सोमवार, 6 जनवरी 2014

तुम याद तो जरूर रहोगे मनमोहन

(लीजेण्‍ड न्‍यूज़ विशेष)


 'मैं, ..............ईश्वर की शपथ लेता हूँ/सत्यनिष्ठा से प्रतिज्ञान करता हूँ कि मैं विधि द्वारा स्थापित भारत के संविधान के प्रति सच्ची श्रद्धा और निष्ठा रखूँगा, मैं भारत की प्रभुता और अखंडता अक्षुण्ण रखूँगा, मैं संघ के मंत्री के रूप में अपने कर्तव्यों का श्रद्धापूर्वक और शुद्ध अंतःकरण से निर्वहन करूँगा तथा मैं भय या पक्षपात, अनुराग या द्वेष के बिना, सभी प्रकार के लोगों के प्रति संविधान और विधि के अनुसार न्याय करूँगा।'
'मैं, ........ईश्वर की शपथ लेता हूँ/सत्यनिष्ठा से प्रतिज्ञान करता हूँ कि जो विषय संघ के मंत्री के रूप में मेरे विचार के लिए लाया जाएगा अथवा मुझे ज्ञात होगा, उसे किसी व्यक्ति या व्यक्तियों को, तब के सिवाय जबकि ऐसे मंत्री के रूप में अपने कर्तव्यों के सम्यक्‌ निर्वहन के लिए ऐसा करना अपेक्षित हो, मैं प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष रूप से संसूचित या प्रकट नहीं करूँगा।'
यह मात्र आठ-दस लाइनें नहीं हैं। यह संविधान (सोलहवाँ संशोधन) अधिनियम, 1963 की धारा 5 द्वारा अंतःस्थापित नियमों के तहत ली जाने वाली वो शपथ है जिसे प्रत्‍येक मंत्री अपना पदभार ग्रहण करने से पहले लेता है।
अब जरा प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह के 3 जनवरी 2014 के उस व्‍याख्‍यान पर गौर कीजिए जो उन्‍होंने पूर्व निर्धारित संवाद्दाता सम्‍मेलन में दिया था।
वह कहते हैं कि- मैं उम्‍मीद करता हूं कि इतिहास मेरे प्रति उदारता बरतेगा और मीडिया की तरह मेरे कार्यों का कठोर आंकलन नहीं करेगा।
थोड़ी देर के लिए दलगत राजनीति को पूरी तरह तिलांजलि देकर सिर्फ कांग्रेस के नेतृत्‍व वाली उस यूपीए सरकार पर नज़र डाली जाए जिसके बतौर मुखिया प्रधानमंत्री लिखा-पढ़ी में मनमोहन सिंह थे.............. तो क्‍या उन्‍हें इतिहासकारों से ऐसी कोई उम्‍मीद रखनी चाहिए?
क्‍या मनमोहन सिंह को देश की वह जनता कभी माफ कर सकती है जिसका दलगत राजनीति से न कभी कोई वास्‍ता था और ना शायद कभी रहेगा। राजनीति अथवा राजनीतिक दल तो उस जनता लिए केवल अपने एक ऐसे 'अधिकार' तक सीमित हैं जिसे वह चुनावों के दौरान मतदान या मताधिकार के रूप में इस्‍तेमाल करती है। वह भी इस उम्‍मीद में कि संभवत: इस बार व्‍यवस्‍था परिवर्तन हो सके। संभवत: उसे किसी स्‍तर पर महसूस हो कि वाकई सरकार को उसने चुना है। अन्‍यथा कड़वा सच यही है कि उसके मतदान करने या न करने से सरकारों के बनने पर कोई फर्क नहीं पड़ता। मतदान का प्रतिशत कितना ही कम क्‍यों न हो, सरकार तो तब भी बना ही ली जाती है और उसी को बहुमत मान लिया जाता है।
यहां 'मतदान' अथवा 'मताधिकार' जैसे शब्‍दों पर गौर फरमाना जरूरी हो जाता है। यह दोनों ही शब्‍द भ्रमित करते हैं। यदि जनप्रतिनिधियों के चुनाव की प्रक्रिया मतदान से है तो यह कैसा 'दान' है जिसे जनता अनिच्‍छा से देने के लिए अभिशप्‍त है। वह पात्र या कुपात्र का चयन न करके मात्र उन प्रत्‍याशियों में से किसी एक को चुनने के लिए बाध्‍य है जिसे राजनीतिक दलों ने अपनी इच्‍छानुसार थोपा है। और यदि यह प्रकिया हमें अधिकार देती है और मताधिकार से चुनाव होता है तो यह कैसा अधिकार है जिसे देने के बाद हमारे हाथ में कुछ नहीं रह जाता। सिवाय हाथ मलते रहने के।
चुनाव प्रक्रिया के एक नये अधिकार 'नोटा' की बात करें तो उससे भी फिलहाल जनता के हाथ कुछ नहीं आने वाला। हां, इतना अवश्‍य है कि वह किसी को वोट न देकर अपनी बेबसी दर्शा सकती है। वैसे यह काम जनता पहले भी मतदान न करके करती रही है।
बहरहाल, संवैधानिक पद ग्रहण करने से पूर्व ली जाने वाली शपथ से लेकर मतदान अथवा मताधिकार तक....सब-कुछ जैसे आमजन को भ्रमित करने का तरीका बनकर रह गया है और इसी का लाभ स्‍वतंत्र भारत के छद्म भाग्‍यविधाता उठाते रहे हैं। चूंकि कांग्रेस ही किसी न किसी तरह अधिक समय तक शासक रही है इसलिए आमजन को धोखे में रखने का काम उसी के खाते में जाता है।
इन हालातों में जहां तक सवाल मनमोहन सिंह की इतिहासकारों से अपेक्षा का है तो उस पर यही कहना मुनासिब होगा कि या तो वह आत्‍ममुग्‍धता के शिकार हैं या फिर उस तथाकथित ईमानदारी के जिसका ढिंढोरा पीटकर देश के दस कीमती साल कांग्रेस ने बर्बाद कर दिए। इतिहास और आमजन का वश चले तो वह उन्‍हें शायद याद रखना भी पसंद न करें। ऐसा क्‍यों है.....इसका जवाब खुद मनमोहन सिंह को मिल सकता है बशर्ते वह सोनिया-राहुल की छाया के प्रभाव से बाहर आकर यदि 5 मिनट के लिए भी आत्‍मचिंतन करने में बिता सकें।
रही बात उनके द्वारा नरेन्‍द्र मोदी को देश के लिए विनाशकारी बताने की तो ऐसा कहकर उन्‍होंने अपनी बुद्धिमान होने की छवि को ही प्रभावित किया है। उन्‍होंने जाते-जाते यह साबित कर दिया कि वह एक ऐसे प्रधानमंत्री हैं जो मन, वचन तथा कर्म से सोनिया-राहुल के बंधक है और उसकी अपनी कोई सोच है ही नहीं।
नरेन्‍द्र मोदी देश के लिए क्‍या साबित होंगे, इसका निर्णय तो आने वाला समय करेगा लेकिन अगर बात करें इस साल होने जा रहे चुनावों की तो वह नि:संदेह बहुत महत्‍वपूर्ण होंगे।
महत्‍वपूर्ण इसलिए नहीं कि सत्‍ता में कोई परिवर्तन संभावित है, महत्‍वपूर्ण इसलिए कि अब व्‍यवस्‍था में परिवर्तन की जन आकांक्षा दिखाई देने लगी है। मोदी आयें या केजरीवाल ही क्‍यों न आ जाएं.....अब जनता यह चाहती है कि किसी संवैधानिक पद के लिए ली गई शपथ और 'मतदान' अथवा 'मताधिकार' का इस्‍तेमाल जाया न हो। वह चाहती है कि लोकतंत्र की आड़ में उसके साथ 66 सालों से लगातार की जा रही धोखाधड़ी बंद हो। संवैधानिक पद की शपथ तथा मताधिकार का महत्‍व उसकी मूल भावना के अनुरूप हो।
इन चुनावों के बाद भी अगर जनता को ऐसा महसूस हुआ कि उसकी चुनी हुई सरकार और उसके द्वारा निर्वाचित प्रतिनिधियों की नीयत नेक रास्‍ता अख्‍त़ियार करने को तैयार नहीं है तो आने वाला समय ऐसा इतिहास लिखेगा जिसकी किसी राजनीतिक दल या किसी नेता ने कल्‍पना तक नहीं की होगी।
इस करवट लेते समय की चूंकि मनमोहन सिंह आखिरी कड़ी हैं इसलिए उनका जिक्र तो जरूर होगा परंतु उस तरह नहीं जिस तरह वह सोचे बैठे हैं।
कठपुतलियों को लोग याद तो रखते हैं लेकिन सिर्फ और सिर्फ इसलिए कि वह तमाशा दिखाने के काम आती हैं। इसलिए नहीं कि उनमें कोई गतिशीलता या क्रियाशीलता होती है........ सब जानते हैं कि कठपुतलियों की क्रियाशीलता और गतिशीलता उन उंगलियों की मोहताज होती है जिनकी डोर पर्दे के पीछे छिपी दूसरी उंगलियों से बंधी रहती है।
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