बुधवार, 14 मार्च 2012

जीतकर भी ठग गये बेचारे नेताजी

देश को मिली स्‍वतंत्रता के बाद से अब तक क्‍या आपने कभी किसी पार्टी के नेता को ऐसी स्‍थिति में पाया है जब वह चुनाव जीतने के बावजूद खुद को ठगा हुआ महसूस कर रहा हो। आज तक तो हर चुनाव के बाद केवल जनता ही अपने आपको ठगा हुआ महसूस करती है और यह सिलसिला पिछले 60 सालों से लगातार चला आ रहा है। फिर इस बीच में चाहे चुनाव लोकसभा के लिए हुए हों या विधानसभा के लिए। यहां तक कि नगर निकाय और नगर पंचायत चुनावों  में भी नेताओं ने जनता को यही सिला दिया है।
संभवत: यह पहली बार है जब जनता के साथ-साथ एक नेता भी चुनावों के बाद खुद को ठगा हुआ महसूस कर रहा है और वह भी जीत दर्ज कराने के बाद। नेता ही क्‍यों, पूरी पार्टी इस जीत के बाद सकते व सदमे की स्‍थिति में है और उसे समझ में नहीं आ रहा कि वह आखिर करे तो क्‍या करे। अपनी एतिहासिक जीत का जश्‍न मनाये या उस पर आंसू बहाये। एक दिग्‍गज और अब तक अपराजेय माने जाने वाले नेता को हराकर मिली जीत इस युवा नेता और उसकी पार्टी के लिए गले की ऐसी हड्डी बन गई है जो न निगलते बन रही, न उगलते।
मैं बात कर रहा हूं उत्‍तर प्रदेश की विधानसभा के लिए हाल ही में सम्‍पन्‍न हुए चुनावों की। इन चुनावों में मथुरा से सांसद और राष्‍ट्रीय लोकदल के युवराज जयंत चौधरी जनपद की मांट विधानसभा सीट से छ: बार के विजेता श्‍यामसुंदर शर्मा के खिलाफ उतरे थे। श्‍यामसुंदर शर्मा को वह 2009 के लोकसभा चुनावों में भारी मतों से पराजित कर चुके थे लेकिन सांसद रहते अपने युवराज को विधायकी का चुनाव लड़ाने के पीछे रालोद का मकसद कुछ और था।
रालोद मुखिया चौधरी अजीत सिंह ने कांग्रेस से चुनाव पूर्व गठबंधन कर एक ओर जहां केन्‍द्र में मंत्री पद प्राप्‍त कर लिया वहीं दूसरी ओर उनकी निगाह यूपी के सीएम की कुर्सी पर लगी थी।
दरअसल चौधरी अजीत सिंह यूपी चुनाव परिणाम के उन संभावित हालातों का भरपूर फायदा उठाना चाहते थे जिनके तहत किसी पार्टी को स्‍पष्‍ट बहुमत मिलने की उम्‍मीद नहीं थी। निजी लाभ के लिए सत्‍ता से सौदेबाजी में एक्‍सपर्ट चौधरी अजीत सिंह ने सोच रखा था कि वो इन हालातों के चलते अपने पुत्र जयंत चौधरी को यूपी का मुख्‍यमंत्री अथवा कम से कम उप मुख्‍यमंत्री तो बनवा ही देंगे।
उन्‍होंने व उनके पुत्र जयंत ने जनभावनाओं की आड़ लेकर इस आशय का संदेश भी सजातीय मतदाताओं एवं मथुरा की जनता को दिया और कहा कि जयंत के सिर पर ताज होने का पूरा लाभ मिलेगा।
रालोद के अपने गढ़ मेरठ-मुजफ्फरनगर में भले ही चौधरी अजीत सिंह के इस शिगूफे का कोई असर न पड़ा हो पर मथुरा की जनता उनके झांसे में आ गई और उसने जयंत चौधरी को मांट से विधायक निर्वाचित कराकर एक इतिहास कायम कर दिया।
जयंत चौधरी सांसद के साथ-साथ विधायक तो बन गये लेकिन प्रदेश में चली समाजवादी पार्टी की हवा ने जयंत ही नहीं, रालोद की भी हवा निकाल दी। सपा को स्‍पष्‍ट बहुमत क्‍या मिला, रालोद के सपने चकनाचूर हो गये।
कहते हैं कि कभी कोई मुसीबत अकेले नहीं आती। वह अपने साथ और कई मुसीबतें साथ लाती है। सपा को मिले स्‍पष्‍ट बहुमत ने जहां जयंत चौधरी के मुख्‍यमंत्री अथवा उप मुख्‍यमंत्री बनने का ख्‍वाब मिट्टी में मिला दिया वहीं एक नई मुसीबत और खड़ी कर दी।
उल्‍लेखनीय है कि संवैधानिक बाध्‍यता के चलते अब जयंत चौधरी के सामने समस्‍या यह पैदा हो गई है कि उन्‍हें अति शीघ्र या तो सांसदी क त्‍याग करना होगा या विधायकी का।
सांसदी का त्‍याग करते हैं तो कांग्रेस से सौदेबाजी में चंद रोज पहले ही पिता चौधरी अजीत सिंह को मिली केन्‍द्रीय मंत्री की कुर्सी छिनती है और विधायकी त्‍यागते हैं तो मांट क्षेत्र का ही नहीं, समूचे जाट समुदाय के कोप का भाजन बनना पड़ेगा।
इस मुद्दे को लेकर मांट की जनता उन्‍हें अपने तीखे तेवरों से गत दिनों तब अवगत करा चुकी है जब वह विधायकी का चुनाव जीतने के बाद अपनी पत्‍नी चारू को लेकर मथुरा आये थे।
मांट वासियों और विशेष रूप से उनके सजातीय मतदाताओं ने दो टूक शब्‍दों में कह दिया था कि यदि विधायकी से त्‍यागपत्र दिया तो रालोद को उसके गंभीर राजनीतिक परिणाम भुगतने होंगे।
विश्‍वलक्ष्‍मी नगर स्‍थित जयंत चौधरी के अस्‍थाई निवास पर इस बात को लेकर समर्थकों व क्षेत्रीय लोगों ने जमकर हंगामा काटा जिसके बाद जयंत चौधरी यह कहकर बच पाये कि इसका फैसला वह दिल्‍ली में पार्टी मुखिया एवं पिता चौधरी अजीत सिंह से बात करने के उपरांत करेंगे।
जयंत चौधरी फिलहाल भले ही अपने समर्थकों व शुभचिंतकों को बहलाने में सफल हो गये पर उनके व रालोद के सामने जो समस्‍या मुंह बाये खड़ी है, वह जस की तस है।
जनता तो हर चुनाव के बाद खुद को ठगा हुआ महसूस करती है लेकिन ऐसा पहली बार हुआ है जब नेताजी एक एतिहासिक चुनाव जीतकर भी अपने आपको ठगा हुआ महसूस कर रहे हैं। मुख्‍यमंत्री या उपमुख्‍यमंत्री बनना तो दूर, जैसे-तैसे बचाकर रखा राजनीतिक वजूद ही खतरे में पड़ता नजर आ रहा है।
सांसदी और विधायिकी ने कुंए और खाई की जगह ले ली है। किंकर्तव्‍यविमूढ़ हैं कि जाएं तो जाएं कहां।
सांसद बनकर यहीं रहने का जनता से वादा करके भूल जाने वाले जयंत चौधरी पर क्षेत्रीय जनता ने बेशक फिर एकबार भरोसा किया और शानदार जीत दर्ज करवा दी लेकिन अब वह सारा हिसाब चुकता कर लेने की बात कह रही है। कहे भी क्‍यों नहीं, सांसद या विधायक किसी एक पर अपना प्रतिनिधि चुनने का मौका उसे जल्‍दी ही फिर जो मिलने वाला है।
जो भी हो। जयंत चौधरी सांसदी छोड़ें या विधायकी, लेकिन फिलहाल ये दोनों लड्डू उनके गले में फांस बनकर अटके हुए हैं।
जीतकर भी हार जाने का अनुभव तो उन्‍हें हो ही चुका, जनभावनाओं से खिलवाड़ करने का नतीजा भी साफ-साफ दिखाई दे रहा होगा।
शायद इसी को कहते हैं- ना खुदा ही मिला ना विसाले सनम....

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