मंगलवार, 31 दिसंबर 2013

2014: आजादी के दूसरे कालखण्‍ड की शुरूआत

(लीजेण्‍ड न्‍यूज़ विशेष)
2013 अतीत बनने जा रहा है और 2014 भविष्‍य। कहते हैं अतीत कभी पीछा नहीं छोड़ता, भविष्‍य को वह किसी न किसी रूप में प्रभावित जरूर करता है। इसे यूं भी कह सकते हैं कि वह भविष्‍य का पीछा करता रहता है।
2013 में भारतीय 'लोक' ने 'तंत्र' पर कुछ ऐसी चोट की है कि देश के भाग्‍यविधाता पिछले 66 सालों से रटी-रटाई लोकतंत्र की परिभाषा को फिर गढ़ने पर विचार करने लगे हैं।
दरअसल 60 साल के बाद की उम्र किसी के भी लिए विचारणीय होती है। इसे एक दूसरे पड़ाव के रूप में भी देखा जाता है। संभवत: इसीलिए पहले के शासक 60 साल की उम्र पूरी होने पर स्‍वेच्‍छा पूर्वक वानप्रस्‍थ आश्रम ग्रहण कर लेते थे। आज भी अधिकतम यही उम्र हर प्रकार के सेवाकाल से अवकाश प्राप्‍ति हेतु निर्धारित है।
हम इसे देश को मिली आजादी का दूसरा कालखण्‍ड भी कह सकते हैं जो अपने 6 दशक पूरे होने पर ही शुरू हो चुका था लेकिन उसकी आहट सुनाई दी 2013 में।   
ऐसे में यह माना जा सकता है कि 2013 से प्रभावित 2014 कुछ अलग होगा। इस वर्ष कुछ ऐसा होगा जो भारत के भविष्‍य को नए सिरे से गढ़ने में महत्‍वपूर्ण भूमिका निभायेगा।
पिछले 66 सालों में भारत के तथाकथित भाग्‍य विधाताओं ने लोकतंत्र को सिर्फ और सिर्फ निजी हित साधने में प्रयोग किया। उनके लिए आजादी के मायने अगर कुछ थे तो चुनावों के नाम पर प्राप्‍त अधिकार एवं कर्तव्‍यों का भरपूर दुरुपयोग करना था। वह जनप्रतिनिधि कहलाते अवश्‍य रहे परंतु जनता से उनका कोई वास्‍ता नहीं रह गया था। सामंतवाद के नये चेहरे बन चुके थे देश के अधिकांश माननीय।
2013 के विदा होते-होते भारतीय राजनीति में और समाज के अंदर जो अप्रत्‍याशित घटनाएं हुईं उन्‍होंने यह अहसास करा दिया कि वक्‍त अब बहुत तेजी के साथ करवट ले रहा है।
जिन्‍होंने इस अहसास को शिद्दत से महसूस किया और इसकी नब्‍ज़ टटोली, उन्‍होंने काफी हद तक 2014 के लिए खुद को तैयार भी कर लिया लेकिन कुछ लोग ऐसे भी थे जिन्‍होंने वक्‍त की नज़ाकत को दरकिनार करने का दुस्‍साहस किया, नतीजा सबके सामने है। आज उनके ऊपर हमेशा-हमेशा के लिए इतिहास बन जाने का खतरा मंडरा रहा है।
आश्‍चर्य की बात यह है कि इतना सब-कुछ घट जाने तथा तमाम घटनाओं द्वारा भविष्‍य को रेखांकित किये जाने के बावजूद बहुत से लोग शुतुरमुर्ग बने बैठे हैं। उन्‍हें लगता है कि रेत में सिर गढ़ा लेने से तूफान सिर के ऊपर से होकर गुजर जायेगा।
ऐसे लोगों को समझना होगा कि बहुत हो चुका। लोकतंत्र के नाम पर लोक के साथ काफी मजाक कर लिया। अब वह मजाक बर्दाश्‍त के बाहर हो चुका है।
2014 का लोकसभा चुनाव राजनीति के शेष रहे संक्रमण का उपचार करने में कारगर भूमिका अदा करेगा, इसमें कोई दो राय नहीं। बेहतर होगा कि इन चुनावों का विधिवत शंखनाद होने से पहले अतीत में घटी घटनाओं पर विचार करें और उनके पीछे छिपे संदेश को समय रहते समझ लें अन्‍यथा भविष्‍य इतना भयावह हो सकता है जिसकी कल्‍पना तक देश के स्‍वयंभू भाग्‍यविधाताओं ने नहीं की होगी।
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