवश्‍य कीजिये क्‍योंकि आपके हाथ में इससे अधिक कुछ है भी नहीं। और हां! वह भी है या नहीं,  इसका पता वोटरलिस्‍ट देखकर ही लगेगा।www.legendnews.in

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