रविवार, 26 जनवरी 2014

उत्‍सव किसका... 'गण' का... या 'तंत्र' का ?

(लीजेण्‍ड न्‍यूज़ विशेष)
अगर सन्, संवत्, तारीख और कलेण्‍डर की बात करें तो देश आज अपना 65 वां गणतंत्र दिवस मना रहा है। पर यदि बात करें उपलब्‍धियों की तो साढ़े छ: दशक का कालखण्‍ड बहुत से सवाल खड़े करता है। संभवत: यही वजह है कि आज के दिन भी जब कोई कुछ लिखने या याद करने बैठता है तो उसके हिस्‍से में उपलब्‍धियां इतनी कम आती हैं कि वह न चाहते हुए उदासी का अहसास कराए बिना नहीं रह पाता। वह खुद को गौरवान्‍वित महसूस करना चाहता है और देशवासियों को आशावान रहने का संदेश देना चाहता है परंतु ऐसा भी नहीं कर पाता।
शायद इसीलिए आज के अखबारों में गणतंत्र को लेकर जितने भी लेख समाज के विभिन्‍न वर्गों से आए बुद्धिजीवियों ने लिखे हैं, उनमें गणतंत्र दिवस की खुशी कम और एक किस्‍म की टीस अधिक महसूस होती है।
कहने को एक विशेष वर्ग इसे बुद्धिजीवियों की नकारात्‍मक सोच या उपलब्‍धियों को कम आंकने की प्रवृत्‍ति कहकर खारिज कर सकता है परंतु ऐसा है नहीं।
यूं भी 'शिखर' किसी का हो, वहां से धरातल की सच्‍चाई का अंदाज लगा पाना कठिन होता है और यही दिक्‍कत है हमारे शासक वर्ग की। वह बाढ़ की विभीषिका को भी हेलीकॉप्‍टर में बैठकर देखता है। वह नुकसान का आंकलन आंकड़ों से करता है, न कि नुकसान उठाने वालों के बोझ से।
सत्‍ता के शीर्ष पर किसी न किसी रूप में जमे रहकर जब उपलब्‍धियों को आंका जाता है तो उसमें कहीं न कहीं सत्‍ता का सुख खु़द-ब-खु़द समाहित होता है जबकि ज़मीनी हकीकत उससे कहीं बहुत अधिक तल्‍ख़ होती है।
कड़वा सच यह है कि सारा देश जैसे आधा गिलास भरा और आधा गिलास खाली के तर्क-वितर्क में उलझा है। ईमानदारी से कोई यह कहने को तैयार नहीं कि बेशक आधा गिलास भरा है पर आधा गिलास खाली भी है और खाली गिलास को भरने की जरूरत इसलिए है क्‍योंकि 65 सालों में इसे भर जाना चाहिए था, क्‍योंकि हमारी जरूरत है उसका जल्‍द से जल्‍द भरा जाना।
जब हम बात करते हैं भ्रष्‍टाचार, दुराचार, अनाचार, गरीबी, भुखमरी, अव्‍यवस्‍थाओं एवं कुव्‍यवस्‍थाओं की तो तुलनात्‍मक अध्‍ययन करने लगते हैं दूसरे मुल्‍कों का, उदाहरण देने लगते हैं वहां व्‍याप्‍त समस्‍याओं का लेकिन जब बात आती है तरक्‍की की तो हम अपनी परेशानियों का रोना लेकर बैठ जाते हैं। तब हम तुलनात्‍मक अध्‍ययन करते हैं विपक्षी पार्टियों के कार्यकाल से, उदाहरण देने लगते हैं उनकी ख़ामियों का और यह साबित करने का प्रयास करते हैं कि किस तरह हम अपने प्रतिद्वंदी से हर मायने में श्रेष्‍ठ हैं। प्रतिस्‍पर्धा तो हो रही है लेकिन अच्‍छाई के लिए नहीं, बुराई के लिए।
कौन नहीं जानता कि गणतंत्र दिवस और स्‍वतंत्रता दिवस एक रस्‍म अदायगी बनकर रह गए हैं। इनके आयोजनों में वह खुशी नहीं है जो होनी चाहिए। मन से शायद ही कोई अब इन राष्‍ट्रीय पर्वों को मनाता हो क्‍योंकि गण से तंत्र इतनी दूर हो गया जितना आसमान दूर है ज़मीन से।
2013 में गण ने तंत्र को झकझोरा जरूर और उसी के परिणामस्‍वरूप पांच राज्‍यों के चुनाव परिणामों ने एक कंकड़ उछालकर सत्‍ता की राजनीति में ख़लल डाल दिया लेकिन इतना काफी नहीं है।
काफी होता तो शह और मात के लिए षड्यंत्रों का खेल पूरी शिद्दत से न खेला जाता। 65 सालों की तुलना एक महीने से भी कम समय के शासन से नहीं की जाती। 'सबक सीखने' को 'एंज्‍वाय' नहीं किया जाता।
इस सबके बावजूद गण के पास तंत्र के अधीन रहने के सिवा चारा क्‍या है। तंत्र की खुशी में खुश होने के अतिरिक्‍त वह कर क्‍या सकता है। 2014 के लोकसभा चुनाव सामने हैं। यह भी एक उत्‍सव है। देखना यह है कि इस बार का यह उत्‍सव आने वाले राष्‍ट्रीय पर्वों को एक गिनती बनाए रखता है या फिर सही मायनों में गौरवान्‍वित करने का, खुशी मनाने का अवसर प्रदान करता है। जय हिंद! जय भारत!
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