मंगलवार, 18 फ़रवरी 2014

कहां से आए इतने चील, गिद्ध और कौए ?

(लीजेण्‍ड न्‍यूज़ विशेष) 
ऐसा लगता है जैसे इस देश पर प्रेतों का साया हो। इंसानों से कहीं अधिक चील, गिद्ध और कौए मंडरा रहे हों। आम इंसान इनकी शक्‍ति व सामर्थ्‍य के सामने बेबस सा हो गया है। वह इनकी हरकतों को चुपचाप देखते रहने पर मजबूर है जबकि यह उसकी आत्‍मा तक को कचोट रहे हैं।
इंसानी शक्‍ल अख्‍़तियार किए आखिर कहां से आये इतने चील, गिद्ध और कौए? कहां से आई इनमें इतनी शक्‍ति व इतना सामर्थ्‍य? इतनी प्रेत आत्‍माएं कब और कैसे एकत्र हो गईं?
सवाल बहुत से हैं लेकिन जवाब किसी का नहीं। जिन्‍हें जवाब देना है या जिनके ऊपर जवाबदेही है, वही सबसे बड़े सवाल बनकर आ खड़े हुए हैं।
गीता में भगवान श्रीकृष्‍ण ने कहा है कि आत्‍मा अजर और अमर है। उसे ना कोई अस्‍त्र-शस्‍त्र नुकसान पहुंचा सकता है और ना अग्‍नि जला सकती है। आत्‍मा कभी नहीं मरती। वह तो सिर्फ उसी प्रकार अपना चोला बदलती है जिस प्रकार इंसान वस्‍त्र बदलता है।
सब जानते हैं कि इंसानों की बढ़ती भीड़ ने जंगल और जंगली पशु एवं  पक्षियों के अस्‍तित्‍व पर प्रश्‍नचिन्‍ह लगा दिया है। जंगल जितनी तेजी से खत्‍म हो रहे हैं, इंसान उतनी ही तेजी से बढ़ रहे हैं।
तो क्‍या हिंसक जंगली जानवर अब इंसानों का चोला पहन कर पैदा हो रहे हैं?
क्‍या इसीलिए इंसान से दिखने वाले जीवों में जंगली पशु-पक्षियों सी हिंसक प्रवृत्‍ति नजर आती है?
क्‍या यही वजह है कि आकाश में भी अब चील, गिद्ध और कौए जैसे मांसाहारी पक्षी दूर-दूर तक दिखाई नहीं देते?
यदि गीता में कहे गए श्रीकृष्‍ण के वचनों पर भरोसा करें तो सच्‍चाई यही लगती है।
हां! जो हिंसक आत्‍माएं अतृप्‍त रह जाती हैं और भटकने को बाध्‍य हैं, वह प्रेत योनि को प्राप्‍त कर आमजन की सुख-शांति नष्‍ट करती रहती हैं। उनका साया इंसानों को तरह-तरह से प्रताड़ित करता रहता है।
भारत के मामले में यह बात इसलिए अधिक उचित प्रतीत होती है क्‍योंकि यह दुनिया के उन मुल्‍कों में सबसे ऊपर है जहां जनसंख्‍या अनियंत्रित है और उसे नियंत्रित करने का कोई प्रयास किसी स्‍तर पर नहीं किया जा रहा। यह उन देशों में भी सबसे ऊपर है जहां जंगलात की बर्बादी तथा कंक्रीट के जंगली विस्‍तार को रोकने का कोई उपाय किसी स्‍तर पर नहीं किया जा रहा।
प्रकृति के इस असंतुलन से इंसानों की शक्‍ल में हिंसक जीव-जंतु पैदा हो रहे हैं और हिंसक जीव-जंतुओं को इंसान अपना निवाला बना रहा है। इंसानों की शक्‍ल लेकर पैदा होने वाले हिंसक जीव-जंतुओं की मौलिक प्रवृत्‍ति उनसे जानवरों सरीखे काम करा रही है और जानवरों को अपनी ज़िंदगी बचाना मुश्‍किल हो रहा है।  
प्रकृति के असंतुलन से उपजी विकृतियों का ही परिणाम है कि कभी केदारनाथ का सैलाब हजारों लोगों की ज़िंदगी छीन लेता है तो कभी भारी बारिश एवं चक्रवात अनगिनित लोगों की ज़िंदगी उजाड़ देता है।
गीता के श्‍लोकों पर भरोसा करें तो बढ़ते आतंकवाद व नक्‍सलवाद की भी यही वजह है अन्‍यथा कोई इंसान कैसे इतना हिंसक, इतना दयारहित हो सकता है जो बिना किसी कारण एकसाथ अनेक निर्दोष लोगों की जान ले डाले। कैसे कोई इतना सेंसलैस हो सकता है कि अपनी ही बहन-बेटियों की इज्‍ज़त अपनी हवस मिटाने के लिए तार-तार कर दे। कैसे कोई किसी राह चलती महिला पर झपट्टा मारकर उसे अपनी हवस मिटाने के लिए उठा ले जा सकता है, लेकिन हो यही रहा है। इसलिए हो रहा है कि जानवरों में किसी रिश्‍ते-नाते का कोई मतलब नहीं होता। जानवर अपनी ही संतति से शारीरिक संबंध स्‍थापित करते हैं। जानवर ही शारीरिक संबंध बनाने के लिए विपरीत सेक्‍स की इच्‍छा-अनिच्‍छा को महत्‍व नहीं देते।
दूसरी ओर माननीयों का तमगा प्राप्‍त हमारे जनप्रतिनिधि संविधान के मंदिर में बैठकर अपने ही साथियों पर हमलावर हो जाते हैं। कहने को यह देश दुनिया का सबसे विशाल लोकतंत्र है लेकिन कुर्सी की खातिर लोकतंत्र को खूंटी पर टांग दिया जाता है। वर्चस्‍व के लिए जंगली जानवरों सा व्‍यवहार करना कोई नई बात नहीं रह गई है। आज संसद में पैपर स्‍प्रे का इस्‍तेमाल किया गया, कल किसी घातक रसायन हथियार का भी प्रयोग किया जा सकता है। हो सकता है कि कभी कोई माननीय, मनोज वाजपेयी अभिनीत फिल्‍म 'शूल' के क्‍लाईमेक्‍स को साकार कर दे अथवा पूरी संसद को ही ब्‍लास्‍ट करके उड़ा दे।
तेलंगाना पर संसद में किए गए उपद्रव के बाद यह तो पता लग ही चुका है कि संसद के अंदर प्रवेश के लिए माननीयों को चैक करने का कोई नियम नहीं है। वह चाहें तो असलाह भी अंदर ले जा सकते हैं।
इन हालातों में इंसानी शक्‍लो-सूरत वाले कौन से माननीय कब अपनी मौलिक प्रवृत्‍ति का प्रदर्शन करने को हथियारों के साथ प्रवेश कर जाएं और कब देश को एक नया काला अध्‍याय लिखने को मजबूर कर दें, कहना मुश्‍किल है।
कहना तो यह भी मुश्‍किल है कि कंक्रीट के जंगल में विशाल एवं आलीशान बंगलों के अंदर निवास करने वाला कौन सा हिसंक परंतु माननीय जीव कब अपनी हवस मिटाने पर आमादा हो जाए। कुछ भी कहना मुश्‍किल है।
यह भी कि कहीं संसद पर मंडरा रहा प्रेतों का साया, उन्‍हीं अतृप्‍त माननीयों का हो जिनकी आत्‍माएं मनमाफिक कुर्सी पाने से पूर्व ही दुनिया से चल बसी हों और वही संसद की शांति भंग करने के लिए जिम्‍मेदार हों।
जो भी हो, लेकिन इसमें कोई दो राय नहीं कि आज तमाम लोग जो इंसान जैसे दिखाई देते हैं जरूरी नहीं कि वाकई इंसान ही हों। यह भी हो सकता है कि वह इंसान की शक्‍ल में भेड़िये हों और इसीलिए हर वक्‍त अपनी धूर्त चालों से अपना मकसद पूरा करने की जुगत भिड़ाते रहते हों।
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