मंगलवार, 20 अप्रैल 2010

कृपालु या कलंक


मथुरा। खुद को पांचवां जगद् गुरू शंकराचार्य बताने वाले कृपालु महाराज के मनगढ स्‍िथत आश्रम में भण्‍डारे के दौरान 65 लोगों की मौत के तत्‍काल बाद उन्‍हीं के द्वारा वृंदावन में फिर भण्‍डारे का वैसा ही आयोजन करना यह साबित करता है कि कृपालु महाराज और उसके अनुयायियों को इतने लोगों की मौत का न तो कोई दु:ख हुआ न कोई अफसोस। संवेदनहीनता की पराकाष्‍ठा का निम्‍नतम् एवं घिनौना उदाहरण प्रस्‍तुत करते हुए कृपालु के प्रवक्‍ता ने यह और कह दिया कि जो कुछ हुआ, वह ईश्‍वर की मर्जी थी।
यहीं नहीं, कृपालु के प्रवक्‍ता की मानें तो उनके द्वारा आयोजित इस भण्‍डारे के लिए आश्रम की ओर से किसी को निमंत्रण नहीं भेजा गया था। 65 गरीब लोगों की दर्दनाक मौत के बाद कृपालु के प्रवक्‍ता का यह बयान जितना चौंकाने वाला है, उतना ही चौंकाता है प्रशासन का उस बयान को चुपचाप स्‍वीकार कर लेना। वह भी तब कि जांच रिपोर्ट में इस पूरी घटना के लिए आश्रम को प्रथम द्रष्‍ट्या दोषी बताया गया।
घटना के बाद से लगभग भूमिगत हो चुके कृपालु कल अचानक प्रकट हुए और मृतकों तथा घायलों के लिए मुआवजे का चैक मीडिया को बुलाकर प्रशासन के नाम जारी किया। इस दौरान भी कृपालु ने अपना मुंह नहीं खोला।
वृंदावन (मथुरा) स्‍िथत आश्रम में प्रशासन की रोक के बावजूद भण्‍डारे के दौरान नोट बांटे जाने का जवाब आयोजकों ने यह दिया कि भोजन के साथ दक्षिणा देना सामान्‍य बात है और ऐसा करने से प्रशासनिक रोक का उल्‍लंघन नहीं हुआ। आश्‍चर्यजनक रूप से सिटी मजिस्‍ट्रेट ने भी आश्रम की इस बेहूदा दलील पर हां में हां मिला दी जो इस बात की पुष्‍िट करती है कि धर्म के ऐसे धंधेबाजों के समक्ष शासन और प्रशासन कितना बौना है।
सच तो यह है कि कृपालु जैसे लोगों का धर्म या दान-दक्षिणा से दूर-दूर तक कोई वास्‍ता नहीं है। वह जो कुछ करते हैं, अपने कृत्‍यों पर पर्दा डालने और शौहरत हासिल करने के लिए करते हैं। अपनी पत्‍नी की बरसी के नाम पर कृपालु ने यही सब किया वरना गरीबों को मदद करने के तमाम अन्‍य तरीके ऐसे हैं जिन्‍हें अपनाकर एक पंथ दो काज जैसी कहावत चरितार्थ की जा सकती थी। यूं भी यदि कृपालु का संतत्‍व से कोई सम्‍बन्‍ध है तो फिर अपनी दिवंगत पत्‍नी के नाम पर इतने बडे आडम्‍बर का क्‍या मतलब!
दरअसल कृपालु भी उन्‍हीं तथाकथित साधुओं की जमात का हिस्‍सा हैं जिनके कुकृत्‍यों ने सम्‍पूर्ण साधु समाज पर गहरा प्रश्‍नवाचक चिन्‍ह अंकित कर दिया है और जिनके कारण योगगुरू बाबा रामदेव तथा आर्ट आफ लिविंग के संस्‍थापक श्री श्री रविशंकर सहित तमाम धर्माचार्यों को आगे आकर ऐसे तत्‍वों के खिलाफ कार्यवाही करने की हिमायत करनी पडी। हाल ही में पकडे गये इच्‍छाधारी के बावत तो योगगुरू बाबा रामदेव ने यहां तक कह दिया कि ऐसे लोगों को फांसी पर चढा देना चाहिए।
कृपालु महाराज बेशक अपनी अकूत सम्‍पत्‍ित के बल पर अब तक अपने कुकृत्‍यों को दबवाने में सफल रहे हैं लेकिन इसका यह अर्थ कदापि नहीं निकलता कि वह पाक-साफ हैं और साधु समाज पर कलंक लगाने वालों से किसी प्रकार भिन्‍न हैं। बात चाहे नागपुर की दो सगी बहनों के साथ बलात्‍कार के मामले से जुडी हो या फिर टुबेगो एण्‍ड त्रिनिदाद की विदेशी धरती पर एक 22 वर्षीय युवती के साथ दुराचार की जिसमें कृपालु को गत वर्ष वहां बंदी बनाया गया था। वृंदावन के आश्रम की भूमि को खरीदने में करोडों रूपयों की स्‍टाम्‍प चोरी का मामला हो या आश्रम के कर्मचारी की संदिग्‍ध मौत का, सब यह संकेत करते हैं कि कृपालु के कारनामे कम से कम संतत्‍व की श्रेणी में नहीं आते।
यह बात दीगर है कि इस सब के बावजूद कृपालु जैसों को संत मानने वालों की कोई कमी नहीं है क्‍योंकि वह उनके काले कारनामों को अपने प्रभाव तथा धर्म की आड में दबाये रखने की जुगत जानते हैं। कृपालु जैसे कथित साधु अपने इन भक्‍तों की काली कमाई को सफेद करने और सरकार की नजरों में धूल झौंकने के विशेषज्ञ हैं।
यही कारण है कि देश के कर्णधार हमारे बडे-बडे नेता इनके चरणों में शीश नवाते हैं और कानून के शिकंजे में फंसने पर इनके मददगार बनते हैं। कौन नहीं जानता कि देश से छिपाई गई कुल काली कमाई का एक बडा हिस्‍सा उन नेताओं, नौकरशाहों तथा सफेदपोशों के कब्‍जे में हैं जो कृपालु जैसे धर्म के धंधेबाजों के यहां अक्‍सर ढोक लगाते हैं। तभी तो देश में धर्म बाकायदा एक ऐसा व्‍यवसाय बन चुका है जो 100 प्रतिशत सफलता की गारण्‍टी देता है। तभी तो आज कोई चैनल ऐसा नहीं जिस पर धर्म की दुकान न सजाई जाती हो। देश का कोई हिस्‍सा ऐसा नहीं जहां धर्म के धंधेबाज पूरी सिद्दत से सक्रिय न हों। कोई शासन और कोई प्रशासन ऐसा नहीं जो इन्‍हें निजी लाभ के लिए संरक्षण न देता हो। और जब तक धर्म की ये दुकानें सरकार और सरकारी नुमाइंदों के संरक्षण में चलेंगी तब तक कृपालु एवं इच्‍छाधारी जैसे बहरूपिये देश के माथे पर कलंक लगाते रहेंगे। कभी बेबस और लाचारों को अपनी हवस का शिकार बनाकर तो कभी अपनी शौहरत की भूख पूरी करने लिए उनकी जिंदगी दांव पर लगाकर।
-सुरेन्‍द्र चतुर्वेदी

शुक्रवार, 16 अप्रैल 2010

शर्म क्‍यों मगर हमें नहीं आती


पिछले दिनों मशहूर चित्रकार मकबूल फिदा हुसैन ने कतर की नागरिकता स्‍वीकार कर ली। उनके द्वारा एक लम्‍बे समय से लगातार हिन्‍दू देवी-देवताओं के आपत्‍तिजनक (नग्‍न) चित्र बनाये जाने के कारण उपजे विवाद ने उन्‍हें देश छोड़कर जाने पर मजबूर कर दिया था। हिन्‍दू देवी-देवताओं के प्रति उनकी घृणित सोच बराबर सामने आने की वजह से देशभर की विभिन्‍न अदालतों में उनके खिलाफ कई केस भी दर्ज हुए। हुसैन अपने खिलाफ दर्ज हुए इन मामलों का सामना करने की बजाय यह कहते हुए देश से भाग खडे़ हुए कि उनसे उनकी अभिव्‍यक्‍ित की स्‍वतंत्रता छीनी जा रही है।
अभिव्‍यक्‍ित की स्‍वतंत्रता को लेकर उनकी संकीर्ण सोच पर यहां कुछ सवाल खडे़ होते हैं। जैसे-
क्‍या निरंकुशता ही अभिव्‍यक्‍ित की स्‍वतंत्रता है ? क्‍या किसी सभ्‍य समाज में वर्ग विशेष की धार्मिक भावनाओं को इरादतन ठेस पहुंचाना अभिव्‍यक्‍ित की स्‍वतंत्रता माना जा सकता है ? क्‍या कोई भी कला तब कला रह जाती है जब उसके कारण समाज में विघटन की स्‍िथति उत्‍पन्‍न होती हो, वह लोगों के इष्‍ट देवी-देवताओं के अपमान का कारण बन रही हो, उससे घृणा के बीज बोए जा रहे हों ?
कला या कलाकार तो लोगों की भावनाओं को सार्थक रूप में उकेरने का काम करते हैं, उनमें ऐसे रंग भरते हैं जिनसे समूचा माहौल खुशनुमा बन जाता है। न कि दंगे-फसाद की स्‍िथति पैदा होती है।
अगर हुसैन यह मानते हैं कि धार्मिक प्रतीकों को बार-बार और लगातार नग्‍न दर्शाना अभिव्‍यक्‍ित की स्‍वतंत्रता का हिस्‍सा है तो वह कम से कम ऐसा एक प्रयोग उस ध्‍ार्म पर करके देखें जिससे उनका स्‍वयं का ताल्‍लुक है। उन्‍होंने अब तक जितने भी धार्मिक चित्र उकेरे हैं उनमें हिन्‍दू देवी-देवताओं के अतिरिक्‍त किसी अन्‍य धर्म के प्रतीकों की मर्यादा से छेड़छाड़ करने का साहस नहीं दिखाया जिससे साफ जाहिर है कि हुसैन केवल एक धर्म विशेष को लेकर पूर्वाग्रह से ग्रसित हैं। संभवत: हुसैन भी इस बात से परिचित हैं और इसीलिए उन्‍होंने अदालती कार्यवाही का सामना करने के बजाय उससे भागना ज्‍यादा मुनासिब समझा। सच तो यह है कि हुसैन भले ही अभिव्‍यक्‍ित की स्‍वतंत्रता को अपने बचाव का हथियार बनाना चाह रहे थे लेकिन उनका कृत्‍य इसका हकदार नहीं है।
कब्र के मुंहाने पर बैठे हुसैन ने अब जिस देश की नागिरकता ली है, वह ऐसी कोई हरकत वहां करके देखें तो उन्‍हें सब पता लग जायेगा। हुसैन जानते हैं कि सिवाय हिंदू धर्म के किसी भी दूसरे धर्म के प्रतीकों से इतनी बेहूदी हरकत करना सीधे मौत को दावत देना है। मौहम्‍मद साहब के कार्टून बनाने पर विश्‍वभर में जिस कदर हंगामा हुआ, उससे क्‍या कोई अनभिज्ञ है। सलमान रश्‍दी को अपनी एक किताब का शीर्षक ''शैतान की आयतें'' रखने पर कितनी बड़ी कीमत चुकानी पडी, यह भी सबको मालूम है। रश्‍दी अपनी जिंदगी बचाये रखने को कहां-कहां नहीं छिपे। और तो और बांग्‍लादेश की लेखिका तस्‍लीमा नसरीन आज तक मुस्‍िलमों (न कि इस्‍लाम) के खिलाफ जाने की सजा दर-दर भटक कर चुका रही हैं। समूचे विश्‍व में केवल भारत ही ऐसा देश है जहां हुसैन जैसी गंदी मानसिकता के लोग न केवल दौलत, शौहरत व इज्‍जत पाते हैं बल्‍िक जब चाहें तब अभिव्‍यक्‍ित की स्‍वतंत्रता के नाम पर धर्म विशेष के आराध्‍यों को नंगा कर सकते हैं।
दरअसल हुसैन जैसी रूग्‍ण मानसिकता के लोग केवल भारत में इसलिए फलते-फूलते हैं कि क्‍यों कि यहां अल्‍पसंख्‍यकों (कथित) को भरपूर राजनीतिक संरक्षण प्राप्‍त है। यहां के नेता वोट की राजनीति के लिए किसी भी अल्‍पसंख्‍यक व्‍यक्‍ित और वस्‍तु का राजनीतिकरण कर सकते हैं। उनके अपने स्‍वार्थ यदि पूरे होते हों तो राष्‍ट्र व राष्‍ट्रीयता उसमें कहीं आडे़ नहीं आती। यदि सवाल राष्‍ट्रीयता का होता तो हुसैन को कानून से भागकर दूसरे मुल्‍क की नागरिकता पाने का मौका इतनी आसानी से नहीं मिल पाता।
आश्‍चर्य तो इस बात पर होता है कि फिल्‍मों के पोस्‍टर बनाने वाला मामूली सा व्‍यक्‍ित दौलत, शौहरत व इज्‍जत की हिंदुस्‍तान से इकठ्ठी की गई अकूत कमाई को लेकर अरब में जा बसता है और यहां के नेता उसके खिलाफ एक शब्‍द नहीं बोलते। वह समूचे देश पर तोहमत लगाकर अपना भारतीय पासपोर्ट लौटा देता है लेकिन कोई उस पर लानत नहीं भेजता। यहां तक कि मीडिया भी उसकी इस हरकत के लिए एक शब्‍द नहीं लिख्‍ाता। आखिर यह कैसी धर्मनिरपेक्ष्‍ाता है कि जहां एक व्‍यक्‍ित दौलत व शौहरत की अपनी हवस पूरी करने के लिए ताजिंदगी एक धर्म के आराध्‍यों को निर्वस्‍त्र करता रहा और पूरा देश केवल इसलिए उसकी हिमायत में खड़ा रहा क्‍योंकि उसका ताल्‍लुक ऐसे दूसरे धर्म से है जो राजनेताओं को उनकी लिप्‍सा पूरी कराने में अहम् भूमिका निभाता है। यदि एम. एफ. हुसैन को लेकर हम इतने पजेसिव हैं तो तस्‍लीमा नसरीन को लेकर क्‍यों नहीं। मुस्‍लिम तो वह भी हैं, पर हम उन्‍हें इसिलए संरक्षण नहीं दे रहे क्‍योंकि वह हमारी वोट की राजनीति का मोहरा बनकर काम नहीं आ सकतीं जबकि उन्‍होंने तो बांग्‍लादेशी मुस्‍िलमों के काले कारनामे 'लज्‍जा' नामक अपनी किताब के माध्‍यम से विश्‍व समुदाय के सामने उजागर किये थे। अयोध्‍या का विवादास्‍पद ढांचा ध्‍वस्‍त किये जाने के बाद उन्‍होंने जो कुछ लिखा वह सभी धर्मों को आजतक आइना दिखा रहा है।
ईमानदारी से कहा जाए तो देश में रहकर की गईं हुसैन की हरकतें और अब देश से बाहर जा बसने के बाद के उनके कारनामे हमारे लिए शर्मनाक हैं परन्‍तु हम बेशर्मी की सारी हदें पार कर चुके हैं। हमारे लिए अब न राष्‍ट्र अहमियत रखता है, न राष्‍ट्रवाद। हमारे लिए अहमियत रखते हैं तो केवल ऐसे निजी स्‍वार्थ जिनके सहारे हम सत्‍ता के सोपानों पर चढ़ते रहें और वहां बैठकर देश की अस्‍िमता को तार-तार होते देखते रहें। -सुरेन्‍द्र चतुर्वेदी

पतन की राह पर ''मीडिया''

मथुरा (लीजेण् न्यूज)। आखिर प्रेस काउंसिल ऑफ इण्िडया के अध्यक्ष न्यायमूर्ति जे. एन. रे को भी ''पेड न्यूज'' के रूप में सामने आये प्रिंट मीडिया के भ्रष्टाचार पर शीघ्र श्वेत पत्र जारी करने की बात कहनी पड़ी। उन्होंने पैसे लेकर खबरें छापने की बढ़ती प्रवृत्ित को गंभीर समस्या बताते हुए कहा कि हम इस बात से बहुत चिंतित हैं। उन्होंने बताया कि इस मामले में श्वेत पत्र जारी करेंगे। इसके लिए समाज के अलग-अलग तबकों से चर्चा कर सूचनाएं जुटाई जा रही हैं।
भारतीय प्रेस परिषद् के अध्‍यक्ष द्वारा इसी संदर्भ में की गई यह टिप्‍पणी रेखांकित करने लायक है कि ''सच का केवल एक पहलू होता है''।
यूं तो पेड न्‍यूज का चलन कई वर्ष पहले अस्‍ितत्‍व में आ चुका था लेकिन इसका वीभत्‍स रूप गत लोकसभा चुनावों में देखने को मिला और तभी से इसके खिलाफ आवाजें उठनी शुरू हुईं। सबसे ज्‍यादा चौंकाने वाली बात यह थी कि मीडिया और विशेषकर प्रिंट मीडिया के खिलाफ आवाज उठाने वालों में एक ओर जहां खुद मीडियाकर्मी आगे आये वहीं दूसरी ओर वो राजनेता तथा राजनीतिक पार्टियां शामिल हुईं जिनका अपना दामन बेदाग नहीं होता। यह स्‍िथति निश्‍िचत ही शर्मनाक है पर सवाल यह पैदा होता है कि क्‍या गंदगी से गंदगी साफ की जा सकती है और मीडिया को पेड न्‍यूज के माध्‍यम से भ्रष्‍टाचार के दलदल में उतारने का जिम्‍मेदार है कौन?
पिछले वर्ष हुए लोकसभा चुनावों के बाद नोएडा से प्रकाशित एक पाक्षिक पत्रिका ने तो अपना 16 जुलाई 2009 का पुरा अंक ''बिकाऊ मीडिया, खरीदार नेता'' जैसे शीर्षक से निकाला। इस अंक में स्‍वर्गीय प्रभाष जोशी से लेकर सौरभ राय, अजय कुमार श्रीवास्‍तव, राजीव यादव, रूप चौधरी, सुशील राघव, सुरेन्‍द्र किशोर जैसे मीडिया से जुड़े दर्जनों लोगों ने आर्टिकल दिये तो पूर्व केन्‍द्रीय मंत्री हरमोहन धवन, देवरिया से समाजवादी पार्टी के प्रत्‍याशी मोहन सिंह, भारतीय कम्‍युनिस्‍ट पार्टी के राष्‍ट्रीय सचिव अतुल अंजान और भाजपा नेता लालजी टण्‍डन जैसे नेताओं ने बड़े-बड़े मीडिया घरानों को बेनकाब किया।
किसी ने लिखा कि इस चुनाव में पाठकों के विश्‍वास की हत्‍या हो गई तो किसी ने लिखा कि '' जिस तरह शादी-विवाह के मौके पर घोड़े वाला, बैण्‍ड-बाजे वाले आदि धन कमाते हैं, ठीक उसी प्रकार समाचार पत्र चुनाव में छद्म विज्ञापन को धन कमाने का जरिया बना रहे हैं। एक पत्रकार ने लिखा कि पैकेज पत्रकारिता मीडिया की साख को नष्‍ट कर देगी और यदि साख नष्‍ट हो गई तो कौन सा सत्‍ताधारी नेता, भ्रष्‍ट अफसर या फिर बेईमान व्‍यापारी मीडिया की परवाह करेगा?
इस पत्रिका के दिल्‍ली ब्‍यूरो ने तो यहां तक लिख डाला कि इस बार के चुनावों में मीडिया का चरित्र सरेबाजार नीलाम हुआ क्‍योंकि मीडिया हाउस ने चुनाव कवरेज को बाकायदा बिजनेस मान लिया। अखबारों ने विज्ञापन रूपी खबरों के लिए प्रति सेंटीमीटर के हिसाब से अपने पन्‍ने बेचकर विज्ञापन और खबर के बीच की दूरी पूरी तरह समाप्‍त कर दी। चुनाव के परवान चढ़ते ही पैसा लेकर खबरें छापने का अभियान इस कदर तेज हो गया कि अखबारों के बीच बड़े से बड़ा विज्ञापन पैकेज बेचने की होड़ लग गई।
दरअसल गत लोकसभा चुनावों में मीडिया ने उसी प्रकार लोकतंत्र का जमकर मजाक उड़ाया जिस प्रकार अब तक भ्रष्‍ट शासक और प्रशासक उड़ाते रहे हैं। पैसे की खातिर आम आदमी के विश्‍वास की खिल्‍ली उड़ाई गई। अखबारों की ओर से स्‍पष्‍ट कह दिया गया कि जो प्रत्‍याशी पैकेज नहीं लेगा उसकी विज्ञिप्‍ित भी नहीं छपेगी। चुनावों बाद यह साफ हो गया कि पैसे हड़पने के इस खेल में अखबारों ने उन उम्‍मीदवारों की भारी बहुमत से जीत बताई थी जिन्‍हें कुल पांच हजार वोट नहीं मिले और जो जीते उन्‍हें मुकाबले से बाहर बताया गया था। जिन्‍हें पत्रकार, कलमकार, स्‍टाफ रिपोर्टर या ब्‍यूरो चीफ कहा जाता है वह अखबार मालिकों तथा पार्टी प्रत्‍याशियों व पार्टी प्रमुखों के बीच मीडिएटर की भूमिका निभा रहे थे। वह मोलभाव करा रहे थे और इस मोलभाव से निकली खुरचन चाटकर स्‍वयं को तृप्‍त कर रहे थे।
संभवत: इसी के बाद कुछ समाचार पत्रों ने मीडिया से जुड़ी खबरों के लिए अलग से स्‍थान देना शुरू कर दिया ताकि किसी स्‍तर से कहीं हलचल होती दिखाई दे और पेड न्‍यूज के घिनौने खेल में जो समाचार पत्र शामिल नहीं हुए उन्‍हें कुछ संबल मिले। सरकार भी धन लेकर खबर छापने या फिर इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में उसे दिखाने पर रोक के लिए शीघ्र कानून बनाने हेतु गंभीरता पूर्वक विचार कर रही है। फिलहाल उसे इस तरह के मामले में मिली शिकायतों की पड़ताल के लिए बनाई उप समिति की रिपोर्ट का इंतजार है।
बहरहाल, इसमें कोई दो राय नहीं कि आज मीडिया घराने और मीडियाकर्मी पतन के जिस रास्‍ते पर चल पडे हैं, वह अत्‍यन्‍त खतरनाक है। उन्‍हें इस रास्‍ते पर और आगे बढ़ने से यदि अतिशीघ्र नहीं रोका गया तो समूचा देश इसके दुष्‍परिणाम भोगेगा। जाहिर है कि मीडिया में भी पेड न्‍यूज के भ्रष्‍टाचार की गंगा ऊपर से बहनी शुरू हुई है औरे ऊपर वालों को इस देश में नियंत्रित करना असंभव नहीं तो टेढ़ी खीर जरूर है।
कौन नहीं जानता कि स्‍िट्रन्‍गर, कस्‍बाई व ग्रामीण संवाद्दाता और यहां तक कि जिला मुख्‍यालयों के ब्‍यूरो दफ्तरों में बैठने वाले अधिकतर पत्रकारों की जीविका दलाली तथा ब्‍लैकमेलिंग पर आधारित है।
कौन है इसके लिए जिम्‍मेदार? क्‍या वो मीडिया घराने नहीं जो सब-क़छ जानते व समझते हुए आंखों पर पट्टी बांधे रहते हैं और इन्‍हीं लोगों को चुनावों के दौरान तथा अन्‍य विशेष अवसरों पर विज्ञापन झटकने का माध्‍यम बनाते हैं।
यही कारण है कि लोकतंत्र में चौथे खम्‍भे की उपमा प्राप्‍त अनेक पत्रकार दिनरात अपनी कलम और ईमान बेचते देखे जा सकते हैं। वह दफ्तर की जिस बीट पर बैठते हैं उससे जुड़े सरकारी अफसरों के तलवे पैसे की खातिर चाटते हैं। जनता के भरोसे का खून करके अफसरों के साथ खबरों की सौदेबाजी करते हैं। यहां तक कि विज्ञप्‍ितयों व दर्ज मुकद्दमों तक को बेच खाते हैं।
ऐसा नहीं है कि इन ब्‍लैकमेलर, दलाल और खबर बेचने वाले पत्रकारों की शिकायत उनके अखबार मालिकों एवं संपादकों तक न पहुंचती हो। उन तक भी ये शिकायतें खूब पहुंचती हैं परन्‍तु वो उन शिकायतों पर गौर नहीं करते। वो जानते हैं कि जो काम उनके मातहत छोटे पैमाने पर कर रहे हैं, वही काम वो खुद बडे़ पैमाने पर करते हैं। कुछ नामचीन समाचार पत्रों के स्‍थानीय संपादक व उनका प्रबंधत्रंत तो इस हद तक गिर चुका है कि अपने अधीनस्‍थों से ही शराब व सबाब की मांग करने में गुरेज नहीं करता। यही लोग उनके घरों की होली-दीवाली मनवाते हैं और यही उनके बच्‍चों के बर्थडे पर किसी मंहगे होटल में केक कटवाने का बंदोबस्‍त करते हैं। शादी की सालगिरह पर ब्‍यूरो दफ्तर से कॉकटेल पार्टी का इंतजाम स्‍टारर होटल में किया जाता है। मीडिया में अब यह एक ऐसी परंपरा का रूप धारण कर चुका है जो हर स्‍तर पर ऊपर से नीचे लागू है। ब्‍यूरोचीफ भी यही सब अपने सब-ऑर्डीनेट से कराते हैं।
इन हालातों में प्रेस काउंसिल और सरकार के लिए मीडिया के भ्रष्‍टाचार को नियंत्रित करना आसान नहीं होगा। यह तभी संभव है जब प्रबल इच्‍छाशक्‍ित के साथ-साथ कठोर कदम भी उठाये जाएं और मीडिया से जुड़े उन लोगों का साथ दिया जाए जो अब तक जल के अंदर रहकर मगरों से बैर लिये बैठे हैं। -सुरेन्‍द्र चतुर्वेदी

एक नदी की मौत!


मथुरा। (लीजेण्‍ड न्‍यूज़), क्या यमुना मर रही है? क्या यमुना मर चुकी है? कौन हैं यमुना की मौत या उसे मौत के मुहाने तक ले जाने के जिम्मेदार? क्या एक नदी की बेरहम हत्या करने वालों को कहीं से कोई सजा मिलेगी या देश की अदालतें, सरकार तथा जनमानस सब तमाशबीन बने रहेंगे और यमुना मात्र एक अतीत, इतिहास अथवा किंवदंती बनकर रह जायेगी?
ये कुछ प्रश्न हैं जो यमुना की वतर्मान दुर्दशा के कारण उठ रहे हैं लेकिन अफसोस कि इनमें से किसी प्रश्न का उत्तर देने वाला आज कोई नहीं।
यूं तो अपने उदगम स्थल से लेकर मथुरा तक यमुना तमाम कारणों से दम तोड़ रही है परन्‍तु दिल्‍ली तथा उसके आगे तक यमुना का अस्‍ितत्‍व उस दिन खतरे में पड़ चुका था जिस दिन पहले दिल्‍ली में ओखला बांध की नींव पड़ी और फिर मथुरा में गोकुल बैराज की आधारशिला रखी गई। रही-सही कसर इलाहाबाद उच्‍च न्‍यायालय द्वारा बनाई गई 5 सदस्‍यीय मॉनीटरिंग कमेटी के अध्‍यक्ष ए. डी. गिरी की करीब पांच साल पूर्व हुई मृत्‍यु ने पूरी कर दी। गिरी की मृत्‍यु के बाद तो इलाहाबाद उच्‍च न्‍यायालय ने भी यमुना की सुधि लेना लगभग बंद कर दिया। उच्‍च न्‍यायालय की इस मामले में उदासीनता का अंदाज इस बात से लगाया जा सकता है कि ए. डी. गिरी की मृत्‍यु से रिक्‍त हुए मॉनीटरिंग कमेटी के अध्‍यक्ष का पद अब तक नहीं भरा गया जबकि इस बावत प्रार्थना पत्र वर्ष 2007 से न्‍यायालय में लंबित है।
गिरी के पद पर पुनर्नियुक्‍ित के लिए न्‍यायालय में 25 जनवरी 2007 को प्रार्थना पत्र देने वाले और यमुना को प्रदूषण से मुक्‍ित दिलाने हेतु याचिका दायर करने वाले गोपेश्‍वरनाथ चतुर्वेदी का कहना है कि दिल्‍ली में ओखला पर बांध बनाकर यमुना की सांसें थामने का जो कार्य सरकार ने शुरू किया था उसे मथुरा में एक अरब रूपये की लागत से गोकुल बैराज बनाकर पूरा कर दिया। गोकुल बैराज बन जाने के बाद से यमुना शनै:-शनै: एक गंदे नाले में तब्‍दील होती जा रही है। यमुना एक्‍शन प्‍लान के पहले चरण में करोडों रूपया खर्च हो जाने के बावजूद यमुना का प्रदूषण घटने की बजाय बढ़ रहा है। आज इलाहाबाद हाईकोर्ट के आदेश पर यमुना में ओखला से 100 क्‍यूसिक तथा हरनौल एस्‍केप से 150 क्‍यूसिक छोड़े जा रहे पानी की बात न करें तो दिल्‍ली से आगे यमुना केवल गंदा नाला अथवा सीवर टैंक बनकर रह गई है।
घोर दु:ख की बात यह है कि अब भी यमुना को बचाने की कोशिश करने के बजाय इससे जुड़े नेता व अधिकारी यमुना एक्‍शन प्‍लान के दूसरे चरण को इसलिए चौपट करने का षड्यंत्र रच चुके हैं ताकि अपनी जेबें भरी जा सकें।
पैसे के भूखे इन अफसरों तथा नेताओं ने यमुना एक्‍शन प्‍लान के दूसरे चरण को दरकिनार कर यमुना को प्रदूषण मुक्‍त करने का कार्य मथुरा-वृंदावन में प्रदेश की मुख्‍यमंत्री के ड्रीम प्रोजक्‍ट का हिस्‍सा बना दिया है।
गौरतलब है कि इलाहाबाद उच्‍च न्‍यायालय के आदेश पर यमुना एक्‍शन प्‍लान के तहत मथुरा-वृंदावन में यमुना को प्रदूषण मुक्‍त करने के लिए 450 करोड़ रूपये की धनराशि देना तय हुआ। इसमें से 104 करोड़ की धनराशि वृंदावन के लिए तथा शेष मथुरा के लिए थी।
इस धनराशि के उपयोग हेतु कुछ ऐसा खाका तैयार किया गया था जिस पर चलकर 25 से 40 वर्षों तक मथुरा-वृंदावन में यमुना के अंदर कहीं से भी एक बूंद गंदा पानी न जा सके लेकिन निजी स्‍वार्थ में लिप्‍त सरकारी मशीनरी व नेताओं ने अपना अलग खाका तैयार करा लिया। इस नये खाके में वृंदावन नगर पालिका का केवल वर्तमान एरिया और मथुरा में बंगाली घाट व उसके सामने यमुना पार का थोड़ा सा हिस्‍सा ही लिया गया है जबकि समूचे मथुरा-वृंदावन को शामिल किये बगैर यहां यमुना सफाई का कार्य हो ही नहीं सकता।
जब तक मथुरा के 19 नाले तथा वृंदावन के सभी 18 नालों का गंदा पानी और मथुरा में बड़े पैमाने पर चल रहे अवैध कट्टीघर का खून यमुना में गिरना बंद नहीं हो जाता तब तक यमुना के प्रदूषण मुक्‍त होने की बात सोचना सिवाय धोखे के कुछ नहीं।
ऐसा नहीं है कि इस स्‍िथति से इलाहाबाद उच्‍च न्‍यायालय अनभिज्ञ हो लेकिन वह पता नहीं क्‍यों उदासीन रवैया अपनाये हुए है। इलाहाबाद हाईकोर्ट के तत्‍कालीन चीफ जस्‍िटस गिरधर मालवीय व दूसरे न्‍यायाधीश के. डी. शाही की दो सदस्‍यीय पीठ ने यमुना एक्‍शन प्‍लान की मॉनिटरिंग के लिए रिटायर्ड सॉलीसीटर जनरल ए. डी. गिरी की अध्‍यक्ष्‍ाता वाली पांच सदस्‍यीय कमेटी का गठन किया।
इस कमेटी का सचिव इलाहाबाद उच्‍च न्‍यायालय के ही सीनियर एडवोकेट दिलीप गुप्‍ता को बनाया गया। कमेटी के पदेन सदस्‍यों में यमुना एक्‍शन प्‍लान के प्रोजेक्‍ट मैनेजर और मथुरा के डीएम व एसएसपी को रखा गया। यह कमेटी हर महीने याचिकाकर्ता गोपेश्‍वरनाथ चतुर्वेदी व नोडल अधिकारी एडीएम प्रशासन मथुरा को साथ लेकर यहां विजिट करके अपनी रिपोर्ट उच्‍च न्‍यायालय को सौंपती थी लेकिन वर्ष 2005 में कमेटी के अध्‍यक्ष ए. डी. गिरी की मृत्‍यु हो गई और तब से यमुना एक्‍शन प्‍लान लावारिस हो गया। आश्‍चर्यजनक रूप से उच्‍च न्‍यायालय ने ए. डी. गिरी के पद पर अब तक किसी की नियुक्‍ित नहीं की जिस कारण पूरी कमेटी निष्‍िक्रय पड़ी है। न्‍यायालय ने याचिकाकर्ता द्वारा इस बावत वर्ष 2007 में दिये गये प्रार्थना पत्र पर भी संज्ञान नहीं लिया है।
जे नर्म के नाम से मशहूर जवाहर लाल नेहरू नेशनल अरबन रिन्‍यूअल मिशन के तहत इस मद में मथुरा के लिए केवल 80 करोड़ रूपये स्‍वीकृत हुए हैं और वृंदावन इसमें शामिल है नहीं जबकि यमुना एक्‍शन प्‍लान में यह हिस्‍सा मथुरा-वृंदावन के लिए 450 करोड़ का था। ऐसे में सवाल यह पैदा होता है कि जिस कार्य के लिए यमुना एक्‍शन प्‍लान के दूसरे चरण में 450 करोड़ रूपये की भारी-भरकम धनराशि मुकर्रर की गई थी वह मथुरा में जे नर्म के 80 करोड़ तथा वृंदावन में मुख्‍यमंत्री ड्रीम प्रोजेक्‍ट के 34 करोड़ रूपयों में कैसे पूरा हो जायेगा। इस कार्य के लिए जरूरी बाकी 336 करोड़ रूपये कहां से आयेंगे।
यदि यमुना की प्रदूषण मुक्‍ित को लेकर यही रवैया रहा और शासन व प्रशासन के मौहरे शह तथा मात का खेल इसी प्रकार खेलते रहे तो यमुना केवल और केवल सीवर का टैंक बनकर रह जायेगी।
यदि यमुना की मौत होती है तो गंगा को भी बचा पाना संभव नहीं होगा। प्रसिध्‍द पर्यावरणविद् और गंगा तथा यमुना प्रदूषण के मुद्दे को कोर्ट तक ले जाने वाले एम. सी. मेहता ने कहा है कि जब तब गंगा की 14 सहायक नदियां शुध्‍द नहीं होतीं तब तक गंगा को शुध्‍द नहीं किया जा सकता।
एम. सी. मेहता की चेतावनी पर समय रहते गौर नहीं किया गया और यमुना जैसी जीवन दायिनी नदी की पल-पल हो रही मौत पर सब नहीं चेते तो इसके गंभीर परिणाम समूचे देश को भुगतने होंगे।
यमुना की कल-कल में समाई उसकी धड़कन को लौटाने का जिम्‍मा केन्‍द्र के साथ-साथ प्रदेश की सरकारों, न्‍यायपालिका, धर्माचार्यों, मीडियाकर्मियों का तो है ही, व्‍यापारी, उद्योगपति एवं जनसामान्‍य का भी है क्‍योंकि यमुना को मौत के मुहाने तक ले जाने में कहीं न कहीं हम सब की हिस्‍सेदारी रही है। हम मानें या ना मानें पर कड़वा सच यही है।
-सुरेन्‍द्र चतुर्वेदी

गुरुवार, 15 अप्रैल 2010

शीला दीक्षित जी की शर्मिंदगी/प्रॉब्‍लम


सज्जनता की हद तो देखिये कि बेचारी शीला दीक्षित इस बात पर शर्मिंदा हैं कि उन्हें चाहिए मात्र दो कमरे और रहना पड़ रहा है दो एकड़ के बंगले में। वह इस बात से भी शर्मिंदा हैं कि दिल्ली में तमाम लोग या तो मलिन बस्ितयों यानि झुग्गी-झौंपड़ियों में रहते हैं या फिर फुटपाथ पर सोते हैं और वो दो एकड़ के बंगले में हाथ-पैर फैलाकर सो रही हैं। शर्मिंदगी के साथ-साथ कुछ बातों से माननीय मुख्यमंत्री शीला दीक्षित को प्रॉब्लम भी है। प्रॉब्लम ये है कि उनकी दिल्ली में हर रोज देशभर से हजारों लोग आते हैं। प्रॉब्लम इस बात से है कि ये लोग फिर दिल्ली के ही होकर रह जाते हैं। वाकई बड़े जाहिल और गंवार लोग हैं वो जो जाते तो हैं दिल्ली रोजी-रोटी की खातिर लेकिन बना लेते हैं वहां अपना आशियाना। खरीद नहीं पाते तो किराये पर ले लेते हैं और किराये पर लेने की भी अगर हैसियत नहीं रखते तो फुटपाथ घेर लेते हैं। रहते हैं तो नम्बर दो से लेकर लघुशंका तक और थूकने से लेकर स्नानादि तक सब वहीं करते हैं जिस कारण दिल्ली गंदी होती है। जाहिल और गंवार जो ठहरे। ये नहीं कि शीला जी की तरह जहां रहें वहां गंदगी करें। हालांकि मुझे नहीं मालूम कि शीला जी नित् क्रियाओं से निवृत होने दिल्ली में ही जाती हैं या उन्होंने इसके लिए दिल्ली से बाहर कोई ठिकाना बना रखा है। और वो ठिकाना क्या देश से भी बाहर है। यदि मुझे सच्चाई का पता लग जाए तो मैं सूचना का अधिकार अधिनियम के तहत यह भी जरूर जानना चाहूंगा कि उनके इस कार्य पर आने वाले खर्च को कौन वहन करता है। जाहिर है कि दिल्ली की सीमा से बाहर शीला जी पैदल तो नहीं जाती होंगी, उसके लिए कोई कोई साधन जरूर होगा। खैर, इसका ब्यौरा पूरी जानकारी मिलने पर मांगा जायेगा। बहरहाल, फॉर योर काइण् इन्फॉरमेशन, शीला जी दिल्ली के मूल निवासियों को छोड़कर सभी को गंदा समझती हैं। सुन रही हैं सोनिया जी, समझ रहे हैं राहुल भाई ? मैं माननीय मुख्यमंत्री शीला दीक्षित जी की शर्मिंदगी और प्रॉब्लम दोनों से सहमत तो हूं लेकिन यह नहीं समझ पा रहा कि वह शर्मिंदा अधिक हैं या उन्हें प्रॉब्लम ज्यादा है। वह आखिर किस समस्या का निदान पहले करना चाहती हैं। अपनी शर्मिंदगी का या अपनी प्रॉब्लम का। देखिये शीला जी, इसका फैसला तो आप ही को करना होगा। यह निर्णय हम नहीं ले सकते। हां मशविरा जरूर दे सकते हैं क्योंकि फोकट का मशविरा देने पर देश के किसी हिस्से में पाबंदी नहीं है।अपने कथित लोकतांत्रिक अधिकारों के तहत मैं आपको यह मशविरा देता हूं कि पहले आप दिल्ली के ही किसी मनोचिकित्सक के पास जाकर यह तय करें कि आपकी कौन सी बीमारी बड़ी है। शर्मिंदगी वाली या दूसरी वाली। यदि शर्मिंदगी वाली बड़ी है तो उसका निदान पूरी तरह आपके कर कमलों में है। छोड़ दीजिये दो एकड़ के बंगले को और दो कमरों वाले फ्लैट में हो जाइये शिफ्ट, आपको कौन रोक सकता है। फिर सोइये चैन की नींद। आप राजा हैं और राजा के फैसलों को चुनौती देने का अधिकार किसी को नहीं होता। माना कि अब देश में फिरंगियों का शासन नहीं है और देश को स्वतंत्र हुए पूरे 62 वर्ष बीत चुके हैं लेकिन माननीय आखिर माननीय ही हैं। बाकी सब तो रियाया कहलाते हैं। हां यदि दूसरी बीमारी बड़ी मालूम पड़ती है तो वाकई समस्या गंभीर है। वैसे मुझे भी यही लगता कि दूसरी बीमारी गंभीर है क्योंकि शीला जी पहले भी उसका जिक्र कई बार मौके-बेमौके कर चुकी हैं जबकि शर्मिंदगी वाली समस्या का खुलासा पहली बार किया है।अब सवाल यह पैदा होता है कि इस दूसरी बीमारी का इलाज शीला जी के अपने कर-कमलों में नहीं है। होता तो कब का दिल्ली को बाहरी लोगों से खाली करा चुकी होतीं। सोनिया जी से कहतीं कि आप राजीव जी से शादी करके भारत आईं थीं और राजीव जी मौलिक रूप से कश्मीरी पण्िडत जवाहरलाल नेहरू जी की पुत्री इंदिरा जी के पुत्र थे। नेहरू जी इलाहाबाद आकर बस गये लिहाजा या तो आप कश्मीर जाकर बसिये या फिर इलाहाबाद रहिये। यह क्या कि बाल-बच्चों सहित दिल्ली पर कब्जा जमाये बैठी हैं।मुझसे किसी ने बहुत दिन पहले कान में एक बात कही थी। बात कहने वाले का आशय कुल जमा ये था कि अपनी शीला जी, राज ठाकरे से अत्यंत प्रभावित हैं। कहने वाले ने तो यह भी कहा था कि राज जी, समय-समय पर शीला जी को फीड देते रहते हैं। यही कारण है कि शीला जी के बयानों से उनके बयानों की बू आती है।मुझे उसकी बात में दम नजर रहा है क्यों कि राजनीति में सब-कुछ संभव है। यह मेरा नहीं, खुद राजनेताओं का कथन है। किसी भी तरह राज करने की नीति जो ठहरी।जो भी हो, शीला जी लेकिन आपकी बीमारियां गंभीर हैं और उनका समय रहते इलाज बहुत जरूरी है। कहीं ऐसा हो कि मौका हाथ से निकल जाए और आप इन बीमारियों को ढोते-ढोते मनोचिकित्सक से इलाज कराने लायक भी रहें। ईश्वर आपकी मदद करे। -यायावर
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