मंगलवार, 27 मार्च 2012

सज्‍जनता या कायरता ? ईमानदारी या..

राष्‍ट्रपति की हवाई यात्राओं पर उनके कार्यकाल में 205 करोड़ रुपये खर्च किये जाते हैं। राष्‍ट्रमण्‍डल खेलों के आयोजन की आड़ में सैंकड़ों करोड़ रुपयों का बंदरबांट कर लिया जाता है। 2जी स्‍पेक्‍ट्रम की नीलामी में 175 हजार करोड़ की चपत देश को लगाई जाती है।
आदर्श सोसायटी के मकानों का आवंटन अंधा बांटे रेवड़ी की तर्ज पर
किया जाता है। करीब 11 लाख करोड़ का कोयला घोटाला सामने
आने के बाद सरकार कहती है कि मीडिया में लीक हुई रिपोर्ट अधूरी व
भ्रामक है जबकि विदेशी अखबार उसका प्रकाशन ही नहीं करते बल्‍िक
इस बात की भी पुष्‍टि करते हैं कि यह रिपोर्ट फाइनल है और कैग
उसे अंतिम रूप देने में लगा है।
इस बीच एक नया खुलासा सेनाध्‍यक्ष वी. के. सिंह द्वारा और किया
जाता है। इस खुलासे के मुताबिक उन्‍हें सेना के लिए घटिया वाहन
खरीदने की पेशकश करते हुए 14 करोड़ रुपये की रिश्‍वत का ऑफर
लाइजनर्स ने दिया।
घोटालों और रिश्‍वतखोरी का एक ऐसा सिलसिला मनमोहन सिंह के
नेतृत्‍व वाली यूपीए सरकार में शुरू हुआ जो खत्‍म होने का नाम ही
नहीं ले रहा। एक घोटाले पर प्रारंभ हुई बहस अभी पूरी नहीं होती कि
दूसरा सामने आ खड़ा होता है।
जाहिर है कि इन सभी तथा भविष्‍य में सामने आने वाले दूसरे घोटालों
को न तो एक-दो दिन या हफ्ते-दो हफ्तों में अंजाम दिया गया होगा
और ना इसमें एक-दो व्‍यक्‍ित शामिल रहे होंगे। इन्‍हें सुनियोजित
षड्यंत्र के तहत और बाकायदा लॉबिंग करके किया गया होगा।
अब सवाल यह पैदा होता है कि लगभग देश को बेच खाने वाले इन
घोटालों से क्‍या प्रधानमंत्री व उनका मंत्रिमण्‍डल तथा यूपीए की चेयर
पर्सन व कांग्रेस की अध्‍यक्ष और उसके युवराज वास्‍तव में अनभिज्ञ थे?
यदि ये सब के सब अनभिज्ञ थे तो क्‍या इन्‍हें देश की सत्‍ता पर
काबिज रहने का हक रह जाता है और अगर अनभिज्ञ नहीं थे तो क्‍या
केवल इसलिए इन्‍हें जिम्‍मेदार नहीं माना जाना चाहिए क्‍योंकि इन पर
तथाकथित ईमानदारी का लेबल चस्‍पा है ?
देश को दीमक की तरह लगातार खोखला करने वालों का यथासंभव
बचाव करने में सक्रिय लोग क्‍या वास्‍तव में इतने भोले, ईमानदार व
मासूम हो सकते हैं जितने कि दिखाई देते हैं ?
अगर किसी तरह यह मान लिया जाए कि वह उतने ही भोले,
ईमानदार व मासूम हैं जितना उनके बारे में प्रचार किया जाता रहा है
तो वह इतने बेशर्म कैसे हैं ?
परिस्‍थतियां बार-बार उन्‍हें संदिग्‍ध साबित करती हैं, बावजूद इसके
वह एक ओर जहां भ्रष्‍टाचारियों के पक्ष में दलील देते हैं वहीं दूसरी
ओर अपने गले में लटके ईमानदारी के ढोल को पीटना शुरू कर देते
हैं।
जो फर्क सज्‍जनता और कायरता में है, वही फर्क ईमानदारी और
बुज़दिली में भी है। ईमानदार होने का मतलब न तो बुज़दिल होना है
और ना पद का लालची होना।
यह बात दीगर है कि अपने निजी स्‍वार्थों की पूर्ति तथा पद से चिपके
रहने की लालसा के लिए लोग अक्‍सर सज्‍जनता व ईमानदारी की आड़
लेते रहे हैं।
मनमोहन सिंह और प्रणव मुखर्जी होंगे बड़े अर्थशास्‍त्री, लेकिन अब
उनका अर्थशास्‍त्र ही नहीं, समाजशास्‍त्र व राजनीतिशास्‍त्र सब पूरी तरह
फेल साबित हो रहा है।
जिस योजना आयोग के मनमोहन सिंह बतौर प्रधानमंत्री अध्‍यक्ष हैं
उसी के उपाध्‍यक्ष मोंटेक सिंह अहलूवालिया का गरीबी रेखा का गणित
एक नहीं, दो बार खारिज किया जा चुका है। इसी प्रकार वित्‍तमंत्री
प्रणव मुखर्जी के बजट ने देशभर में एक नई बहस पैदा कर दी है।
मनमोहन सिंह और प्रणव मुखर्जी के फैसलों, उनकी दलीलों एवं
महंगाई को लेकर दिये जाने वाले बयानों के चलते लोग राजनीति में
सक्रियता की उम्र पर भी विचार करने की बात कह रहे हैं।
इंद्रियों के शिथिल हो जाने पर कार्यक्षमता बेशक प्रभावित हो जाती हो
पर उनसे जुड़ी भावनाओं का ज्‍वार नहीं थमता। यह बात सत्‍ता से
चिपके लोगों पर शत-प्रतिशत खरी उतर रही है।
यही कारण है कि तमाम घोटालों से घिरी सरकार और भ्रष्‍टाचार में
लिप्‍त उसके मंत्री अंतिम समय तक अपने आपको पाक-साफ बताने
की कोशिश तो करते दिखाई देते हैं पर भ्रष्‍टाचार से लड़ने का
ईमानदार प्रयास करते नजर नहीं आते।
इसे बेशर्मी, निर्लज्‍जता और तथाकथित ईमानदारी से उपजी कायरता
की पराकाष्‍ठा न कहें तो क्‍या कहें कि प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह
सरकार गिरने के डर से गठबंधन की मजबूरी का रोना रोते हैं।
दरअसल वह जानते हैं कि वो जिस रिमोट कंट्रोल से संचालित हैं,
उसकी मर्जी के बिना पद पर बने रहना तो दूर, उसे त्‍यागने तक की
हिमाकत नहीं कर सकते।
वो कोई और दौर था जब मनमोहन सिंह की ईमानदारी पर उंगली
उठाने की हिम्‍मत विपक्षी नेता भी नहीं कर पाते थे लेकिन आज जब
मजबूरी का नाम मनमोहन बन चुका है तो उंगलियां उठना स्‍वाभाविक
है।
सच तो यह है कि ईमानदारी कभी कमजोरी नहीं बन सकती और यदि
वह कमजोरी है तो फिर ईमानदारी नहीं हो सकती। इस सर्वमान्‍य सत्‍य
के लिए न किसी सबूत की आवश्‍यकता है और न गवाही की। इस पर
बहस की भी गुंजाइश नहीं है।
ऐसे में मनमोहन सिंह का मुखौटा सारे मंत्रिमण्‍डल की ईमानदारी के
लिए इस्‍तेमाल नहीं किया जा सकता। हालांकि अब तक यही किया
जाता रहा है।
मनमोहन सरकार के इस दूसरे कार्यकाल ने भ्रष्‍टाचार पर लोगों को
सोचने के लिए बाध्‍य कर दिया है। आमजन यह जान चुका है कि
सत्‍ता के भूखे नेता पद से चिपके रहने के लिए भ्रष्‍टाचार जैसी
महामारी का कोई ईमानदार इलाज करना ही नहीं चाहते। वह आंकड़ों
की बाजीगरी तथा जांच दर जांच के फेर में देश की जनता को
उलझाये रखना चाहते हैं और लगातार गुमराह कर रहे हैं परन्‍तु सच्‍चाई
स्‍वीकार नहीं कर रहे।
यदि यही हाल रहा तो हो सकता है कि आमजन की सहनशिक्‍त जवाब
दे जाए और वह सत्‍ता के भूखे, भ्रष्‍ट व बेईमानी शासकों को सबक
सिखाने के लिए वर्तमान व्‍यवस्‍था को ही खारिज कर दे।
हो सकता है कि जिस लोकतंत्र पर हम अब तक गर्व करते रहे हैं और
जिसको सभी तथाकथित लोकतांत्रिक सरकारों ने अपने हित में एक
हथियार की तरह इस्‍तेमाल किया है, वही भविष्‍य में नकार दी जाए
क्‍योंकि इसकी मूल प्रवृत्‍ति गोरे शासकों से ज्‍यादा मेल खाती है। भारत
और भारतीयता से नहीं।

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