शुक्रवार, 25 दिसंबर 2015

टके-टके पर बिक रही हैं अखबारों की नीति और नैतिकता

This night have Not any morningआगरा से प्रकाशित दैनिक हिन्‍दुस्‍तान अखबार के कल यानि 22 दिसंबर 2015 के अंक में फ्रंट पेज पर एक विज्ञापन प्रकाशित किया गया है। आधे पेज के इस विज्ञापन का मजमून कुल इतना है कि ”22 दिसंबर है साल की सबसे लंबी रात”। इसे दें कुछ एक्‍स्‍ट्रा टाइम।
इन लाइनों के नीचे एक ”कपल” का ”संभोगरत” चित्र है और उसके नीचे लिखा है-”इस रात की सुबह नहीं”। दरअसल, यह विज्ञापन ”कोहेनूर कॉन्‍डोम” का है।
”हिन्‍दुस्‍तान टाइम्‍स” समूह का यह हिंदी अखबार देश के न केवल सबसे पुराने अखबारों में से एक है बल्‍कि इसके प्रधान संपादक ”शशि शेखर” अक्‍सर अपने लेखों में नीति और नैतिकता की बड़ी-बड़ी नसीहतें अन्‍य दूसरे अखबार के संपादकों से कहीं अधिक देते नजर आते हैं।
बेशक आज लगभग हर बड़े अखबार का संपादक अपने मालिकों की व्‍यावसायिक जरूरतों के सामने अपनी नीति-नैतिकता को ताक पर रखकर ही काम करने के लिए मजबूर होता है किंतु दैनिक हिन्‍दुस्‍तान के प्रधान संपादक शशि शेखर अपने हर लेख में खुद को दूसरे संपादकों तथा मीडिया कर्मियों से इतर साबित करने का प्रयास करते हैं।
ऐसे में सवाल यह पैदा होता है कि क्‍या अपनी नौकरी बचाए रखने तथा मालिकों के लिए एक अदद अश्‍लील विज्ञापन से होने वाली आय के लिए शशि शेखर जैसे लोग किसी भी हद तक जा सकते हैं?
वैसे हिन्‍दुस्‍तान अखबार या उसके संपादक शशि शेखर, प्रिंट मीडिया की दुनिया में कोई अपवाद नहीं हैं क्‍योंकि तमाम तथाकथित बड़े अखबार यही सब कर रहे हैं किंतु क्‍या इसे केवल इसलिए जायज ठहराया जा सकता है कि दूसरे अखबार यह सब कर रहे हैं तो दैनिक हिन्‍दुस्‍तान क्‍यों नहीं कर सकता।
छपे हुए शब्‍दों का बहुत सम्‍मान होता है, अपेक्षाकृत बोले हुए शब्‍दों के। अखबार में विज्ञापन छापने की भी अपनी गाइड लाइंस हैं और उनका पालन करना हर अखबार के प्रकाशक और संपादक की जिम्‍मेदारी है। गाइड लाइंस का अतिक्रमण करना अपराध की श्रेणी में आता है और इसके लिए प्रकाशक व संपादक दोनों जिम्‍मेदार माने जाते हैं।
इस सबके अलावा भी फिल्‍मों में आपत्‍तिजनक सीन पर हो-हल्‍ला मचाने से लेकर विधानसभा में किसी विधायक द्वारा अपने मोबाइल पर ‘पोर्न’ देखने तक पर हंगामा काटने वाले अखबार नवीस क्‍या चंद रुपयों के विज्ञापन की खातिर सारी नीति-नैतिकता भूल जाते हैं।
सामाजिक सुधार के ठेकेदार ऐसे अखबार मालिकों और संपादकों से क्‍या कोई यह पूछ सकता है कि एक अदद विज्ञापन के पैसों में बिकने वाली उनकी नीति-नैतिकता आखिर समाज को क्‍या सिखा रही है और किस आधार पर वह समाज में बढ़ रहे यौन अपराधों के लिए केवल व्‍यवस्‍थागत खामियों को दोष देने का काम करते हैं।
पहले पन्‍ने की बात यदि छोड़ दें और अधिकांश तथाकथित बड़े अखबारों के अंदर छपने वाले क्‍लासीफाइड विज्ञापनों के पन्‍ने को देखें तो भी ऐसा लगता है जैसे वह अखबार न होकर उस आम सड़क की दीवार हों, जिस पर कोई भी कुछ भी प्रचारित करने के लिए स्‍वतंत्र है।
”छोटा लिंग निराश क्‍यों…लिंगवर्धक यंत्र फ्री…जैसे विज्ञापनों से भरे हुए इन अधिकांश तथाकथित बड़े अखबारों के पन्‍ने वशीकरण, जादू-टोने, तंत्र-मंत्र आदि के शर्तिया इलाज का भी भरपूर प्रचार-प्रसार करते हैं और महिला दोस्‍त बनाने वालों के विज्ञापन छापकर सैक्‍स रैकेट चलाने वालों की भी पूरी मदद करते हैं।
हालांकि यह सारे काम देश का इलैक्‍ट्रॉनिक मीडिया भी बखूबी कर रहा है लेकिन प्रिंट मीडिया इसके लिए ज्‍यादा जिम्‍मेदार इसलिए है क्‍योंकि आज भी प्रिंट मीडिया को इलैक्‍ट्रॉनिक मीडिया की अपेक्षा अधिक विश्‍वसनीयता हासिल है।
मीडिया की स्‍वतंत्रता उस अभिव्‍यक्‍ति की स्‍वतंत्रता का हिस्‍सा है जो संविधान प्रदत्‍त अधिकारों की श्रेणी में आती है किंतु इसका यह अर्थ कतई नहीं कि स्‍वतंत्रता की आड़ लेकर मीडिया अपने अधिकारों का अतिक्रमण व्‍यावसायिक हित साधने के लिए करने लगे।
सच तो यह है कि ऐसा करने वाले मीडिया हाउसेस उस आम आदमी से कहीं ज्‍यादा बड़े अपराधी हैं जो अपने गैरकानूनी कार्यों को जायज ठहराने के लिए मजबूरी का सहारा लेता है या फिर सारा दोष व्‍यवस्‍था के माथे मढ़ देता है।
पैसा कमाने के लिए अखबार के पहले पन्‍ने पर भी अश्‍लील विज्ञापन छापने से परहेज न करने वाले अखबार मालिक समाज में तेजी से फैल रहे यौन अपराधों के लिए उतने ही जिम्‍मेदार हैं जितने कि दूसरे असामाजिक तत्‍व।
समय की मांग है कि जनहित में ऐसे अखबार मालिकों के खिलाफ स्‍वत: संज्ञान लेते हुए एक ओर जहां सरकार को कठोर कदम उठाने चाहिए वहीं दूसरी ओर प्रेस काउंसिल ऑफ इंडिया को भी इनके खिलाफ सख्‍त कार्यवाही अमल में लानी चाहिए ताकि अखबारों को विज्ञापन की आड़ में सस्‍ती कामुक सामग्री परोसने से रोका जाए और अखबार अपनी मान-मर्यादा को इतना न गंवा दें कि लोग घरों में अखबार मंगाने से परहेज करने लगें।
-लीजेंड न्‍यूज़ विशेष

शुक्रवार, 4 दिसंबर 2015

बीएड फर्जीवाड़े में जेल जायेंगे मथुरा के भी 20 से अधिक कॉलेज संचालक

-एसआईटी ने कर ली है पूरी जन्‍मकुंडली तैयार -पाई-पाई का हिसाब निकाला और यह भी पता कर लिया कि कैसे पहुंचे ये फर्श से अर्श तक जो समय बीत रहा है, वही बीत रहा है लेकिन इतना तय है कि डॉ. भीमराव अंबेडकर विश्‍वविद्यालय के बीएड फर्जीवाड़े में शामिल मथुरा के कई कॉलेज संचालक भी अब जेल जाने से बच नहीं पायेंगे।इस फर्जीवाड़े के तहत देश के शिक्षा जगत में अब तक की सबसे बड़ी आपराधिक कानूनी कार्यवाही होने जा रही है।
कोर्ट के आदेश पर जून 2014 से इस फर्जीवाड़े की जांच एसआईटी (विशेष जांच दल) द्वारा जब शुरू की गई तो पता लगा कि इसमें आगरा के डॉ. भीमराव अंबेडकर विश्‍वविद्यालय से संबद्ध 83 कॉलेज लिप्‍त रहे हैं।
इन कॉलेजों ने विश्‍वविद्यालय के अधिकारी एवं कर्मचारियों के साथ मिलकर 3670 फर्जी रोल नंबर जेनरेट कर दिए और उनके माध्‍यम से जारी बीएड की फर्जी मार्कशीट पर 2700 लोगों को सरकारी शिक्षक की नौकरी भी मिल गई।
इस दुस्‍साहसिक फर्जीवाड़े में एसआईटी ने डॉ. भीमराव अंबेडकर विश्‍वविद्यालय के दो पूर्व कुलपतियों, कुलसचिवों, शिक्षकों, कर्मचारियों और कॉलेज संचालकों सहित 4000 लोगों को आरोपी बनाया है।
इन घोटालेबाजों के खिलाफ कानूनी कार्यवाही में जो विलंब हो रहा है, वह सिर्फ इसलिए क्‍योंकि एसआईटी पहले अपनी रिपोर्ट हाई कोर्ट में पेश करेगी और उसके बाद कार्यवाही आगे बढ़ायेगी।
एसआईटी की जांच में जिन जिलों के कॉलेज संचालकों का नाम सामने आया है उनमें एटा, मैनपुरी, फिरोजाबाद, बागपत तथा मेरठ सहित मथुरा का नाम प्रमुख है।
गौरतलब है कि पिछले कुछ वर्षों के अंदर शिक्षा का व्‍यवसाय एक ऐसा व्‍यवसाय बन चुका है जिसमें सर्वाधिक लाभ दिखाई देता है। खुद को शिक्षाविद् कहने वाले शिक्षा माफिया ने पैसे की खातिर इस व्‍यवसाय को इतना नीचे गिरा दिया कि आज शिक्षा व्‍यवसाई घृणा के पात्र बन गए हैं।
बात करें यदि मथुरा सहित आगरा मंडल की तो शिक्षण संस्‍थाओं का सर्वाधिक प्रसार इसी क्षेत्र में हुआ क्‍योंकि कभी आगरा यूनीवर्सिटी के नाम से आगरा मंडल ही नहीं संपूर्ण उत्‍तर प्रदेश के शिक्षा जगत को गौरवान्‍वित करने वाली यही यूनिवर्सिटी अब पूरी तरह शिक्षा माफिया के जाल में फंस चुकी थी।
आगरा यूनिवर्सिटी से डॉ. भीमराव अंबेडकर विश्‍वविद्यालय में तब्‍दील होने के बाद से तो जैसे इस यूनिवर्सिटी को ग्रहण ही लग गया और देखते-देखते यह फर्जीवाड़े तथा घोटालों का पर्याय बन गई।
निश्‍चित रूप से एक गौरवशाली शिक्षण संस्‍था को इस हाल तक पहुंचाने में शासन व प्रशासन का भी भरपूर हाथ रहा क्‍योंकि वह उसकी ओर से पूरी तरह आंखें बंद किए रहे।
शासन-प्रशासन की इस अनदेखी का परिणाम यह रहा कि डॉ. भीमराव अंबेडकर विश्‍वविद्यालय भ्रष्‍टाचार का पर्याय बन गया और इसका लाभ उठाकर इससे संबद्ध कॉलेज संचालकों ने फर्जीवाड़ा करके करोड़ों रुपए एकत्र कर लिए।
अकेले बीएड के जरिए ही जिन कॉलेज संचालकों ने करोड़ों की संपत्‍ति अर्जित की है, उनमें मथुरा के कॉलेज संचालकों का नाम टॉप पर है।
ये वो कॉलेज संचालक हैं जिनकी कल तक हैसियत स्‍कूटर पर चलने लायक नहीं थी किंतु डॉ. भीमराव अंबेडकर विश्‍वविद्यालय के अधिकारी व कर्मचारियों की कृपा से आज यह कई-कई लग्‍ज़री गाड़ियां तो निजी तौर पर इस्‍तेमाल करते हैं जबकि कॉलेज के नाम पर दर्जनों गाड़ियां खड़ी कर रखी हैं।
एसआईटी जांच से जुड़े सूत्रों के अनुसार जिन 83 कॉलेजों की इस फर्जीवाड़े में संलिप्‍तता पाई गई है, उनमें मथुरा के कई कॉलेज शामिल हैं।
सीधे-सीधे कहें तो इस घोटाले में मथुरा का करीब-करीब हर वो कॉलेज संचालक संलिप्‍त पाया गया है जो डॉ. भीमराव अंबेडकर विश्‍वविद्यालय से बीएड करा रहा था। एसआईटी के अधिकारियों की मानें तो मथुरा का शायद ही कोई कॉलेज संचालक इस घोटाले में संलिप्‍त न रहा हो।
इन कॉलेजों की संख्‍या 20 से ऊपर बताई जा रही है जो चौमुहां, सैदपुर (बल्‍देव), छाता, कोसी खुर्द (भरतपुर रोड मथुरा), सदर बाजार, फरह, पाली डूंगरा, राया, गोवर्धन चौराहा मथुरा, सेमरी (छाता), शिवपुरी (बाजना), चंदनवन (हाईवे थाना क्षेत्र), महुअन, महावन, मुंडेसी और वृंदावन आदि क्षेत्रों में स्‍थित हैं।
चूंकि इस अरबों रुपए के घोटाले तथा फर्जीवाड़े की जांच उच्‍च न्‍यायालय के आदेश पर एसआईटी द्वारा की गई थी इसलिए उम्‍मीद की जा रही है कि शायद ही कोई घोटालेबाज अब इसकी गिरफ्त में आने से बच पायेगा।
ऐसे में यदि अन्‍य जनपदों सहित बड़ी तादाद में मथुरा के भी तथाकथित सभ्रांत कहलाने वाले कॉलेज संचालक हथकड़ियां पहने नजर आएं तो कोई आश्‍चर्य नहीं होगा क्‍योंकि एसआईटी ने उनकी पाई-पाई का हिसाब निकाल लिया है और यह भी मालूम कर लिया है कि चंद वर्षों के अंदर ये फर्श से अर्श तक आखिर पहुंचे कैसे?
-सुरेन्‍द्र चतुर्वेदी

शनिवार, 14 नवंबर 2015

पेट्रोल तथा डीजल की तस्‍करी को बढ़ावा दे रही है अखिलेश सरकार

-वैट की असंगत नीति के चलते यूपी में पेट्रोल व डीजल दूसरे राज्‍यों से काफी महंगा
-बॉर्डर के पेट्रोल पंप संचालक भी तस्‍करी का पेट्रोल-डीजल बेचने पर मजबूर
-उत्तर प्रदेश पेट्रोलियम ट्रेडर्स एसोसिएशन ने मुख्य सचिव के सामने उठाया मुद्दा
-जुलाई में भी पेट्रोलियम ट्रेडर्स एसोसिएशन ने की थी हड़ताल
क्‍या आपको मालूम है कि अखिलेश यादव के नेतृत्‍व वाली समाजवादी पार्टी की सरकार ने पेट्रोल और डीजल पर वैल्‍यू एडड टैक्‍स यानि वैट की जिस पॉलिसी को अपना रखा है उसके कारण उत्‍तर प्रदेश में पेट्रोल तथा डीजल की न सिर्फ कीमतें देश के अधिकांश राज्‍यों से काफी अधिक हैं बल्‍कि इसी कारण यहां पड़ोसी राज्‍यों से इन पदार्थों की बड़े पैमाने पर तस्‍करी की जा रही है।
पड़ोसी राज्‍यों हरियाणा, राजस्‍थान और दिल्‍ली में उत्‍तर प्रदेश की अपेक्षा पेट्रोल व डीजल की कीमतें काफी कम होने के कारण इन पदार्थों की सर्वाधिक तस्‍करी इन राज्‍यों से की जा रही है और उसका खामियाजा भुगत रहे हैं इन राज्‍यों की सीमा पर स्‍थापित पेट्रोल व डीजल पंपों के अधिकृत विक्रेता।
गत माह जुलाई में उत्‍तर प्रदेश के करीब 6300 पेट्रोल पंप संचालकों ने इस मुद्दे को लेकर हड़ताल भी की थी किंतु उसका कोई प्रभाव सरकार पर नहीं पड़ा लिहाजा उत्तर प्रदेश पेट्रोलियम ट्रेडर्स एसोसिएशन ने मुख्य सचिव आलोक रंजन के साथ हुई बैठक के दौरान फिर इस मुद्दे को उठाया है।
दरअसल, 22 जुलाई को उत्‍तर प्रदेश सरकार ने अपने एक निर्णय द्वारा पेट्रोल और डीजल पर प्रति लीटर वैट निर्धारित कर दिया जो इन पदार्थों की बेस कीमत का क्रमश: 26.8 प्रतिशत तथा 17. 5 प्रतिशत बैठता है।
इसके अलावा मथुरा रिफाइनरी को कच्‍चे तेल की सप्‍लाई लेने पर 5 प्रतिशत प्रवेश अलग से देना होता है। इस तरह उत्‍तर प्रदेश में पेट्रोल व डीजल उपभोक्‍ताओं को प्रति लीटर क्रमश: करीब 18 प्रतिशत तथा 11 प्रतिशत टैक्‍स देना पड़ता है जो दूसरे राज्‍यों से काफी अधिक है और जिस कारण यहां पेट्रोल व डीजल के दाम पड़ोसी राज्‍यों से भी बहुत ज्‍यादा हैं।
उत्‍तर प्रदेश सरकार की इस नीति का तेल माफिया जमकर लाभ उठा रहे हैं और वो पड़ोसी राज्‍यों से उत्‍तर प्रदेश में पेट्रोल व डीजल की तस्‍करी करके करोड़ों रुपए कमाने में लगे हैं जबकि उत्‍तर प्रदेश के बॉर्डर वाले पेट्रोल पंप संचालक या तो हाथ पर हाथ रखकर बैठने पर मजबूर हैं या फिर तस्‍करी का तेल बेचने को बाध्‍य हैं।
यूपी के बॉर्डर पर पेट्रोल पंप संचालित करने वाले लोगों का कहना है कि वैट की असंगत नीति के कारण पड़ोसी राज्‍यों की तुलना में यूपी के अंदर पेट्रोल और डीजल की कीमतें इतनी अधिक ज्‍यादा हो जाती हैं कि वह हमें प्रति लीटर मिलने वाले कुल लाभ से भी पांच-पांच, छ:- छ: गुना अधिक बैठती हैं। इन हालातों में तेल माफिया का सक्रिय होना तथा पेट्रोल पंप संचालकों का उन्‍हें सहयोग करना स्‍वाभाविक है।
देश की प्रमुख तेल कम्पनियों ने भी अपनी रिपोर्ट में इस बात का खुलासा किया है कि उत्‍तर प्रदेश के सीमावर्ती राज्‍यों विशेषकर राजस्‍थान, हरियाणा तथा दिल्‍ली से तेल माफियाओं ने उत्‍तर प्रदेश में खुलेआम पेट्रोल की बिक्री शुरू कर दी है जिससे यूपी के बॉर्डर वाले पंपों पर तेल की बिक्री न के बराबर हो रही है.
गौरतलब है कि उत्‍तर प्रदेश में आने वाला कच्चा तेल सबसे पहले मथुरा रिफाइनरी को मिलता है और इसके बाद यहां से पेट्रोल व डीजल तैयार होकर प्रदेशभर को सप्‍लाई किया जाता है.
पेट्रोल पंपों पर तेल की बिक्री के दौरान उपभोक्‍ताओं से वह पांच फीसदी प्रवेश कर भी वसूला जाता है जिसे मथुरा रिफाइनरी कच्‍चे तेल पर चुकाती है. इस प्रकार उत्‍तर प्रदेश के उपभोक्‍ताओं को पेट्रोल व डीजल की सर्वाधिक कीमत चुकानी पड़ती है.
आश्‍चर्य की बात यह है कि महंगाई नियंत्रित न हो पाने के लिए आये दिन केंद्र सरकार को कठघरे में खड़ा करने वाली यूपी की अखिलेश सरकार इस मामले में न तो उत्तर प्रदेश पेट्रोलियम ट्रेडर्स एसोसिएशन की बात सुन रही है और न इस बात पर ध्‍यान दे रही है कि वैट को लेकर उसकी असंगत नीति के चलते पेट्रोलियम पदार्थों की तस्‍करी बढ़ रही है तथा बॉर्डर पर स्‍थित पेट्रोल पंप संचालकों को उसका बड़ा खामियाजा भुगतना पड़ रहा है।
यही नहीं, वैट की इस असंगत नीति के चलते दूसरे राज्‍यों से हो रही पेट्रोल व डीजल की तस्‍करी के कारण प्रदेश सरकार के खजाने को भी चूना लग रहा है लेकिन लगता है कि अखिलेश सरकार जायज वैट के जरिए अच्‍छा राजस्‍व हासिल करने की जगह नाजायज वैट लगाकर तेल माफियाओं को लाभान्‍वित करना ज्‍यादा मुनासिब समझ रही है।
कहीं ऐसा न हो कि अखिलेश सरकार की तेल माफियाओं को सीधा लाभ पहुंचाने तथा तेल की तस्‍करी को बढ़ावा देने वाली यह नीति 2017 के विधानसभा चुनावों में उसी पर भारी पड़ जाए क्‍योंकि तेल की बढ़ी हुई कीमतों का सीधा संबंध महंगाई से भी है और महंगाई से आम जनता किस कदर आजिज आ चुकी है, इससे अखिलेश सरकार भली-भांति परिचित है।
-सुरेन्‍द्र चतुर्वेदी

शुक्रवार, 6 नवंबर 2015

शर्त की आड़ में विकास प्राधिकरण से करोड़ों के टेंडर का बंदरबांट

सोलह कला अवतार, महाभारत नायक यशोदानंदन श्रीकृष्‍ण की पावन जन्‍मस्‍थली के विकास प्राधिकरण ने इस विश्‍व प्रसिद्ध धार्मिक शहर का कितना विकास कराया है, इसे लेकर एक-दो नहीं अनेक प्रश्‍न खड़े हो सकते हैं किंतु विकास प्राधिकरण में समय-समय पर तैनात रहे अधिकारियों का अपना कितना विकास हुआ है, इसे लेकर सिर्फ एक ही प्रश्‍न खड़ा होता है और वह है कि क्‍या कोई अधिकारी ऐसा रहा है जिसका यहां अपना विकास न हुआ हो ?
विकास प्राधिकरण के अधिकारियों से जुड़ा उनके निजी विकास का ताजा मामला 12 सितंबर 2015 को अखबारों में जारी उस अल्‍पकालीन निविदा का है जिसके तहत करीब 14 करोड़ के कार्यों का बंटवारा दो दिन पूर्व ऑफिस आवर्स बीत जाने के बाद रात के अंधेरे में कर दिया गया।
शाम ढलने के बाद टेंडर खोले जाने की भनक मिलने पर पहुंचे मीडियाकर्मियों ने जब ऐसा किए जाने की वजह जाननी चाही तो हमेशा की तरह कोई अधिकारी मुंह खोलने को तैयार नहीं हुआ और सिर्फ इतना कहकर मीडिया कर्मियों को टरका दिया गया कि दिन के वक्‍त दूसरे कार्यों में व्‍यस्‍तता के चलते टेंडर नहीं खोले जा सके।
करोड़ों रुपए के इन विकास कार्यों हेतु 12 सितंबर को जारी निविदा तथा 4 नवंबर को किए गए बंटवारे का सबसे महत्‍वपूर्ण पहलू यह है कि यह सारे कार्य मात्र चार ठेकेदारों के बीच बांट दिए गए और उन्‍हें ही काम दिए जाने का पुख्‍ता इंतजाम निविदा निकालने वाले दिन यानि 12 सितंबर 2015 को ही एक शर्त के साथ कर दिया गया।
इस शर्त के मुताबिक निविदा में वर्णित क्रम संख्‍या 1 से लेकर 12 तक के कार्य उसी पंजीकृत ठेकेदार को दिए जायेंगे जिसके पास अपना हॉटमिक्‍स प्‍लांट होगा।
इस शर्त को जोड़ने के पीछे की वजह का पता करने तथा ऐसा कोई नियम, कानून अथवा शासनादेश जारी होने के संबंध में जानकारी करने के लिए विकास प्राधिकरण के सचिव एस बी सिंह तथा चीफ इंजीनियर आर के शर्मा सहित कई अधिकारियों से संपर्क साधने का कई-कई बार प्रयास किया गया किंतु किसी ने बात करने की जहमत नहीं उठाई।
विकास प्राधिकरण में तैनात विकास पुरुषों से कोई जवाब न मिल पाने पर ‘लीजेंड न्‍यूज़’ ने जब अपने स्‍तर से छानबीन की तो बहुत ही चौंकाने वाली बातें सामने आईं।
प्रदेश के दूसरे विकास प्राधिकरणों और अन्‍य सरकारी विभागों से पता लगा कि किसी कार्य को कराने के लिए हॉटमिक्‍स प्‍लांट अथवा दूसरे किन्‍हीं उपकरणों का ठेकेदार के पास होना या न होना जरूरी नहीं है, जरूरी है तो केवल मानकों के अनुरूप कार्य की गुणवत्‍ता।
रहा सवाल निविदा के साथ ऐसी कोई शर्त जोड़ देने का तो उसके पीछे एकमात्र कारण अधिकारियों की बदनीयती ही होती है ताकि वो उसकी आड़ में अपने पसंदीदा ठेकेदारों को काम आवंटित कर सकें क्‍योंकि उन्‍हें पहले से मालूम होता है कि किस ठेकेदार के पास उनकी शर्त को पूरी करने का इंतजाम है और कौन उस शर्त को पूरी कर पाने में असमर्थ साबित होगा।
सरकारी विभागों में ही तैनात दूसरे बड़े अधिकारियों की मानें तो विकास प्राधिकरण सहित दूसरे सभी ऐसे विभागों में ठेकेदारी के लिए पंजीयन और ग्रेडिंग तभी होती है जब संबंधित ठेकेदार उसके लिए जरूरी सभी शर्तों को पूरा करता हो, फिर इस तरह अलग से कोई शर्त थोपने का मकसद सिर्फ और सिर्फ शर्त की आड़ लेकर निजी स्‍वार्थ पूरे करना ही होता है।
कुछ अधिकारियों ने बताया कि इस तरह की शर्तें अब विकास प्राधिकरण ही नहीं, पीडब्‍ल्‍यूडी आदि दूसरे सरकारी विभाग भी थोपने लगे हैं जबकि इसका कोई औचित्‍य नहीं है क्‍योंकि जिसे काम देना होता है उसके लिए अधिकारी इस आशय की छूट भी दे देते हैं कि वह किसी दूसरे ठेकेदार से उस उपकरण संबंधी प्रपत्र अपने नाम लिखवाकर दे सकता है जबकि इस छूट का उल्‍लेख निविदा में नहीं किया जाता।
ईमानदार अधिकारियों का तो यहां तक कहना है कि कल को यदि विकास प्राधिकरण ऐसी भी शर्तें थोपने लगे कि उसके यहां से काम उन्‍हीं ठेकेदारों को आवंटित किया जायेगा जो निर्माण में जरूरी सभी सामग्री का उत्‍पाद खुद करते हों, तो क्‍या यह उचित होगा। ऐसे में क्‍या इस विभाग का काम करने के लिए कोई ठेकेदार उपलब्‍ध होगा।
सच तो यह है कि ऐसी शर्तें थोपकर विकास प्राधिकरण अथवा दूसरे सरकारी विभागों के अधिकारी पूर्व नियोजित योजना के तहत अपने स्‍वार्थ की सिद्धि करते हैं ताकि उनके अपने चहेते ठेकेदार ही टेंडर डाल सकें और उन्‍हीं के बीच सारा काम बांट दिया जाए।
जाहिर है कि ऐसा करने से पहले ”इस हाथ दे, उस हाथ ले” की प्रक्रिया भी पूरी कर ली जाती है और टेंडर डालने से लेकर टेंडर निकालने तक का कार्य मात्र औपचारिकता निभा कर पूरा कर लिया जाता है।
अब यह औपचारिकता ऑफिस आवर्स में दिन के वक्‍त पूरी की जाए अथवा रात के अंधेरे में, इससे क्‍या फर्क पड़ता है।
रहा प्रश्‍न ऐसी प्रक्रियाओं पर चंद मीडियाकर्मियों के सवाल उठाने का तो जहां ऊपर से नीचे तक पूरा विभाग आकंठ भ्रष्‍टाचार में लिप्‍त हो, वहां चंद मीडियाकर्मियों के सवाल उठाने से होता क्‍या है।
जिन्‍हें जवाब देना जरूरी है और जिनके जवाब सुनना भी जरूरी है, वह सब न केवल प्रक्रिया से संतुष्‍ट हैं बल्‍कि अधिकारियों के विकास से भी संतुष्‍ट हैं।
-लीजेंड न्‍यूज़ विशेष

सोमवार, 2 नवंबर 2015

क्‍या अनऑथराइज्‍ड है जेएसआर ग्रुप की अशोका सिटी ?

विश्‍व प्रसिद्ध धार्मिक शहर मथुरा में प्राइम लोकेशन पर बनाया गया जेएसआर ग्रुप का होम प्रोजेक्‍ट ”अशोका सिटी” क्‍या अनऑथराइज्‍ड और गैरकानूनी है ?यह सवाल आज फिर इसलिए खड़ा हुआ क्‍योंकि ”जेएसआर ग्रुप” द्वारा आज सभी प्रमुख समाचार पत्रों में अपने आवासीय प्रोजेक्‍ट ”अशोका सिटी” का जो विज्ञापन दिया गया है, उसमें कहीं इस बात का उल्‍लेख नहीं है कि यह प्रोजेक्‍ट डेवलपमेंट अथॉर्टी से अप्रूव्‍ड है।
चूंकि पूर्व में भी जेएसआर ग्रुप के इस प्रोजेक्‍ट को लेकर भ्रांतियां उत्‍पन्‍न होती रही हैं और उन भ्रान्‍तियों का किसी स्‍तर पर कहीं से निराकरण नहीं किया गया लिहाजा आज उनका विज्ञापन भी नए सिरे से लोगों के बीच भ्रांति उत्‍पन्‍न कर रहा है।
दीपावली जैसे बड़े त्‍यौहार से ठीक 10 दिन पहले दिये गए इस विज्ञापन में बुकिंग एमाउंट 2 लाख 70 हजार रुपए लिखा है, जिससे जेएसआर ग्रुप का मकसद तो साफ हो जाता है किंतु यह साफ नहीं है कि वह किस आधार पर अपने इस आवासीय प्रोजक्‍ट के लिए लोन सुविधा उपलब्‍ध करा रहे हैं।
बताया जाता है कि देश की राजधानी दिल्‍ली को ताज नगरी आगरा से जोड़ने वाले राष्‍ट्रीय राजमार्ग नंबर दो पर मथुरा में गोवर्धन चौराहे के अति निकट बनाया गया बहुमंजिला आवासीय परिसर ”अशोका सिटी” तभी से विवादित रहा है जब इसकी बुनियाद रखी गई थी और इसीलिए न केवल समय-समय पर इसके मालिकाना हक बदलते रहे बल्‍कि मालिकों के खिलाफ अपहरण जैसे संगीन मामले भी दर्ज हुए।
”अशोका सिटी” के निर्माण पर शक के बादल इसलिए और गहरा जाते हैं कि इसकी असलियत के बारे में कोई कुछ बताने को तैयार नहीं होता। यहां तक कि डेवलेपमेंट अथॉर्टी ”मथुरा-वृंदावन विकास प्राधिकरण” भी चुप्‍पी साधे हुए है।
हालांकि विभागीय सूत्र बताते हैं कि इसके अनधिकृत निर्माण और उसे अधिकृत बनाने के प्रयास में अपनाए गए गैरकानूनी हथकंडों से कमिश्‍नर आगरा मंडल तथा जिलाधिकारी मथुरा भी भली-भांति परिचित हैं और उन्‍होंने अपने-अपने स्‍तर से काफी सख्‍ती बरत रखी है किंतु फिलहाल ऐसी कोई कार्यवाही अमल में नहीं लाई जा सकी जिससे जनसामान्‍य के बीच स्‍थिति स्‍पष्‍ट हो सके।
इन हालातों में विज्ञापन को देखकर बहुत से लोगों का उलझ जाना स्‍वाभाविक है। तमाम लोग तो इस उम्‍मीद पर बुकिंग एमाउंट भी जमा करा बैठेंगे कि बाकी रकम का इंतजाम उन बैंकों और फाइनेंस एजेंसियों से हो ही जायेगा जिनका हवाला जेएसआर ग्रुप ने अपने विज्ञापन में दिया है।
अब यहां एक और महत्‍वपूर्ण सवाल यह खड़ा होता है कि क्‍या किसी अनधिकृत और गैरकानूनी होम प्रोजेक्‍ट पर कोई बैंक अथवा फाइनेंस कंपनी ऋण उपलब्‍ध करा सकती है?
इस संबंध में जब ”लीजेंड न्‍यूज़” ने जानकारी की तो कई चौंकाने वाली बातें सामने आईं।
इन बातों में सबसे अहम बात तो यह है कि हर बैंक और हर फाइनेंस कंपनी ने होम लोन के मामले में अपने-अपने निजी नियम बना रखे हैं। स्‍टेट बैंक ऑफ इंडिया को छोड़कर कई बैंकें अनधिकृत तथा गैरकानूनी होम प्रोजेक्‍ट पर भी लोन केवल यह देखकर उपलब्‍ध करा देती हैं कि ऋण लेने वाले से वसूली हो जाने का उन्‍हें पूरा भरोसा है। फिर चाहे ऋण लेने वाला अनधिकृत प्रोजेक्‍ट के कारण बुरी तरह फंस जाए और उसका एक अदद अपने घर का सपना सिर्फ सपना बनकर रह जाए।
बताया जाता है कि अनधिकृत होम प्रोजेक्‍ट पर ऋण देने के मामले में सबसे उदार नियम निजी बैंकों तथा निजी फाइनेंस कंपनियों ने बना रखे हैं। संभवत: इसीलिए ”जेअएआर ग्रुप” की ”अशोका सिटी” पर ऋण उपल्‍ब्‍ध कराने वालों में एक भी राष्‍ट्रीय बैंक का नाम नहीं है।
जो नाम दिए गए हैं उनमें आईसीआईसीआई तथा एचडीएफसी जैसी निजी बैंकें तथा इंडिया बुल्‍स, डीएचएफएल तथा टाटा केपीटल जैसी फाइनेंस कंपनियां शामिल हैं।
”जेएसआर ग्रुप” की ”अशोका सिटी” के विज्ञापन में उसके अधिकृत या अनधिकृत होने का कोई उल्‍लेख न होने के संदर्भ पर जब विज्ञापन के अंदर दिए गए कांटेक्‍ट नंबर से संपर्क साधा गया तो किसी पूजा नाम की लड़की ने फोन रिसीव किया किंतु वह कोई भी संतोषजनक जवाब देने में असमर्थ रही।
दरअसल, अशोका सिटी तो एक उदाहरण है अन्‍यथा कृष्‍ण की इस पावन भूमि में ऐसे होम प्रोजेक्‍ट की संख्‍या अच्‍छी-खासी है जो आकर्षक विज्ञापनों तथा आसानी से ऋण उपलब्‍ध कराने की आड़ में आमजन के सपनों से खिलवाड़ करके अपनी जेबें भर रहे हैं और बैंकें ही नहीं डेवलेपमेंट अथॉर्टी भी चुप्‍पी साधकर इसमें उनका पूरा सहयोग कर रही हैं। चूंकि बैंकों का अपना स्‍वार्थ है और डेवलेपमेंट अथॉर्टी में ऊपर से लेकर नीचे तक स्‍वार्थ ही स्‍वार्थ है इसलिए कोई कुछ बोलने या सुनने को तैयार नहीं होता।
रही बात उस जन सामान्‍य की जो बिल्‍डर्स और बैंकों की चाल में फंसकर एक ओर जहां अपनी जिंदगीभर की जमा पूंजी लुटा बैठता है और दूसरी ओर अपने एक अदद घर के सपने को बिखरते देखता है तो उससे किसी को कोई वास्‍ता नहीं।
फिर चाहे वह ताजिंदगी उस ऋण की किश्‍तें अदा करता रहे जिसे लेने के बाद उसने अपने घर का सपना देखा था।
-लीजेंड न्‍यूज़ विशेष

मंगलवार, 27 अक्तूबर 2015

कल्‍पतरू ग्रुप ने रियल एस्‍टेट में भी किया सैकड़ों करोड़ का घोटाला, कई बैंक फंसे

-आम आदमी के साथ-साथ कई बैंक भी फंसे जयकृष्‍ण राणा के जाल में
-1600 एकड़ में फैला है राणा के साम्राज्‍य का जाल
कल्‍पतरू ग्रुप की रियल एस्‍टेट कंपनी ‘कल्‍पतरू बिल्‍डटेक कॉर्पोरेशन लिमिटेड’ का भी सैकड़ों करोड़ का ऐसा घोटाला सामने आया है जिसमें न सिर्फ कई बैंक फंस गए हैं बल्‍कि तमाम वो लोग भी शिकार हुए हैं जिन्‍होंने कभी अपने लिए एक अदद घर का सपना देखा था।
विश्‍वस्‍त सूत्रों से प्राप्‍त जानकारी के अनुसार मथुरा के कस्‍बा फरह में दिल्‍ली से मथुरा और आगरा को जोड़ने वाले राष्‍ट्रीय राजमार्ग नंबर-2 पर ‘कल्‍पतरू बिल्‍डटेक कॉर्पोरेशन लिमिटेड’ (KBCL) का करीब 1600 एकड़ जमीन पर साम्राज्‍य फैला हुआ है।
कल्‍पतरू ग्रुप के मुखिया जयकृष्‍ण राणा ने यहीं अपने अखबार कल्‍पतरू एक्‍सप्रेस से लेकर मॉटेल्‍स लिमिटेड, वृंदावन सीक्‍यूरिटीज लिमिटेड, कल्‍पतरू इंश्‍योरेंस कार्पोरेशन लिमिटेड, कल्‍पतरू डेरी प्रोडक्‍ट प्राइवेट लिमिटेड, कल्‍पतरू मेगामार्ट लिमिटेड, कल्‍पतरू इन्‍फ्राटेक प्राइवेट लिमिटेड, कल्‍पतरू फूड प्रोडक्‍ट प्राइवेट लिमिटेड, कल्‍पतरू लैदर प्रोडक्‍ट प्राइवेट लिमिटेड तथा कल्‍पतरू एग्री इंडस्‍ट्रीज लिमिटेड का जाल फैला रखा है।
निजी सुरक्षा गार्डों तथा गुर्गों के घेरे में इसी साम्राज्‍य के अंदर कभी राजा-महाराजाओं की तरह बैठने वाला जयकृष्‍ण राणा अब जब कभी यहां आता भी है तो दबेपांव आता है ताकि ज्‍यादा लोगों को उसके आने की भनक न लग जाए।
बताया जाता है कि अपनी करीब एक दर्जन कंपनियों के इस जाल में जयकृष्‍ण राणा ने विभिन्‍न स्‍तर के लोगों को फंसाकर उन्‍हें सैकड़ों करोड़ रुपए का चूना लगाया है और अब वह कैसे भी अपने मूलधन को इससे निकालने की कोशिश में दिन-रात एक कर रहे हैं। उन्‍हें जहां इसकी मौजूदगी का पता लगता है, वो वहीं पहुंच जाते हैं।
जयकृष्‍ण राणा की रियल एस्‍टेट कंपनी ‘कल्‍पतरू बिल्‍डटेक कॉर्पोरेशन लिमिटेड’ (केबीसीएल) द्वारा फरह में जो प्रोजेक्‍ट खड़ा किया जा रहा है, उसमें भारी घोटाले का पता लगा है।
सूत्रों से प्राप्‍त जानकारी के अनुसार यहां जयकृष्‍ण राणा और उसके गुर्गों ने बाकायदा एक साजिश के तहत अपने एजेंट्स के माध्‍यम से एक-एक मकान तथा एक-एक प्‍लॉट का सौदा कई-कई लोगों से करके उनसे करोड़ों रुपए हड़प लिए हैं। इनमें से कुछ लोग तो ऐसे हैं जो फ्लैट या प्‍लॉट का 90 प्रतिशत पैसा केबीसीएल के नाम कर चुके हैं और जब रजिस्‍ट्री कराने को हैं तो पता लगा है कि उस फ्लैट या प्‍लॉट के तो कई-कई दावेदार हैं और सब के सब किसी तरह अपने नाम रजिस्‍ट्री कराने के फेर में हैं।
ऐसे लोग जयकृष्‍ण राणा से तो सीधे मुलाकात कर नहीं पाते लिहाजा उन एजेंट्स के पास चक्‍कर लगाने को मजबूर हैं जिन्‍होंने अपनी रोजी-रोटी की खातिर राणा की रियल एस्‍टेट कंपनी के लिए काम किया था।
हालांकि आज ऐसे अधिकांश लोग राणा से अलग हो चुके हैं क्‍योंकि उन्‍हें भी पैसा मिलना तो दूर, सिरदर्द मिल रहा है। जिन फ्लैट्स या प्‍लॉट्स का पैसा उन्‍होंने अपने कमीशन तथा वेतन की खातिर लिया, उसे तो जयकृष्‍ण राणा की रियल एस्‍टेट कंपनी हड़प गई लेकिन सिरदर्द बेचारे एजेंट्स को दे दिया।
यही नहीं, यहां तक पता लगा है कि जिस प्रकार राणा और उसके कॉकस ने एक-एक फ्लैट तथा प्‍लॉट कई-कई लोगों को बेच खाए, उसी प्रकार अपनी जमीन पर कई-कई संस्‍थानों से फायनेंस भी करा रखा है और उसके शिकार बैंकों सहित निजी फायनेंसर भी हुए हैं।
अब चूंकि राणा और उसके कल्‍पतरू ग्रुप का सारा खेल सामने आ चुका है लिहाजा आम और खास आदमी तथा बैंक व फायनेंस कंपनियां किसी भी प्रकार अपना पैसा वसूल करने की कोशिश में हैं।
बताया जाता है कि इन दिनों राणा के विभिन्‍न ठिकानों पर इन्‍हीं सब कारणों से अक्‍सर झगड़े होते देखे जा सकते हैं।
जयकृष्‍ण राणा से जुड़े सूत्रों की मानें तो राणा और कल्‍पतरू ग्रुप का यह हाल इसलिए हुआ क्‍योंकि उसने अपनी चिटफंड कंपनी से लेकर विभिन्‍न कंपनियों के माध्‍यम से एकत्र किए गए पैसे को अपनी निजी संपत्‍ति की तरह इस्‍तेमाल किया और राजा-महाराजाओं की तरह लुटाया।
बताया जाता है कि राणा ने अपनी कंपनियों में जहां ऐसे-ऐसे लोगों को डायरेक्‍टर बना रखा है जो कहीं चपरासी बनने की योग्‍यता नहीं रखते वहीं ऐसे अनेक लोगों को लग्‍जरी गाड़ियां उपलब्‍ध करा रखी हैं, जो राणा की चरण वंदना करने में माहिर थे। उनकी सबसे बड़ी योग्‍यता सिर्फ और सिर्फ राणा को अपनी चापलूसी के बल पर प्रसन्‍न रखना थी।
राणा के कॉकस में शामिल लोगों का ही कहना है कि एक खास कंपनी की विशेष लग्‍जरी गाड़ी इतनी बड़ी तादाद में एकसाथ शायद ही कहीं अन्‍यत्र देखने को मिल सकें, जितनी राणा और उसके चापलूसों के पास देखी जा सकती हैं।
बेहिसाब फिजूलखर्ची और हर स्‍तर पर की गई धोखाधड़ी के चलते राणा भी समझ चुका है कि अब उसके कल्‍पतरू ग्रुप को डूबने से कोई बचा नहीं पायेगा और इसलिए वह खुद को सुरक्षित करने की कोशिशों में लगा है। उसे उस मौके की तलाश है जिसका लाभ उठाकर वह किसी तरह यहां से निकल सके और सारे झंझट उन लोगों के लिए छोड़ जाए जिन्‍होंने उसके जहाज के डूबने का अंदेशा होते ही, उससे किनारा कर लिया।
अब देखना केवल यह है कि राणा अपने मकसद में सफल होकर सुरक्षित निकल जाता है या उसे भी अंतत: सहाराश्री सुब्रत राय सहारा की तरह किसी सरकारी सुरक्षा में पनाह मिलती है।
-सुरेन्‍द्र चतुर्वेदी

‘दलालों’ के कॉकस से घिरी हैं मथुरा की सांसद हेमामालिनी

-2017 में प्रस्‍तावित उत्‍तर प्रदेश विधानसभा के चुनावों में खुद एक समस्‍या न बन जाएं मथुरा की विशिष्‍ट सांसद
-आमजन तो क्‍या, पार्टीजन तक सांसद से नहीं कर सकते मुलाकात
-मथुरा की जनता के लिए आज भी स्‍वप्‍न सुंदरी ही हैं सांसद हेमामालिनी
-डेढ़ साल के कार्यकाल में नहीं हुआ कोई उल्‍लेखनीय काम
-आयातित सांसद से निराश होने लगी जनता और पार्टी कार्यकर्ता
देश की मशहूर अभिनेत्री और योगीराज भगवान श्रीकृष्‍ण की विश्‍व प्रसिद्ध जन्‍मस्‍थली मथुरा से सांसद हेमामालिनी को मथुरा में एक ऐसे कॉकस ने घेर रखा है, जिसे जनसामान्‍य की भाषा में ‘दलाल’ कहा जाता है।
2014 में जब लोकसभा चुनाव हुए तो भाजपा के सामने कृष्‍ण की नगरी में एक अदद चेहरा ऐसा सामने नहीं था जिस पर वह दांव लगा पाती, इसलिए मजबूरन उसे अभिनेत्री हेमामालिनी को आयातित करना पड़ा।
मथुरा में भाजपा के लिए सूखे की स्‍थिति 2009 के लोकसभा चुनावों में भी थी लिहाजा तब उसने राष्‍ट्रीय लोकदल के युवराज जयंत चौधरी को समर्थन देकर ब्रजवासियों के प्रति अपने कर्तव्‍य की इतिश्री कर ली।
जयंत चौधरी भारी मतों से चुनाव तो जीत गए लेकिन अपने संसदीय क्षेत्र को उन्‍होंने पिकनिक स्‍पॉट की तरह इस्‍तेमाल करना शुरू कर दिया। किसानों के मसीहा का पौत्र, किसान व आमजन से दिन-प्रतिदिन दूर होता गया नतीजतन उसे अगले चुनाव में हेमामालिनी से बुरी तरह पराजित होना पड़ा।
चूंकि 2014 का लोकसभा चुनाव पूरी तरह नरेन्‍द्र मोदी को सामने रखकर लड़ा गया इसलिए आयातित होने के बावजूद हेमामालिनी चुनाव जीत गईं जबकि आयातित सांसदों के मामले में मथुरा वासियों का अनुभव अच्‍छा नहीं रहा है।
हरियाणा से आयातित किए गए मनीराम बागड़ी के बाद डा. सच्‍चिदांनद हरिसाक्षी महाराज और जयंत चौधरी तक जितने भी बाहरी नेताओं ने मथुरा की जनता का प्रतिनिधित्‍व किया, सभी ने निराश किया।
यही कारण है कि कुंवर नटवर सिंह से लेकर कुंवर विश्‍वेन्‍द्र सिंह और चौधरी चरण सिंह की पत्‍नी गायत्री देवी से लेकर उनकी पुत्री ज्ञानवती जैसों को मथुरा की जनता ने नकारा भी किंतु 2014 में मोदी जी पर भरोसा करके बाहरी होने के बावजूद हेमामालिनी के सिर जीत का सेहरा बंधवा दिया।
हेमा मालिनी से कृष्‍ण की पावन जन्‍मभूमि के वाशिंदों को बहुत उम्‍मीदें थीं क्‍योंकि हेमामालिनी के साथ खुद मोदी जी का भरोसा जुड़ा था। मोदी जी ने मथुरा की चुनावी सभा में इस भरोसे को कायम रखने का वादा भी किया।
आज जबकि केंद्र में मोदी जी की सरकार बने डेढ़ साल पूरा होने को आया तो पता लग रहा है कि मथुरा की सांसद हेमामालिनी एक ऐसे कॉकस से घिर चुकी हैं जो न केवल ब्रजवासियों से किए गए मोदी जी के वायदे को खोखला साबित करता है बल्‍कि ऐसे हालात पैदा कर रहा है जो उत्‍तर प्रदेश में प्रस्‍तावित 2017 के विधानसभा चुनावों में हेमामालिनी तथा भाजपा पर भारी पड़ सकते हैं।
दरअसल, मथुरा में हेमामालिनी की दुनिया सिर्फ आधा दर्जन ऐसे चापलूसों तक सीमित है जिनका न कोई जन सरोकार है और ना सामाजिक सरोकार। यहां तक कि भाजपा में अपनी पूरी उम्र खपा चुके कार्यकर्ताओं तक से हेमामालिनी इन चापलूसों के कारण अनभिज्ञ हैं।
चापलूसों का यह कॉकस हेमामालिनी को आज भी यहां सिर्फ एक सिने स्‍टार ही बनाकर रखना चाहता है और इसलिए जनता उन्‍हें जनप्रतिनिधि की भूमिका में देखने को तरस रही है।
दरअसल, इस कॉकस का निजी लाभ इसी में है कि हेमामालिनी यहां सिर्फ स्‍वप्‍न सुंदरी के अपने चिर-परिचित खिताब तक सीमित रहें और पार्टी कार्यकर्ताओं तथा आमजन से दूरी बनाकर रखें।
वह भली-भांति जानते व समझते हैं कि यदि हेमामालिनी मथुरा की सच्‍चे अर्थों में जनप्रतिनिधि बन गईं तो उनकी दलाली की दुकान बंद हो जायेगी तथा हेमामालिनी की आड़ में उनके द्वारा किए जा रहे गोरखधंधे सामने आ जायेंगे।
भारतीय जनता पार्टी का शीर्ष नेतृत्‍व फिलहाल तो बिहार विधानसभा के चुनावों में व्‍यस्‍त है किंतु इसके तुरंत बाद उत्‍तर प्रदेश पर उसका ध्‍यान पूरी तरह केंद्रित हो जायेगा क्‍योंकि उत्‍तर प्रदेश राजनीति के लिहाज से कितनी अहमियत रखता है, इसे भाजपा तथा आरएसएस अच्‍छी तरह से समझते हैं।
भाजपा के लिए यूपी में 2017 का चुनाव यूं भी विशेष अहमियत रखता है क्‍योंकि यूपी के ही वाराणसी से पीएम नरेंद्र मोदी सांसद हैं। यूपी की जनता ने मोदी जी को अपेक्षा से अधिक सीटें दीं और जिस कारण भाजपा को स्‍पष्‍ट बहुमत हासिल हुआ।
अब सवाल यह पैदा होता है कि जिस प्रकार 2014 के लोकसभा चुनावों से पहले मथुरा की राजनीतिक जमीन भाजपा के लिए बंजर हो चुकी थी और चौधरी तेजवीर की हार के बाद उसके लिए यहां किसी भी चुनाव में जीत का अकाल पड़ गया था, उस पर तो मोदी जी के चेहरे ने एकबार फिर आशा की किरण पैदा करा दी लेकिन क्‍या भाजपा उत्‍तर प्रदेश के आगामी चुनावों में उसे दोहरा पायेगी।
बेशक अभी उत्‍तर प्रदेश के चुनावों में करीब-करीब डेढ़ साल का समय बाकी है किंतु हेमामालिनी के मथुरा में डेढ़ साल के कार्यकाल को सामने रखकर यदि देखा जाए तो विधानसभा चुनावों के लिए शेष डेढ़ साल बहुत मामूली समय लगता है।
अपने डेढ़ साल के संसदीय कार्यकाल में हेमामालिनी ने ऐसा कोई कार्य नहीं किया जिसे रेखांकित किया जा सके। बात चाहे पीएम के स्‍वच्‍छ भारत अभियान की हो अथवा मथुरा को उसका गौरवशाली स्‍वरूप प्रदान करने की, हर मामले में मथुरा विकास को अब भी तरस रहा है। सड़कें पहले ही तरह बदहाल हैं। पानी-बिजली की समस्‍या यथावत है।
भाजपा के ही कुछ सूत्रों से पता लगा है कि हेमामालिनी मथुरा के लिए बहुत-कुछ करना चाहती हैं लेकिन उन्‍हें हर वक्‍त घेरकर बैठा रहने वाला दलालों का कॉकस कुछ करने नहीं देता। वह उन्‍हें अपने चश्‍मे से वह दिखाता है, जो दिखाना चाहता है। वह बताता है, जो बताना चाहता है।
यही कारण है कि मोदी जी तथा उनकी टीम के आह्वान पर सारे गिले शिकवे त्‍यागकर मथुरा के जिन भाजपाइयों ने हेमामालिनी के चुनावों में जी जान लगाकर मेहनत की और नतीजा पार्टी के पक्ष में निकालकर दिया, वही आज हेमामालिनी से मिलने तक को तैयार नहीं क्‍योंकि उनसे मिलने में पहले उनका कॉकस आड़े आता है।
जाहिर है कि जब निष्‍ठावान तथा समर्पित पार्टीजनों को ही अपनी सांसद से मिलने में कोई रुचि इसलिए न रही हो क्‍योंकि उनके मान-सम्‍मान व स्‍वाभिमान को ठेस पहुंचाई जाती है तो आम जनता अपनी सांसद से मुलाकात करने तक की हिम्‍मत कैसे कर सकती है। कैसे वह अपनी समस्‍याएं उस तक पहुंचा सकती है।
कैसे वह उस मथुरा के सर्वाधिक महंगे होटलों में शुमार एक होटल के कमरे का दरवाजा खटखटा सकती है जिसमें उनकी सांसद ठहरती हैं और जहां तक पहुंचने से पहले किसी को भी दलालों के उस कॉकस से मुखातिब होना पड़ता है जो खुद को सांसद से कहीं अधिक विशिष्‍ट समझता हो और मानता हो कि काठ की हड़िया ऐसे ही बार-बार चढ़ती रहेगी।
इसमें कोई दो राय नहीं कि सांसद के इर्द-गिर्द बैठे कॉकस के लिए न 2017 के विधानसभा चुनाव कोई मायने रखते हैं और न 2019 के लोकसभा चुनाव, उसके लिए मतदाता आज सिर्फ और सिर्फ याचक जितनी हैसियत रखता है और पार्टी के कर्मठ कार्यकर्ता निजी चाकर जितनी, लेकिन भाजपा तथा उसकी मथुरा से सांसद हेमामालिनी के लिए नि:संदेह इन सब का बहुत महत्‍व होगा क्‍योंकि राजनीति में उनका अपना वजूद इसी सब पर टिका है।
यह वो फिल्‍मी दुनिया नहीं है जहां स्‍वप्‍न सुंदरी बनकर वर्षों-वर्षों तक लोगों के दिलों पर राज किया जा सकता है, यह राजनीति है…और राजनीति का रास्‍ता उन खेत-खलिहानों की पगडंडियों से होकर जाता है जिन पर मेहनतकश किसान अपना पसीना बहाता है, शहर की उन टूटी-फूटी सड़कों से होकर संसद तक पहुंचाता है जिन पर आम आदमी इस उम्‍मीद के साथ गुजरता है कि कभी कोई मोदी अपना वादा निभायेगा, कभी कोई जनप्रतिनिधि अपना कर्तव्‍य समझेगा।
माना कि अब तक कोई जनप्रतिनिधि जन आकांक्षाओं पर खरा नहीं उतरा, और हेमामालिनी भी कोई अपवाद नहीं हैं किंतु हेमामालिनी से पहले मथुरा की जनता को कोई ऐसा सांसद भी नहीं मिला जिसे समस्‍याएं बताना तो दूर, मुलाकात कर पाना भी एक समस्‍या रहा हो।
इससे पहले कि आगामी विधानसभा चुनावों में भाजपा के लिए मथुरा की विशिष्‍ट सांसद ही खुद एक समस्‍या बन जाएं, पार्टी के शीर्ष नेतृत्‍व तथा सांसद हेमामालिनी को स्‍थिति की गंभीरता समय रहते समझनी होगी।
यदि समय रहते समस्‍या नहीं समझी गई तो तय मानिए कि मथुरा में भाजपा को अच्‍छे दिन दिखाई देने से रहे…और मथुरा विधानसभा में यथास्‍थिति रहने का सीधा मतलब है कि प्रदेश में कोई उल्‍लेखनीय उपलब्‍धि संभव नहीं हो पायेगी।
-सुरेन्‍द्र चतुर्वेदी

शुक्रवार, 23 अक्तूबर 2015

कल्‍पतरू ग्रुप का खेल खत्‍म, देश से भागने की कोशिश में है जयकृष्‍ण राणा

मथुरा बेस्‍ड कल्‍पतरू ग्रुप का खेल खत्‍म हो गया लगता है, हालांकि ग्रुप से जुड़े कुछ लोग अब भी विभिन्‍न स्‍तर पर सफाई देने की कोशिश में लगे हैं किंतु अधिकांश लोगों ने ग्रुप का खेल खत्‍म होने की बात स्‍वीकार करनी शुरू कर दी है।
ग्रुप का मथुरा से प्रकाशित एकमात्र सुबह का अखबार कल्‍पतरू एक्‍सप्रेस तो इस महीने की शुरूआत में ही बंद हो गया था किंतु अब बाकी प्रोजेक्‍ट भी बंद होने लगे हैं। अधिकांश प्रोजेक्‍ट के कर्मचारियों ने भी ऑफिस आना छोड़ दिया है और जितने लोग ऑफिस पहुंच भी रहे हैं, वह सिर्फ इस प्रयास में हैं कि किसी भी तरह अपना रुका हुआ वेतन हासिल कर लिया जाए।
ग्रुप से जुड़े सूत्रों के मुताबिक ग्रुप के विभिन्‍न प्रोजेक्‍ट्स तथा कंपनियों में अब तक कार्यरत तमाम लोग ऐसे हैं जिन्‍हें पिछले छ:-छ: महीने से वेतन नहीं मिला। ऐसे लोगों के लिए परिवार का गुजर-बसर करना तक मुश्‍किल हो चुका है। 50-50 हजार रुपया प्रतिमाह के वेतन पर कार्यरत एक-एक व्‍यक्‍ति का इस तरह ग्रुप पर तीन-तीन लाख रुपया बकाया है लेकिन न कोई उनकी ओर देखने वाला है और न सुनने वाला।
बताया जाता है कि ग्रुप का जहाज डूबने की आंशका होते ही ग्रुप के चेयरमैन जयकृष्‍ण राणा की अब तक चमचागीरी करने में लिप्‍त रहे अधिकांश लोग गायब हो चुके हैं। ये वो लोग हैं जिन्‍हें जयकृष्‍ण राणा द्वारा अपना विश्‍वस्‍त तथा वफादार मानते हुए न केवल अच्‍छा खासा वेतन दिया जाता था बल्‍कि लग्‍ज़री गाड़ियां भी उपलब्‍ध करा रखी थीं। जयकृष्‍ण राणा के मुंहलगे कई कर्मचारी तो खुद टाटा सफारी इस्‍तेमाल किया करते थे और परिवार के लिए ग्रुप से ही छोटी गाड़ियां ले रखी थीं।
सूत्रों का कहना है चमचागीरी पसंद करने वाला जयकृष्‍ण राणा अब खुद भी अपने चुरमुरा (फरह) स्‍थित उस ऑफिस में नहीं बैठ रहा जहां कभी पूरे लाव-लश्‍कर तथा निजी सुरक्षा गार्ड्स सहित रुतबे के साथ बैठा करता था।
बताया जाता है कि कल्‍पतरू ग्रुप का जहाज डूबने की जानकारी उसके मथुरा से बाहर के निवेशकों को भी हो चुकी है और वो लोग चुरमुरा पहुंचने लगे हैं।
बताया जाता है कि इन लोगों ने वहीं एक किस्‍म का धरना दे रखा है और यही कारण है कि जयकृष्‍ण राणा चुरमुरा नहीं जा रहा।
दरअसल, उसे मालूम है कि एक ओर कर्मचारी तथा दूसरी ओर निवेशक उससे पैसों की मांग करेंगे जो वह देना नहीं चाहता।
पता लगा है कि मथुरा की चंदन वन कॉलोनी में जयकृष्‍ण राणा ने कोई ऑफिस जैसा गोपनीय निवास बना रखा है, जहां वह अपने खास गुर्गों तथा सुरक्षा बलों के साथ बैठता है। यहां उसके गुर्गों तथा सुरक्षाबलों की इजाजत के बिना परिन्‍दा भी पर नहीं मार सकता। इस ऑफिसनुमा घर की जानकारी बहुत ही कम लोगों को है।
यदि कोई कर्मचारी या निवेशक किसी तरह जानकारी हासिल करके वहां तक पहुंचने का दुस्‍साहस करता है तो राणा के गुर्गे उसे फिर उस ओर मुंह न करने की चेतावनी के साथ लौटा देते हैं। साथ ही यह भी समझा देते हैं कि यदि फिर कभी इधर आने की जुर्रत की तो गंभीर परिणाम भुगतना पड़ सकता है।
राणा के अति निकटस्‍थ सूत्रों का तो यहां तक कहना है कि राणा सहाराश्री की तरह कानून की गिरफ्त में नहीं आना चाहता और इसके लिए अपने खास लोगों से सलाह-मशविरा कर रहा है।
सूत्रों का कहना है कि जयकृष्‍ण राणा इस फिराक में है कि किसी भी तरह एकबार देश से बाहर निकल लिया जाए और फिर कभी इधर मुड़कर न देखा जाए। इसके लिए राणा ने अपने पसंदीदा एक मुल्‍क में पूरा बंदोबस्‍त भी कर लिया है, बस उसे इंतजार है उस मौके का जिससे वह सबको चकमा देकर बाहर निकल सके।
एक ओर सीक्‍यूरिटीज एंड एक्‍सचेंच बोर्ड ऑफ इंडिया (सेबी) का गले तक कस चुका शिकंजा, दूसरी ओर निवेशकों का दबाव और इसके अलावा कर्मचारियों का हर दिन बढ़ता वेतन…इन सबसे निपटने की क्षमता अब कल्‍पतरू ग्रुप और उसके चेयरमैन जयकृष्‍ण राणा में बची नहीं है लिहाजा अब उसके लिए दो ही रास्‍ते शेष हैं।
पहला रास्‍ता है सारी स्‍थिति को सामने रखकर कानूनी प्रक्रिया का सामना करे और दूसरा रास्‍ता है कि सबकी आंखों में धूल झोंककर भाग खड़ा हो।
अब देखना यह है कि जयकृष्‍ण राणा को इनमें से कौन सा रास्‍ता रास आता है, हालांकि उसके गुर्गे अब भी यही कहते हैं कि अखबार भी शुरू होगा और कर्मचारियों को उनका पूरा वेतन भी दिया जायेगा परंतु हालात कुछ और बयां कर रहे हैं।
-लीजेंड न्‍यूज़

गुरुवार, 8 अक्तूबर 2015

सात भारतीय शहर पोर्न सर्च करने में सबसे अव्वल

नई दिल्ली। बैन हो या न हो लेकिन सात भारतीय शहर पोर्न सर्च करने में अव्वल हैं. भारत में पोर्न सर्च को लेकर गूगल सर्च का जो आंकड़ा सामने आया है, वह काफी चौंकाने वाला है.
गूगल ट्रेंड के ताजा आंकड़ों के मुताबिक, दुनिया भर में पोर्न सर्च करने वाले छह प्रमुख शहर भारत के हैं.
देश की राजधानी दिल्ली में सबसे ज्यादा गूगल पर पोर्न सर्च किया गया. इसके बाद पुणे, मुंबई, हावड़ा, उन्नाव, कुआलालंपुर और बेंगलुरु हैं.
आंकड़ों के मुताबिक लोगों ने कामोत्तेजक चीजें सर्च करने के साथ ही अन्य सामग्री भी सर्च की.
हालांकि समाजशास्त्री ऑनलाइन एक्टिविटी को ऑफलाइन गतिविधियों से जोड़ने से बिल्कुल इंकार करते हैं.
तो इंटरनेट पर ये सब सर्च किया जाता है…
वर्ष 2008 से अब तक ‘एनिमल पोर्न’ सर्च करने में पुणे के लोग आगे हैं. उनके बाद क्रमश: दिल्ली, मुंबई और बेंगलुरु के लोगों ने भी इसे खूब सर्च किया जबकि रेप के वीडियो सर्च करने में कोलकाता के लोग सबसे आगे हैं.
इसके बाद हावड़ा, दिल्ली, अहमदाबाद और पुणे के लोगों ने भी इस कैटेगरी में मौजूदगी दर्ज कराई.
हैरान करने वाली बात ये सामने आई है कि उत्तर प्रदेश के एक छोटा सा शहर उन्नाव में सबसे ज्यादा चाइल्ड पोर्न सर्च किया गया.
ये भी है एक वजह…
हालांकि गूगल ट्रेंड के ये आंकड़े एक खास यूजर ग्रुप के आधार पर लिए गए हैं. साथ ही दुनिया के तमाम शहरों के आंकड़े इसमें शामिल नहीं है, जिसके चलते भारत के शहर सबसे ऊपर हैं. क्रिप्टोग्राफी के एक्सपर्ट अजित हट्टी ने कहा कि ये आंकड़े सही हैं, लेकिन पूरे नहीं क्योंकि चीन, रूस और उत्तरी कोरिया जैसे देशों में गूगल का इस्तेमाल नहीं होता, अगर होता भी है तो बहुत कम. इसके अलावा अमेरिका और ब्रिटेन जैसे देशों में लोग अलग-अलग सर्च इंजन इस्तेमाल करते हैं.

शनिवार, 3 अक्तूबर 2015

कल्‍पतरू ग्रुप का अखबार कल्‍पतरू एक्‍सप्रेस बंद

-रातों-रात सड़क पर आ गए सैकड़ों पत्रकार और कर्मचारी -चार महीने से ग्रुप ने नहीं दिया पत्रकारों व कर्मचारियों को वेतन-ग्रुप पर 6 हजार करोड़ की देनदारी-सरकार और सेबी ने भी कस रखा है शिकंजा -चुरमुरा ऑफिस भी पूरी तरह कर्ज में डूबा
मथुरा से प्रकाशित सुबह का एकमात्र अखबार कल्‍पतरू एक्‍सप्रेस आखिर बंद हो गया। पिछले चार दिनों से उसका प्रकाशन बंद है।
अगस्‍त 2010 में शुरू हुआ दैनिक कल्‍पतरू एक्‍सप्रेस मथुरा के कस्‍बा फरह स्‍थित चुरमुरा से प्रकाशित होता था लेकिन मात्र पांच साल में अखबार का प्रकाशन बंद हो जाने के कारण उसमें कार्यरत सैकड़ों कर्मचारी सड़क पर आ गए क्‍योंकि अखबार के मालिकानों ने कर्मचारियों को अखबार बंद किये जाने की कोई पूर्व सूचना नहीं दी थी।
बताया जाता है कि कल्‍पतरू ग्रुप के प्रकाशन दैनिक कल्‍पतरू एक्‍सप्रेस के मालिकानों ने पिछले जून महीने से अखबार के कर्मचारियों को वेतन नहीं दिया है किंतु कर्मचारी यह उम्‍मीद पाले बैठे थे कि देर-सवेर उन्‍हें उनका वेतन दे दिया जायेगा।
अखबार से जुड़े सूत्रों की मानें तो अखबार का लखनऊ संस्‍करण अब भी प्रकाशित हो रहा है जो एक प्रमुख दैनिक अखबार की प्रेस में छपवाया जाता है जबकि मथुरा के चुरमुरा में अखबार की अपनी प्रेस है।
चुरमुरा से प्रकाशित कल्‍पतरू एक्‍सप्रेस मथुरा जनपद के अलावा महानगर आगरा, अलीगढ़, हाथरस, इटावा, औरैया तथा कासगंज आदि तक प्रसारित किया जाता था और इन सभी जिलों में कल्‍पतरू के ब्‍यूरो ऑफिस थे किंतु अखबार बंद होने के बाद उन पर भी ताला लगने की आशंका व्‍यक्‍त की जा रही है।
सबसे बड़ी समस्‍या इन सभी जिलों में मिलाकर काम करने वाले उन सैकड़ों पत्रकारों तथा अन्‍य दूसरे कर्मचारियों के सामने खड़ी हो गई है जो रातों-रात बेरोजगार हो गए और वो भी उस स्‍थिति में जब पिछले चार महीने से उन्‍हें वेतन नहीं मिला था।
बताया जाता है मुख्‍य रूप से चिटफंड कंपनी संचालित करने वाले कल्‍पतरू ग्रुप के मुखिया जयकृष्‍ण सिंह राणा को अपना जहाज डूबने का अंदेशा तभी हो गया था जब अगस्‍त 2010 में उसने कल्‍पतरू एक्‍सप्रेस के नाम से सुबह का अखबार निकालना शुरू किया था।
दरअसल, जयकृष्‍ण सिंह राणा ने अखबार की शुरूआत ही अपनी चिटफंड कंपनी तथा खुद को सरकार व सिक्‍यूरिटीज एंड एक्‍सचेंज बोर्ड ऑफ इंडिया (सेबी) की वक्रदृष्‍टि से बचाये रखने के लिए की थी और वह पांच साल तक उसमें सफल भी रहे किंतु अखबार निकालने का कोई अनुभव न होने तथा चाटुकार व अनुभवहीन लोगों की फौज के हाथ में ही अखबार की कमान सौंप देने के कारण अखबार की हालत दिन-प्रतिदिन बिगड़ती गई।
विश्‍वस्‍त सूत्रों से प्राप्‍त जानकारी के अनुसार आज की तारीख में कल्‍पतुरू ग्रुप पर कुल मिलाकर करीब 6 हजार करोड़ रुपयों की देनदारी है जिसे चुका पाना ग्रुप के लिए संभव नहीं है, हालांकि उसने काफी पैसा जमीन-जायदाद में निवेश कर रखा है किंतु अधिकांश जमीन-जायदादों पर विभिन्‍न फाइनेंस कंपनियों एवं बैंकों का कर्ज है।
मथुरा के फरह में चुरमुरा स्‍थित जिस भूखंड तथा इमारत से अखबार का प्रकाशन होता था, वह समूची जायदाद भी कर्ज में डूबी हुई है और बैंकों ने उसकी रिकवरी के प्रयास शुरू कर दिए हैं।
यह भी पता लगा है कि अखबार के अलावा कल्‍पतरू मोटल्‍स लिमिटेड नामक कल्‍पतरू ग्रुप की दूसरी कंपनी भी खस्‍ताहाल हो चुकी है और उसके कर्मचारियों को भी समय पर वेतन नहीं दिया जा रहा।
कल्‍पतरू ग्रुप के व्‍यवहार से क्षुब्‍ध उसके बहुत से कर्मचारी तो अब कानूनी कार्यवाही करने की तैयारी करने लगे हैं क्‍योंकि उन्‍हें किसी स्‍तर से कोई संतोषजनक जवाब नहीं दिया जा रहा।
”लीजेंड न्‍यूज़” ने भी इन सभी मामलों में कल्‍पतरू ग्रुप का पक्ष जानने की काफी कोशिशें कीं किंतु कोई व्‍यक्‍ति ग्रुप का पक्ष रखने के लिए सामने नहीं आया।
ग्रुप से जुड़े अधिकारी और कर्मचारियों का यहां तक कहना है कि यही हाल रहा तो ग्रुप के मुखिया तथा निदेशकों का हाल सहाराश्री के मुखिया सुब्रत राय सहारा जैसा होने की प्रबल संभावना है।
उनका कहना है कि जब अकूत संपत्‍ति के मालिक सहाराश्री सुब्रत राय एक लंबे समय से जेल की सलाखों के पीछे होने के बावजूद 10 हजार करोड़ रुपए सुप्रीम कोर्ट में जमा नहीं करा पा रहे तो कल्‍पतरू ग्रुप के मुखिया जयकृष्‍ण सिंह राणा 6 हजार करोड़ रुपए कैसे चुका पायेंगे।
जाहिर है कि ऐसे में उनका भी हश्र सहाराश्री जैसा होने की पूरी संभावना है लेकिन अफसोस की बात यह है कि उनके साथ सैकड़ों वो कर्मचारी भी बर्बादी के कगार पर जा पहुंचे हैं जिनका कोई दोष नहीं है और जो सिर्फ और सिर्फ अपनी जॉब के लिए उनके कारनामों की ओर से आंखें बंद करके अपनी ड्यूटी को अंजाम देते रहे।
-लीजेंड न्‍यूज़

सोमवार, 28 सितंबर 2015

खतरनाक संकेत है खाकी के खौफ का खत्‍म होते जाना

खाकी के खौफ का खत्‍म होते जाना उत्‍तर प्रदेश के लिए एक खतरनाक संकेत है। हालांकि प्रदेश की सत्‍ता पर काबिज समाजवादी पार्टी ऐसा नहीं मानती। मुख्‍यमंत्री अखिलेश यादव की मानें तो प्रदेश की कानून-व्‍यवस्‍था जहां दूसरे प्रदेशों से बेहतर है, वहीं पुलिस भी विपरीत परिस्‍थितियों के बावजूद अच्‍छा काम कर रही है।
मुख्‍यमंत्री और समाजवादी पार्टी क्‍या कहती है, इस पर फिलहाल गौर न करके वास्‍तविकता पर ध्‍यान दिया जाए तो पुलिस की प्रदेश में कहीं न कहीं आए दिन होने वाली मजामत यह साबित करने के लिए काफी है कि खाकी का अब न तो इकबाल बुलंद रहा और न उसका बदमाशों के मन में खौफ बाकी है।
अब सवाल यह पैदा होता है कि ऐसी परिस्‍थितियां पैदा कैसे हुईं कि जिस खाकी के खौफ से कभी बड़े-बड़े कुख्‍यात बदमाशों की जान सूख जाती थी, उसी खाकी पर अब खास ही नहीं आम आदमी भी हमलावर हो जाता है।
नि: संदेह ऐसी परिस्‍थितियां पैदा न तो एकसाथ पैदा हुईं हैं और न किसी एक कारण से बनी हैं। इन परिस्‍थितियों के पैदा होने में जितना हाथ राजनेताओं का है, उतना ही पुलिस की उस कार्यप्रणाली का भी है जो अत्‍याचार की श्रेणी में आती है।
पुलिस की कार्यप्रणाली में सुधार के लिए कोर्ट से मिले आदेश-निर्देश धूल फांक रहे हैं क्‍योंकि यदि उन आदेश-निर्देशों पर अमल हो जाता है तो पुलिस फिर राजनेताओं के हाथ की कठपुतली नहीं रह जायेगी।
राजनीति और राजनेताओं से संरक्षण प्राप्‍त पुलिस कभी आमजन के लिए निष्‍पक्ष नहीं हो सकती और राजनेता यही चाहते भी हैं।
पुलिस के अचार-व्‍यवहार संबंधी तमाम खामियों को छोड़कर यदि जिक्र किया जाए सिर्फ उसके राजनीतिक दुरुपयोग का तो स्‍थिति इतनी अधिक भयावह है कि ऐसा लगता है जैसे ऊपर से नीचे तक पुलिस का राजनीतिकरण हो चुका है।
बात चाहे पुलिस अधिकारी व कर्मचारियों के ट्रांसफर-पोस्‍टिंग की हो अथवा उनके द्वारा की जाने वाली तफ्तीशों की, हर एक पर राजनीति हावी है। जोनल, रीजनल ही नहीं जिले तक में पुलिस अधिकारियों की पोस्‍टिंग राजनीतिक समीकरणों के हिसाब से की जाती है। थाने और चौकियां भी राजनीतिक दखलंदाजी के शिकार हैं और उन पर जाति विशेष का वर्चस्‍व कायम है।
प्रदेश में शायद ही कोई थाना-चौकी ऐसा बचा हो जिसमें प्रभारी से लेकर दीवान, मोहर्रिर व बीट के सिपाही तक जातिगत आधार पर बंटे हुए न हों।
ये लोग बदमाशों को भी उसी चश्‍मे से देखते हैं कि कौन सा बदमाश किस जाति से ताल्‍लुक रखता है अथवा उसे किस राजनीतिक दल का संरक्षण प्राप्‍त है। बदमाशों के खिलाफ कार्यवाही से पहले इन बातों पर गौर किया जाता है।
जाहिर है कि इन हालातों के चलते कई-कई खेमों में बंटा हुआ फोर्स जब कहीं किसी की गिरफ्तारी या दबिश के लिए प्रोग्राम बनाता है तो एकओर जहां उसकी सूचना पहले से लीक हो जाती है वहीं दूसरी ओर वांछित और अपराधी तत्‍वों को पुलिस पर हमलावर होने के लिए भी प्रोत्‍साहित किया जाता है।
बेशक इससे किन्‍हीं खास पुलिसजनों का अपने प्रतिद्वंदी पुलिसकर्मी से बदला लेने का मकसद पूरा हो जाता हो किंतु वैमनस्‍यता काफी बढ़ जाती है।
पुलिसजन बहुत अच्‍छी तरह जानते हैं पुलिस पार्टी पर हमलावर होने तथा उसकी मजामत करने का दुस्‍साहस बड़े से बड़ा बदमाश तब तक नहीं करता जब तक कि उसे पुलिस के अंदर से ही प्रोत्‍साहन न मिले किंतु ठोस सबूतों के अभाव में गद्दारों का कुछ नहीं बिगड़ता।
अधिकारी भी जांच के नाम पर लीपापोती करके मामले को रफा-दफा करने में विश्‍वास ज्‍यादा रखते हैं, ठोस कार्यवाही में कम लिहाजा कुछ दिनों बाद मामला ठंडा पड़ जाता है।
अगर ठंडा नहीं पड़ता तो कुछ दिनों बाद पुलिस मजामत की कोई दूसरी नई घटना हो जाती है और फिर ध्‍यान उस पर केंद्रित हो जाता है।
मथुरा जिले की ही बात करें तो पुलिस मजामत की तमाम घटनाएं आज तक पहेली बनी हुई हैं और उनका अनावरण नहीं हो पाया है जबकि कुछ घटनाओं में तो पुलिसजन जान से हाथ धो बैठे हैं जबकि कुछ में अंग-भंग हुए हैं।
यहां गौरतलब यह भी है कि भले ही समाजवादी पार्टी के शासनकाल में ऐसी घटनाएं कुछ बढ़ जाती हों या जाति विशेष का वर्चस्‍व कायम रहता हो किंतु इससे पूरी तरह निजात किसी पार्टी के शासन में नहीं मिलती।
हर सत्‍ता में कुछ खास तत्‍वों का बोलबाला रहता है और वो अनुशासन को ताक पर रखकर पूरी मनमानी करने से बाज नहीं आते।
जाहिर है कि इन हालातों में खाकी का खौफ रहेगा भी कैसे। जब मेंड़ ही खेत को खाने पर आमादा हो, तो उसे भगवान भी नहीं बचा सकते।
कुछ ऐसे ही स्‍थितियों के चलते आज खाकी अपनी जान बचाकर काम करने को मजबूर है और बदमाश बेखौफ होकर खाकी को अपना निशाना बनाते हैं।
खाकी की ट्रांसफर-पोस्‍टिंग से लेकर उसके अंदर तक समा चुके जातिगत राजनीति के कीटाणुओं का यदि समय रहते सफाया नहीं किया गया तो तय मानिए कि खाकी कहीं की नहीं रहेगी तथा उसकी मजामत होने का सिलसिला न केवल इसी प्रकार जारी रहेगा बल्‍कि साल-दर-साल बढ़ता जायेगा।
- सुरेंद्र चतुर्वेदी

रविवार, 20 सितंबर 2015

यूपी: रिश्वतखोरी का सुनियोजित तंत्र चला रहा था यादव सिंह

लखनऊ। नोएडा का निलंबित मुख्य अभियंता यादव सिंह कथित तौर पर रिश्वतखोरी का पूरा सुनियोजित तंत्र चला रहा था, जिसमें प्राधिकरण में कई अधिकारियों तक घूस की तय राशि पहुंचती थी।
सूत्रों ने बताया कि आयकर विभाग और सीबीआई समेत अनेक एजेंसियों की जांच के दौरान यह बात सामने आई कि सिर्फ सिंह तक ही रिश्वत नहीं पहुंचती थी बल्कि विभाग के अन्य अधिकारियों को बड़े व्यवस्थित तरीके से पैसा पहुंचता था, जिसका विस्तृत रिकॉर्ड रखा जाता था।
जांच में शामिल सूत्रों को एक डायरी मिली है जिससे पता चलता है कि ठेकेदारों से कथित तौर पर कुल ठेके की कीमत का करीब पांच से 10 प्रतिशत लिया जाता था, जिसे सिंह के अधीन काम करने वाले अधिकारियों में बांटा जाता था। सबसे निचले स्तर के अधिकारी को 0.05 से 0.10 प्रतिशत यानी 100 रुपये में पांच से 10 पैसे तक मिलते थे। कुल रिश्वत 50 लाख रुपये या इससे अधिक होती थी।
जांचकर्ताओं के अनुसार, कथित तौर पर अलग-अलग वरिष्ठता के आठ स्तर पर अधिकारियों को रिश्वत दी जाती थी, जिनमें सिंह सबसे ऊपर थे। एजेंसी एक फोन से हुए संदेशों और कॉल के आदान-प्रदान का भी अध्ययन कर रही है, जिसे सिंह का ही बताया जाता है।
सूत्रों के मुताबिक, सीबीआई दो कंपनियों- मैक्कॉन इंफ्रा प्राइवेट लिमिटेड और मीनू क्रियेशन्स के स्वामित्व का ब्यौरा भी देख रही है जो कथित तौर पर सिंह के रिश्तेदारों और साथियों से जुड़ी हैं। कोलकाता की अनेक कंपनियां और रीयल एस्टेट डवलपर भी जांच के घेरे में हैं।
सीबीआई के सूत्रों के अनुसार, उन्हें आयकर विभाग से दस्तावेज मिले हैं और दोनों विभाग इस मुद्दे पर समन्वय के साथ काम कर रहे हैं।
सीबीआई यादव सिंह, उनकी पत्नी कुसुमलता, बेटे सनी यादव और बेटी गरिमा भूषण से पूछताछ कर रही है। इन सभी के नाम सिंह के खिलाफ एजेंसी द्वारा दर्ज प्राथमिकियों में संदिग्ध के तौर पर दर्ज हैं।

शुक्रवार, 11 सितंबर 2015

बड़ा खुलासा: यादव सिंह की कंपनी का शेयर होल्‍डर है मुलायम का सांसद भतीजा

लखनऊ। नोएडा अथॉरिटी के चीफ रहे अरबपति इंजीनियर यादव सिंह की कंपनी का शेयर होल्‍डर है मुलायम सिंह का सांसद भतीजा अक्षय यादव। सपा सुप्रीमो मुलायम सिंह यादव की फैमिली के इस बिजनेस कनेक्शन का खुलासा आज ही हुआ है।
जानकारी के मुताबिक मुलायम के भाई और सपा के राष्ट्रीय महासचिव रामगोपाल यादव के बेटे अक्षय यादव, अरबपति इंजीनियर यादव सिंह की कंपनी के शेयर होल्डर हैं। अक्षय के अलावा उनकी पत्नी रिचा यादव के शेयर भी इस कंपनी में हैं। सूत्रों से प्राप्‍त जानकारी के मुताबिक मुलायम के भतीजे और फिरोजाबाद के मौजूदा सांसद अक्षय यादव ने यादव सिंह की फर्म से प्रॉफिट गेन किया है। अक्षय यादव को शेयर बेचने के बाद कंपनी की ओर से ये दिखाया गया कि इसने 16 लाख 45 हजार शेयरों को 990 रुपए प्रति शेयर के हिसाब से बेचा है।
यादव सिंह के असिस्टेंट के जरिए हुई थी डील
अक्षय यादव ने यादव सिंह के असिस्टेंट राजेश मनोचा के जरिए कंपनी के साथ डील की थी। इसके तहत मई 2014 में दिल्ली की कंपनी एनएम बिल्डवेल के 9 हजार 995 शेयर खरीदे थे। अक्षय यादव की पत्नी रिचा यादव के पास भी इस कंपनी के शेयर हैं। अक्षय यादव ने जिस कंपनी के शेयर खरीदे थे, उसकी जमीन की कीमत 1.58 करोड़ रुपए थी जबकि कंपनी बिल्डिंग की कीमत 1.57 करोड़ रुपए बताई गई है। वहीं, जब डील के समय कंपनी ने अक्षय यादव को एक शेयर की कीमत 10 रुपए दिखाई, जिससे मुलायम के भतीजे अक्षय ने महज एक लाख रुपए में कंपनी के 10 हजार शेयर खरीद लिए।
इनकम टैक्स डिपार्टमेंट खंगाल चुका है कंपनी के डिटेल
फाइनेंस मिनिस्ट्री के सोर्स बताते हैं कि यादव सिंह की इस एनएम बिल्डवेल कंपनी के खिलाफ इनकम टैक्स डिपार्टमेंट और ईडी आय से अधिक संपत्ति के मामले में जांच कर चुका है। यह भी बताया जा रहा है कि जब पिछले साल इनकम टैक्स डिपार्टमेंट ने यादव सिंह के नोएडा स्थित घर पर रेड डाली थी, तब उनकी लक्जरी कार से जो 10 करोड़ रुपए मिले थे, वो रुपए यादव सिंह के असिस्टेंट राजेश मनोचा के ही थे। राजेश मनोचा इंफ्रा लिमिटेड कंपनी का भी डायरेक्टर रह चुका है। यादव सिंह के केस में सीबीआई इस कंपनी पर भी नजर रखे हुए है।
क्या कहती है सपा?
इस मामले में अक्षय यादव के चाचा और प्रदेश के कैबिनेट मंत्री शिवपाल यादव ने कहा कि “यादव सिंह के खिलाफ सीबीआई जांच का आदेश हो चुका है और यूपी सरकार भी अपनी तरफ से जांच करा रही है इसलिए इस पर कोई कमेंट करना ठीक नहीं होगा।”
क्या कहती है बीजेपी?
बीजेपी के प्रदेश प्रवक्ता विजय बहादुर पाठक ने कहा, “यह तो साफ जाहिर था कि सपा नेताओं के शह की वजह से यादव सिंह का भ्रष्टाचार फलफूल रहा था। इसी कारण यादव सिंह के भ्रष्टाचार की जांच से यूपी सरकार कतरा रही थी। उनके मुताबिक, जैसे-जैसे जांच आगे बढ़ेगी कई सपा नेताओं के नाम सामने आयेंगे।”
जिसके हाथ सीबीआई, उसके हाथ सपाई
कांग्रेस प्रवक्ता सुरेन्द्र राजपूत ने इस मामले पर केंद्र की एनडीए सरकार और प्रदेश की सपा सरकार पर चुटकी लेते हुए कहा,“जिसके हाथ सीबीआई, उसके हाथ सपाई।” उन्होंने कहा कि राज्य सरकार कैसे शासन-प्रशासन का गलत फायदा उठाती है, ये इसका उदाहरण है। उन्होंने कहा कि यादव सिंह के जरिए हुए इस भ्रष्टाचार में गलत तरीके से खरीदी गई सभी संपत्तियां सरकार को जब्त करनी चाहिए और इस मामले की व्यापक जांच होनी चाहिए।
उन्होंने कहा कि पिछली बसपा सरकार भी इसी तरह के भ्रष्टाचार की वजह से अपने अंजाम तक पहुंची थी, ये सरकार भी उसी नक़्शे-कदम पर चलती नजर आ रही है।
नोएडा अथॉरिटी के अरबपति चीफ इंजीनियर यादव सिंह मामले की जांच सीबीआई कर रही है। हाईकोर्ट लखनऊ बेंच में चीफ जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़ और जस्टिस एसएन शुक्ला इस बारे में आदेश दे चुके हैं। इस मामले में सीबीआई जांच को लेकर आईजी अमिताभ ठाकुर की पत्नी नूतन ठाकुर ने पीआईएल दायर की थी। नूतन ठाकुर ने बताया था कि यादव सिंह मामले की जांच एसआईटी, ईडी और इनकम टैक्स कर रही थी, जो अपने अपने क्षेत्र की स्पेशलिस्ट है और ऐसे में यादव सिंह पर सिर्फ जुर्माना लगा कर छोड़ दिया जाता। यादव सिंह के साम्राज्य का पता सिर्फ सीबीआई ही लगा सकती है। यही वजह रही कि मैंने सीबीआई जांच की मांग की, जिसे हाई कोर्ट ने मान लिया।
सरकार ने सीबीआई जांच का किया विरोध
राज्य सरकार ने यादव सिंह की सीबीआई जांच का विरोध किया था। सरकार कह रही थी कि इस मामले में ज्युडिशियल कमेटी जांच कर रही है, उसकी रिपोर्ट आने तक इंतजार कर लिया जाए। हाई कोर्ट ने कहा ज्युडिशियल कमेटी की अपनी सीमाएं हैं। यही वजह है कि कोर्ट ने सीबीआई जांच का आदेश दिया।

मथुरा-वृंदावन में भी ब्‍याज पर लगा है आसाराम का करोड़ों रुपया

-रियल एस्‍टेट तथा सर्राफा कारोबार से जुड़े लोगों के पास है यह रुपया
-देशभर में 500 कारोबारियों को बांट रखा है आसाराम ने अपना पैसा
-सिर्फ ब्‍याज से है आसाराम की 300 करोड़ रुपए सालाना की आमदनी
Crores rupees of Asaram Bapu on interest in Mathura-Vrindavan नाबालिग से बलात्‍कार के आरोपी आसाराम बापू ने अपनी अकूत संपत्‍ति का एक हिस्‍सा देश के जिन शहरों में ब्‍याज पर उठा रखा है, उनमें मथुरा-वृंदावन भी शामिल हैं।
आसाराम बापू ने अन्‍य शहरों की तरह मथुरा-वृंदावन में भी अपना पैसा रियल एस्‍टेट तथा सर्राफा कारोबार से जुड़े लोगों को मोटी ब्‍याज पर दिया हुआ है।
यूं तो आसाराम ने अपने पैसे को ब्‍याज पर उठाने की जिम्‍मेदारी इंदौर (मध्‍य प्रदेश) निवासी चाय और रियल एस्टेट कारोबारी मोहन लुधियानी को सौंप रखी है जो आसाराम ट्रस्ट का भी पूरा कामकाज संभालता है किंतु मथुरा-वृंदावन में ब्‍याज पर दिए गए पैसों का जिम्‍मा कुछ स्‍थानीय लोगों ने भी ले रखा है। ये लोग आसाराम के तथाकथित भक्‍त बताए जाते हैं।
देशभर के करीब 500 बड़े कारोबारियों में से मथुरा-वृंदावन के कारोबारियों को भी आसाराम बापू द्वारा ब्‍याज पर करोड़ों रुपए दिए जाने का खुलासा मध्य प्रदेश के इंदौर में 16 जगहों पर चल रही इनकम टैक्‍स की जांच से हुआ है।
छापे से पता लगा है कि आसाराम ने अपनी करीब 10 हजार करोड़ रुपए की कुल संपत्‍ति में से करीब 1677 हजार करोड़ रुपए देशभर के कारोबारियों को ब्‍याज पर बांट रखे हैं जिनसे उसे लगभग 300 करोड़ रुपए की सालाना आमदनी होती है। हालांकि समाचार लिखे जाने तक छापामार कार्यवाही जारी थी लिहाजा कार्यवाही पूरी होने के बाद रकम का यह आंकड़ा बढ़ भी सकता है।
गौरतलब है कि दो साल पहले आसाराम की गिरफ्तारी के समय आसाराम के आश्रम से पुलिस को 42 बोरे दस्तावेज मिले थे। इन दस्‍तावेजों में किस-किस को कितना रुपया चलाने के लिए दिया है, इसका जिक्र था। इसके साथ ही पूरे देश में फैली प्रॉपर्टी की जानकारी भी दस्‍तावेजों में थी। इनकम टैक्स डिपार्टमेंट अब इनकी जांच कर रहा है।
इंदौर में केशव नाचानी के यहां आयकर छापे से भी काफी दस्तावेज मिले थे। इनमें ब्लैक मनी के सबूत थे। इसी आधार पर सूरत की टीम ने दिल्ली इनकम टैक्स डिपार्टमेंट के साथ मिलकर छापे की प्लानिंग बनाई।
इनकम टैक्‍स डिपार्टमेंट की टीम फिलहाल इंदौर में गुडरिक चाय कंपनी के मालिक लुधियानी और लुधियानी से जुड़े बिल्डर अनिल अग्रवाल, शशि भूषण खंडेलवाल, विजय अग्रवाल, तेजिंदर सिंह घुम्मन, निर्मल अग्रवाल, विष्णु गोविंद राम शर्मा, केशव नाचानी के यहां छापामार कार्यवाही कर रही है। इसके साथ ही घनश्यामदास एंड कंपनी, श्रुति स्नेक्स प्रालि, ओएसिस डेवलपर्स, श्रीराम बिल्डर्स, अपोलो रियल एस्टेट प्रालि, कोन्कोर्ड टी पैकिंग प्रालि, डिजिना रियल एस्टेट डेवलपर्स और जीएसएमटी रियल एस्टेट डेवलपर्स की भी जांच हो रही है। भोपाल में रविंद्र सिंह भाटेजा पर भी कार्यवाही जारी है। इंदौर-भोपाल के साथ ही इनकम टैक्स विभाग सूरत, बड़ौदा, अहमदाबाद, मुंबई, पुणे, कोलकाता, जयपुर और दिल्ली में भी कार्यवाही कर रहा है।
इनकम टैक्‍स विभाग से जुड़े सूत्रों की मानें तो इन बड़े शहरों के बाद मथुरा-वृंदावन जैसे धार्मिक स्‍थानों पर छापामार कार्यवाही की जायेगी और पता लगाया जायेगा कि आसाराम बापू का कितना रुपया यहां लगा है और किन-किन कारोबारियों पर है।
यह भी पता लगा है कि मथुरा-वृंदावन की तरह ही आसाराम बापू ने उत्‍तराखंड के कई धार्मिक शहरों में कारोबारियों को मोटा पैसा ब्‍याज पर दे रखा है।
उल्‍लेखनीय है कि राष्‍ट्रीय राजधानी दिल्‍ली तथा एनसीआर से सटे होने और देश के प्रमुख धार्मिक स्‍थलों में शुमार होने की वजह से मथुरा-वृंदावन के रियल एस्‍टेट कारोबार में पिछले कुछ वर्षों के अंदर काफी उछाल आया है।
मथुरा-वृंदावन को प्रॉपर्टी में निवेश के लिहाज से भी काफी बेहतर माना जाता है और इसीलिए यहां रियल एस्‍टेट के नामचीन नाम अपने प्रोजेक्‍ट खड़े कर चुके हैं।
सैंकड़ों एकड़ में फैली इनकी कॉलोनियां और उनके अंदर दी जा रही सुविधाएं इस बात का सबूत हैं कि उनके निर्माण में तो मोटी लागत आती ही है, साथ ही खरीदार भी सामान्‍य व्‍यक्‍ति नहीं हो सकता।
यही नहीं, रियल एस्‍टेट के अरबों रुपए के इस कारोबार को स्‍थापित करने के लिए रियल एस्‍टेट कंपनियों को हर समय पैसों की जरूरत बनी रहती है और उन्‍हें यह पैसा आसाराम बापू जैसे धर्म के तथाकथित व्‍यापारियों से ही आसानी के साथ हासिल हो सकता है।
इन कारोबारियों को ब्‍याज पर पैसा देने वाला आसाराम बापू अकेला धार्मिक व्‍यापारी नहीं है। मथुरा-वृंदावन में अरबों रुपए लगाकर मठ, मंदिर व आश्रम बनाने वाले दूसरे सुनामधन्‍य तथाकथित साधु-संतों ने भी अपना तमाम रुपया रियल एस्‍टेट में लगा रखा है।
अब देखना यह है कि आसाराम के यहां इनकम टैक्‍स विभाग की छापामारी से खुली इस पोल का दायरा मथुरा-वृंदावन में कहां-कहां तक फैलता है और कौन-कौन उसके निशाने पर आता है।
सूत्रों की मानें तो इस छापामारी के बाद मथुरा-वृंदावन के कई सफेदपोश कारोबारियों के चेहरे बेनकाब होंगे क्‍योंकि आसाराम का अधिकांश पैसा काले धन की श्रेणी में आता है।
ऐसे में इन सफेदपोश कारोबारियों को आसाराम का पैसा ब्‍याज पर लेने की बड़ी कीमत चुकानी पड़ेगी।
-सुरेन्‍द्र चतुर्वेदी

आसाराम अब भी हर साल 300 करोड़ रुपए सिर्फ ब्‍याज से कमा रहा है


Asaramइंदौर। आसाराम भले ही जोधपुर जेल में बंद है लेकिन अब भी हर साल वह 300 करोड़ रुपए सिर्फ ब्‍याज से कमा रहा है। उसने करोड़ों रुपए बाजार में ब्‍याज पर बांट रखे हैं। इनकम टैक्स के छापे में यह बात सामने आई है। मध्य प्रदेश के इंदौर में 16 जगहों पर चल रही जांच में पता चला कि आसाराम के रुपए लोन के रूप में रियल एस्टेट और सर्राफा बाजार से लेकर कई धंधों में लगे हैं। इससे आसाराम को हर साल करीब 300 करोड़ रुपए का ब्याज मिल रहा है।
एक अनुमान के मुताबिक आसाराम की प्रॉपर्टी 10 हजार करोड़ रुपए की है। उसने देशभर के 500 बड़े कारोबारियों को 1677 करोड़ रुपए लोन पर दे रखे हैं। आसाराम नाबालिग से रेप का आरोपी है।
इनकम टैक्स के छापे से खुला राज
इंदौर में डाले गए छापे में मोहन लुधियानी और बाकी कारोबारियों से मिले दस्तावेजों से आसाराम द्वारा दिए गए लोन के सबूत मिले हैं। इनकम टैक्स की पूछताछ में कई लोगों ने कबूल कर लिया है कि वे ब्याज पर पैसा चला रहे हैं। चाय और रियल एस्टेट कारोबारी मोहन लुधियानी आसाराम ट्रस्ट का पूरा कामकाज संभालता है। वह गुरुकुल स्कूल में भी डायरेक्टर है।
सूत्रों के मुताबिक इसके यहां भी लोन के रूप में करोड़ों रुपए देने के सबूत मिले हैं। जांच में श्रीराम बिल्डर के यहां जमीन में दो करोड़ रुपए से ज्यादा गड़े मिले। इनकम टैक्स डिपार्टमेंट की यह जांच फिलहाल जारी है।
42 बोरों में मिले दस्तावेजों ने खोली पोल
दो साल पहले आसाराम की गिरफ्तारी के समय आश्रम से पुलिस को 42 बोरे दस्तावेज मिले थे। इसमें किस-किस को कितना रुपया चलाने के लिए दिया है, इसका जिक्र था। इसके साथ ही पूरे देश में फैली प्रॉपर्टी की जानकारी थी। इनकम टैक्स डिपार्टमेंट द्वारा इनकी जांच की जा रही थी। इसी तरह कुछ साल पहले इंदौर के केशव नाचानी के यहां आयकर छापे में काफी दस्तावेज मिले थे। इसमें इस ब्लैक मनी के सबूत थे। इसी आधार पर सूरत की टीम ने दिल्ली इनकम टैक्स डिपार्टमेंट के साथ मिलकर छापे की प्लानिंग बनाई।
कई शहरों में जारी है कार्यवाही
इंदौर में गुडरिक चाय कंपनी के मालिक लुधियानी और लुधियानी से जुड़े बिल्डर अनिल अग्रवाल, शशि भूषण खंडेलवाल, विजय अग्रवाल, तेजिंदर सिंह घुम्मन, निर्मल अग्रवाल, विष्णु गोविंद राम शर्मा, केशव नाचानी के यहां कार्यवाही आज भी जारी है। इसके साथ ही घनश्यामदास एंड कंपनी, श्रुति स्नेक्स प्रालि, ओएसिस डेवलपर्स, श्रीराम बिल्डर्स, अपोलो रियल एस्टेट प्रालि, कोन्कोर्ड टी पैकिंग प्रालि, डिजिना रियल एस्टेट डेवलपर्स और जीएसएमटी रियल एस्टेट डेवलपर्स की भी जांच हो रही है। भोपाल में रविंद्र सिंह भाटेजा पर भी कार्यवाही जारी है। इंदौर-भोपाल के साथ ही इनकम टैक्स सूरत, बड़ौदा, अहमदाबाद, मुंबई, पुणे, कोलकाता, जयपुर और दिल्ली में भी कार्यवाही कर रहा है।
कौन है आसाराम?
आसाराम का जन्म 17 अप्रैल 1941 को बिरानी नाम के गांव में हुआ था। ये गांव अब पाकिस्तान में आता है। बंटवारे के बाद आसाराम भी अपने परिवार के साथ भारत आ गया। इसके बाद वो शहर-दर-शहर घूमता रहा लेकिन पिता की मौत के बाद वो चाय बेचने का काम करने लगा। इस दौरान आसाराम ने पढ़ाई भी छोड़ दी। महज 15 साल की उम्र में वो घर से भाग कर एक आश्रम में चला गया था। किसी तरह उसके घर वाले उसे वापस घर लाए और शादी करा दी।
आसाराम की शादी लक्ष्मी देवी के साथ हुई है। इनके दो बच्चे नारायण और भारती हुए। नारायण पिता की तरह ही संत बन गया और भारती भी साध्वी का जीवन जीने लगी। नारायण साईं की शादी जानकी के साथ हुई लेकिन वह सास लक्ष्मी के साथ अहमदाबाद के महिला आश्रम में रहकर उनकी देखभाल करती रही। शादी के पंडाल में आसाराम की घोषणा के बाद ही नारायण पांच साल तक ब्रह्मचर्य का पालन करने चला गया। इस बीच जानकी ने नारायण पर लड़कियों के साथ घूमने के आरोप भी लगाए। एमए कर चुकी आसाराम की बेटी की शादी हेमंत नाम के लड़के के साथ हुई लेकिन कुछ समय बाद इनका तलाक हो गया।
कई नामी वकील लड़ रहे हैं आसाराम का केस
डॉ. सुब्रमण्यम स्वामी, राम जेठमलानी, सलमान खुर्शीद और केटीएस तुलसी सहित देश के कई जाने-माने वकील आसाराम की पैरवी कर चुके हैं।
दो साल से जेल में बंद है आसाराम
जेल में बंद हुए आसाराम बापू को दो साल हो गए हैं। आसाराम ने इस दौरान कई बार जमानत की अर्जी लगाई लेकिन वो खारिज हो गई।
हाल ही में जेल से जमानत पर छूट कर आए एक नेता ने बताया कि आसाराम को उसके पास की ही बैरक में रखा गया था। इस नेता के अनुसार रेप जैसे संगीन मामलों में कैसे सलाखों से बाहर आया जा सकता है, इसकी चर्चा भी जेल में बंद कैदियों के साथ आसाराम करता रहता है। उसके कपड़े बाहर से धुलकर आते हैं। उसे अपनी बैरक के बाहर टहलने की आज़ादी है लेकिन हिंसक प्रवृत्ति के कैदियों की बैरक के पास नहीं जाने दिया जाता। उसकी बैरक के अंदर सीसीटीवी कैमरे लगे हैं, इसी कारण उसे सोने के लिए पलंग नहीं दिया जाता है लेकिन अच्छा मोटा और आरामदायक गद्दा जरूर दे रखा है।

आत्‍मप्रशंसा से अभिभूत समाजवादी सरकार

इधर उत्‍तर प्रदेश में विधानसभा चुनावों के लिए अब दो साल से भी कम समय बचा है और उधर अखिलेश यादव के नेतृत्‍व वाली समाजवादी कुनबे की सरकार अपनी आत्‍मप्रशंसा से अभिभूत है। वो उस कहावत को सिद्ध कर रही है कि दीपक जब बुझने को होता है तब ज्‍यादा रोशनी देता है।
अखिलेश यादव पर भरोसा करके जनता ने समाजवादी पार्टी को स्‍पष्‍ट बहुमत इस उम्‍मीद में दिया था कि एक ऊर्जावान युवा नेता संभवत: सूबे की सूरत बदल देगा और उत्‍तर प्रदेश की गिनती देश के उत्‍तम प्रदेशों में होने लगेगी किंतु अखिलेश यादव ने साबित कर दिया कि न तो हर चमकने वाली चीज सोना होती है तथा ना ही हर युवा ऊर्जावान हो सकता है।
आज उत्‍तर प्रदेश के हालात बद से बदतर हो चुके हैं। बात चाहे कानून-व्‍यवस्‍था की हो या फिर बिजली-पानी व सड़क आदि की। भ्रष्‍टाचार की हो अथवा औद्योगिक विकास की, रोजी-रोजगार की हो या व्‍यापार की, हर मायने में सरकार पूरी तरह फेल है और समाजवादी कुनबे को चुहलबाजी सूझ रही है।
सार्वजनिक मंचों से कभी समाजवादी कुनबे के भीष्‍मपितामह मुलायम सिंह यादव कहते हैं कि अखिलेश ब्‍यूराक्रेसी को हेंडिल करना नहीं जानते तो कभी कहते हैं कि उन्‍हें 100 में से 100 नंबर दिये जा सकते हैं।
एक पल कहते हैं कि यदि आज चुनाव हो जाएं तो हम फिर सत्‍ता में नहीं आ सकते तो दूसरे पल अपने मंत्रियों और पदाधिकारियों की फौज से पूछते हैं कि जितवा तो दोगे ना।
मुख्‍यमंत्री अखिलेश यादव के चचा शिवपाल यादव अधिकारियों को लेकर उन पर सार्वजनिक मंच से कटाक्ष करते हैं तो वहीं मुख्‍यमंत्री उन्‍हें जवाब देते हैं कि अब मुझे अधिकारियों को चलाना आ गया है।
तू मेरी पीठ खुजा, मैं तेरी खुजा देता हूं कि तर्ज पर पूरा समाजवादी कुनबा कभी आत्‍मप्रशंसा में मुग्‍ध हो जाता है तो कभी 2017 को याद करके अपने अंदर बैठे भय को दूर करने की कोशिश करता प्रतीत होता है।
पूरा प्रदेश बिजली की भारी किल्‍लत और कानून-व्‍यवस्‍था की बदहाली से त्रस्‍त है लेकिन समाजवादी कुनबा ”जो दिन कटें आनंद में जीवन कौ फल सोई…को चरितार्थ कर रहा है। जिनकी जुबान तक साफ नहीं है, वह नदियां साफ करने की बात कर रहे हैं। मुलायम से लेकर अखिलेश तक के बयानों को टीवी चैनल वाले अब लिखकर देने लगे हैं क्‍योंकि वह क्‍या बोल गए…इसका सिर्फ अंदाज ही लगाया जा सकता है। सुन पाना संभव नहीं है।
अखिलेश सरकार बिना कुछ सोचे-समझे भ्रष्‍टाचार का पर्याय बन चुके यादव सिंह की सुप्रीम कोर्ट में पैरवी कर रही है और सरकारी नौकरियों में यादवों की भर्ती करके सरकार का स्‍थाई रूप से यादवीकरण करने में लगी है।
कभी-कभी ऐसा लगता है कि समाजवादी कुनबे का बुझता हुआ दीपक इस प्रयास में है कि यादव सिंह जैसों को बचाकर तथा यादवों की अधिक से अधिक भर्ती करके कानून के शिकंजे से बच पाने का बेशक असफल ही सही किंतु आखिरी प्रयास कर लिया जाए। यूं भी कहते हैं पहलवानों का बुढ़ापा बड़ा कष्‍टप्रद होता है। मुलायम सिंह ने बड़ी अखाड़ेबाजी की है और अब भी अखाड़ा खोदने से बाज नहीं आ रहे। कहीं ऐसा न हो कि उनकी यही अखाड़ेबाजी उनके साथ-साथ पूरे कुनबे को ले डूबे।
नि:संदेह यादव सिंह की तूती माया सरकार में भी बोलती रही और जैसे-जैसे यादव सिंह पर सीबीआई का शिकंजा कसेगा, वैसे-वैसे मायावती की मायावी दुनिया का सच भी सामने आयेगा लेकिन समाजवादी कुनबे के भी बच पाने की उम्‍मीद कम ही है।
यादव सिंह की सही तरीके से जांच हो जाती है तो तय मानिए कि धुर-विरोधी माया-मुलायम एक ही जगह दिखाई देंगे। वो जगह कौन सी हो सकती है, इसका अंदाज लगाना कोई बहुत मुश्‍किल काम नहीं है।
फिलहाल सूबे की सत्‍ता पर काबिज समाजवादी कुनबा अपनी शान में कसीदे पढ़ता रहे या चुहलबाजी में मशगूल रहे परंतु इतना तय है कि जनता सब देख भी रही है और सुन भी रही है।
उसे पैर पटकते-पटकते जैसे तीन साल से ऊपर का समय बीत गया वैसे ही बाकी करीब दो साल भी काट लेगी लेकिन 2017 के चुनाव निश्‍चित ही अपना अंदाज कुछ अलग ही बयां करेंगे क्‍योंकि अति हर चीज की बुरी होती है। नशा चाहे सत्‍ता का हो या बोतल का, उतना ही करना चाहिए जितना खुद को झिल जाए और जिससे कोई दूसरा प्रभावित न हो। जब नशा सिर चढ़कर बोलने लगता है और दूसरों को प्रभावित करता है तो नागरिक ऐसा अभिनंदन करते हैं कि उसकी गूंज कई दशकों तक सुनाई देती है। कई बार तो उसकी गूंज में कई-कई पीढ़ियों दबकर रह जाती है।
-लीजेंड न्‍यूज़

बुधवार, 26 अगस्त 2015

मथुरा की कानून-व्‍यवस्‍था भी ”समाजवादी”

यूं तो समूचे सूबे में कानून-व्‍यवस्‍था की बदहाली के उदाहरण हर रोज सामने आते हैं लेकिन यदि बात करें सिर्फ विश्‍व विख्‍यात धार्मिक जनपद मथुरा की तो ऐसा लगता है कि यहां कानून-व्‍यवस्‍था भी ”समाजवादी” हो गई है।मसलन…जाकी रही भावना जैसी। जिसे अच्‍छी समझनी हो, वो अच्‍छी समझ ले और जिसे बदहाल समझनी हो, वो बदहाल समझ ले। इस मामले में अभिव्‍यक्‍ति की पूरी स्‍वतंत्रता है।
वैसे आम आदमी जो न समाजवादी है और न बहुजन समाजी है, न कांग्रेसी है और न भाजपायी है, न रालोद का वोटर है और न वामपंथी है…उसके अनुसार यहां कानून-व्‍यवस्‍था अब केवल एक ऐसा मुहावरा है जिसका इस्‍तेमाल अधिकारीगण अपनी सुविधा अनुसार करते रहते हैं।
कृष्‍ण की जन्‍मस्‍थली में तैनात होने वाले अधिकारियों को यह सुविधा स्‍वत: सुलभ हो जाती है क्‍योंकि यहां नेता और पत्रकार केवल दर्शनीय हुंडी की तरह हैं। अधिकांश नेता और पत्रकारों का मूल कर्म दलाली और मूल धर्म चापलूसी बन चुका है।
चोरी, डकैती, हत्‍या, लूट, बलात्‍कार, बलवा जैसे तमाम अपराध हर दिन होने के बावजूद मथुरा के नेता और पत्रकार अपने मूल कर्म व मूल धर्म को निभाना नहीं भूलते।
कहने को यहां सत्‍ताधारी समाजवादी पार्टी की एक जिला इकाई भी है और उसके पदाधिकारी भी हैं लेकिन उनका कानून-व्‍यवस्‍था से दूर-दूर तक कोई सरोकार नहीं।
दरअसल वो कन्‍फ्यूज हैं कि कानून-व्‍यवस्‍था के मामले में किसकी परिभाषा को उचित मानकर चलें।
जैसे प्रदेश पुलिस के मुखिया कहते हैं कि कानून-व्‍यवस्‍था नि:संदेह संतोषजनक नहीं है। पार्टी के मुखिया का भी यही मत है। वो कहते हैं कि यदि आज की तारीख में चुनाव हो जाएं तो पार्टी निश्‍चित हार जायेगी। उनके लघु भ्राता प्रोफेसर रामगोपाल की मानें तो स्‍थिति इतनी बुरी भी नहीं है जितनी प्रचारित की जा रही है। जबकि ”लिखा-पढ़ी” में मुख्‍यमंत्री पद संभाले बैठे अखिलेश यादव का कहना है कि उत्‍तर प्रदेश की कानून-व्‍यवस्‍था उत्‍तम है और यहां का पुलिस-प्रशासन बहुत अच्‍छा काम कर रहा है। दूसरे राज्‍यों से तो बहुत ही बेहतर परफॉरमेंस है उसकी।
ऐसे में किसकी परिभाषा को सही माना जाए और किसे गलत साबित किया जाए, यह एक बड़ी समस्‍या है।
मथुरा में एक पूर्व मंत्री के घर चोरी होती है तो कहा जाता है कि सुरक्षा बढ़वाने के लिए ऐसा प्रचार किया गया है। व्‍यापारी के यहां डकैती पड़ती है तो बता दिया जाता है कि पुराने परिचित ने डाली है। समय मिलने दो, पकड़ भी लेंगे। हाईवे पर वारदात होती है तो अगली वारदात का इंतजार इसलिए करना पड़ता है जिससे पता लग सके कि अपराधियों की कार्यप्रणाली है क्‍या। वो हरियाणा से आये थे या राजस्‍थान से। यह भी संभव है कि उनका राष्‍ट्रीय राजधानी क्षेत्र से सीधा कनैक्‍शन हो।
हां, इस बीच कुछ उचक्‍के टाइप के बदमाश पकड़ कर गुड वर्क कर लिया जाता है जिसे स्‍थानीय मीडिया पूरा कवरेज देकर साबित कर देता है कि मथुरा का पुलिस-प्रशासन निठल्‍ला चिंतन नहीं कर रहा। साथ में काम भी कर रहा है। एक्‍टिव है।
थोड़े ही दिन पहले की बात है जब मथुरा पुलिस की स्‍वाट टीम का बड़ा कारनामा जाहिर हुआ। बिना काम किए वैसा कारनामा कर पाना संभव था क्‍या।
स्‍वाट टीम के कारनामे ने साबित कर दिया कि वह दिन-रात काम कर रही है। यह बात अलग है कि वह काम किसके लिए और क्‍यों कर रही है। इस बात का जवाब देना न स्‍वाट टीम के लिए जरूरी है और न उनके लिए जिनके मातहत वह काम करती है। जांच चल रही है…नतीजा निकलेगा तो बता दिया जायेगा। नहीं निकला तो आगे देखा जायेगा।
आज यहां एसएसपी डॉ. राकेश सिंह हैं, इनसे पहले मंजिल सैनी थीं। उनसे भी पहले नितिन तिवारी थे। अधिकारी आते-जाते रहते हैं, कानून-व्‍यवस्‍था जस की तस रहती है। अधिकारी अस्‍थाई हैं, कानून-व्‍यवस्‍था स्‍थाई है।
मथुरा में हर अधिकारी सेवाभाव के साथ आता है। कृष्‍ण की पावन जन्‍मभूमि पर मिली तैनाती से वह धन्‍य हो जाता है। उसे समस्‍त ब्रजवासियों और ब्रजभूमि में आने वाले लोगों के अंदर कृष्‍णावतार दिखाई देने लगता है।
कृष्‍णावतार पर कानून का उपयोग करके वह इहिलोक और परलोक नहीं बिगाड़ना चाहता। बकौल मुलायम सिंह कृष्‍ण भी तो समाजवादी थे। यादव थे…इसका मतलब समाजवादी थे।
यहां कहा भी जाता है कि सभी भूमि गोपाल की। जब सब गोपाल का है तो गोपालाओं का क्‍या दोष। वह तो समाजवादी कानून के हिसाब से ही चलेंगे ना।
कृष्‍ण की भूमि पर तैनाती पाकर उसकी भक्‍ति में लीन अधिकारी इस सत्‍य से वाकिफ हो जाते हैं कि एक होता है कानून…और एक होता है समाजवादी कानून।
समाजवादी कानून सबको बराबरी का दर्जा देता है। लुटने वाले को भी और लूटने वाले को भी। पिटने वाले को भी और पीटने वाले को भी।
कागजी घोड़े सदा दौड़ते रहे हैं और सदा दौड़ते रहेंगे। बाकी अदालतें हैं न। वो भी तो देखेंगी कि कानून क्‍या है और व्‍यवस्‍था क्‍या है। कानून समाजवादी है और व्‍यवस्‍था मुलायमवादी है। चार लोग रेप नहीं कर सकते, इस सत्‍य से पर्दा हर कोई नहीं उठा सकता। पता नहीं ये गैंगरेप जैसा घिनौना शब्‍द किस मूर्ख ने ईजाद किया और किसने कानून का जामा पहना दिया।
उत्‍तर प्रदेश ऐसे कानून को स्‍वीकार नहीं करता। नेताजी को रेप स्‍वीकार है, रेपिस्‍ट स्‍वीकार हैं…गलती हो जाती है किंतु गैंगरेप स्‍वीकार नहीं क्‍योंकि वह गलती से भी नहीं किया जा सकता। संभव ही नहीं है।
ठीक उसी तरह जैसे कानून-व्‍यवस्‍था की बदहाली संभव नहीं है। वह कुछ गैर समाजवादी विरोधी दलों के दिमाग की उपज है। उनके द्वारा किया जाने वाला दुष्‍प्रचार है।
कानून-व्‍यवस्‍था कैसे बदहाल हो सकती है। वो बदहाल कर तो सकती है, खुद बदहाल हो नहीं सकती।
-लीजेंड न्‍यूज़

शनिवार, 8 अगस्त 2015

यक्ष प्रश्‍नों का भी कुछ कीजिए राजा युधिष्‍ठिर!

यक्ष प्रश्नों का जहाँ पहरा कड़ा हो,
जिस सरोवर के किनारे
भय खड़ा हो,
उस जलाशय का न पानी पीजिए
राजा युधिष्ठिर।
बंद पानी में
बड़ा आक्रोश होता,
पी अगर ले, आदमी बेहोश होता,
प्यास आख़िर प्यास है, सह लीजिए,
राजा युधिष्ठिर।
जो विकारी वासनाएँ कस न पाए,
मुश्किलों में
जो कभी भी हँस न पाए,
कामनाओं को तिलांजलि दीजिए
राजा युधिष्ठिर।
प्यास जब सातों समंदर
लांघ जाए,
यक्ष किन्नर देव नर सबको हराए,
का-पुरुष बन कर जिए
तो क्या जिए?
राजा युधिष्ठिर।
पी गई यह प्यास शोणित की नदी को,
गालियाँ क्या दें व्यवस्था बेतुकी को,
इस तरह की प्यास का कुछ कीजिए
राजा युधिष्ठिर।

मथुरा में जन्‍मे और इसी वर्ष 11 फरवरी 2015 को ‘नि:शब्‍द’ हुए डा. विष्‍णु विराट ने यह कविता पता नहीं कब लिखी थी और किस उद्देश्‍य के साथ लिखी थी, यह तो कहना मुश्‍किल है अलबत्‍ता इत्‍तिफाक देखिए कि वर्तमान दौर में उनकी यह कविता व्‍यवस्‍था पर किस कदर गहरी चोट करती है जैसे लगता है कि भविष्‍य को वह अपनी मृत्‍यु से पहले ही रेखांकित कर गये हों।

धर्मराज युधिष्‍ठिर को केंद्र में रखकर लिखी गई इस कविता की तरह आज हमारा देश भी तमाम यक्ष प्रश्‍नों के पहरे में घुटकर रह गया है। स्‍वतंत्रता पाने के 67 सालों बाद भी आमजन भयभीत है। वह डरा हुआ है न केवल खुद को लेकर बल्‍कि देश के भी भविष्‍य को लेकर क्‍योंकि देश का भविष्‍य स्‍वर्णिम दिखाई देगा तभी तो उसका अपना भविष्‍य उज्‍ज्‍वल नजर आयेगा।
अभी तो हाल यह है कि सत्‍ताएं बदलती हैं। सत्‍ताओं के साथ कुछ चेहरे भी बदलते हैं लेकिन नहीं बदलती तो वो व्‍यवस्‍था जिसकी उम्‍मीद में चुनाव दर चुनाव आम आदमी अपने मताधिकार का इस्‍तेमाल करता है।
इसमें कोई दो राय नहीं कि चुप्‍पी चाहे सत्‍ता के शिखर पर बैठे लोगों की हो या फिर जमीन से चिपके हुए आमजन की, होती बहुत महत्‍वपूर्ण है। हर तूफान से पहले प्रकृति शायद इसीलिए खामोशी ओढ़ लेती है।
2014 में हुए लोकसभा चुनावों के बाद आज जिस तरह की खामोशी समूचे राजनीतिक वातावरण में व्‍याप्‍त है, वह भयावह है। भयावह इसलिए कि ऊपरी तौर पर भरपूर कोलाहल सुनाई पड़ रहा है, संसद का मानसून सत्र हंगामे की भेंट चढ़ने जा रहा है। शीतकालीन सत्र पर भी अभी से आशंकाओं के बादल मंडराने लगे हैं किंतु सारे कोलाहल और हंगामे के बीच कहीं से कोई उत्‍तर नहीं मिल रहा। कोई समाधान नहीं सूझ रहा लिहाजा देश जैसे ठहर गया है। अगर कोई चाप सुनाई भी देती है तो सिर्फ रेंगने की, उसमें कहीं कोई गति नहीं है। सिर्फ दुर्गति है।
आमजन खुद को हर बार ठगा हुआ और अभिशप्‍त पाता है। उसे समझ में नहीं आता कि राजनीतिक कुतर्कों के बीच वह अपने तर्क किसके सामने रखे और कैसे व कब रखे। जिस वोट की ताकत पर वह सत्‍ता बदलने का माद्दा रखता है, वह ताकत भी बेमानी तथा निरर्थक प्रतीत होती है।
आमजन अब भी भूखा है, अब भी प्‍यासा है लेकिन राजनीति व राजनेताओं की भूख और प्‍यास हवस में तब्‍दील हो चुकी है। नीति व नैतिकता केवल किताबी शब्‍द बनकर रह गए हैं।
अब कोई राजा युधिष्‍ठिर अपनी कामनाओं, अपनी वासनाओं को तिलांजलि देने के लिए तैयार ही नहीं है। लगता है कि 21 वीं सदी में किसी और महाभारत की पटकथा तैयार हो रही है।
राजनेताओं की प्‍यास सातों समंदर लांघ रही है। यक्ष, किन्नर, देव, नर सबको हरा रही है। का-पुरुष बनकर जीने से किसी को परहेज नहीं रहा। आमजन की उम्‍मीद के सारे स्‍त्रोत सूखते दिखाई देते हैं। कहने को लोकतंत्र है परंतु आमजन जितना परतंत्र 67 साल पहले था, उतना ही परतंत्र आज भी है। व्‍यवस्‍था के तीनों संवैधानिक स्‍तंभ विधायिका, न्‍यायपालिका तथा कार्यपालिका…और कथित चौथा स्‍तंभ पत्रकारिता भी किसी अंधी सुरंग में तब्‍दील हो चुके हैं। यहां रौशनी की कोई किरण कभी दिखाई देती भी है तो सामर्थ्‍यवान को दिखाई देती है। असमर्थ व्‍यक्‍ति असहाय है। उसकी पीड़ा तक को व्‍यावसायिक या फिर निजी स्‍वार्थों की तराजू में तोलने के बाद महसूस करने का उपक्रम किया जाता है। वह लाभ पहुंचा सकती है तो ठीक अन्‍यथा नक्‍कारखाने में बहुत सी तूतियां समय-समय पर चीखकर स्‍वत: खामोश हो लेती हैं।
जिस न्‍यायपालिका से किसी भी आमजन की अंतिम आस बंधी होती है, वह न्‍यायपालिका खुद इतने बंधनों और किंतु-परंतुओं में उलझती जा रही है कि उसे खुद अब एक दिशा की दरकार है। सवाल बड़ा यह है कि दिग्‍दर्शक को दिशा दिखाए तो दिखाये कौन?
टकराव के हालात मात्र राजनीति तक शेष नहीं रहे, वह उस मुकाम तक जा पहुंचे हैं जहां से पूरी व्‍यवस्‍था के चरमराने का खतरा मंडराने लगा है। न्‍याय के इंतजार में कोई थक-हार कर बैठ जाता है तो कोई हताश होकर वहां टकटकी लगाकर देखने लगता है, जहां कहते हैं कि कोई परमात्‍मा विराजमान है। वास्‍तव का परमात्‍मा। जिसे लोगों ने अपनी सुविधा से अलग-अलग नाम और अलग-अलग काम दे रखे हैं।
कहते हैं वह ऊपर बैठा-बैठा सबको देखता है, सबकी सुनता है लेकिन कब देखता है और कब सुनता है, इसका पता न सुनाने वाले को लगता है और न टकटकी लगाकर देखने वालों को।
हालात तो कुछ ऐसा बयां करते हैं जैसे 21 वीं सदी का आमजन ही ऊपर वाले को देख रहा है। देख रहा है कि वह कब और कैसे महाभारत में कहे गये अपने शब्‍दों को साकार करने आता है।
कहते हैं कि उसे भी निराकार से साकार होने के लिए किसी आकार की जरूरत पड़ती है।
तो क्‍या हमारी व्‍यवस्‍था भी कोई आकार ले रही है। इस बेतुकी व्‍यवस्‍था से ही कोई तुक निकलेगा और वह सबको तृप्‍त करने का उपाय करने में सक्षम होगा?
कुछ पता नहीं…लेकिन डॉ. विष्‍णु विराट सही लिखते हैं कि-
पी गई यह प्यास शोणित की नदी को,
गालियाँ क्या दें व्यवस्था बेतुकी को,
इस तरह की प्यास का कुछ कीजिए
राजा युधिष्ठिर।
यक्ष प्रश्‍नों का जवाब दिए बिना…ठहरे हुए सरोवर से प्‍यास बुझाने के लिए बाध्‍य असहायों को राजा युधिष्‍ठिर कब उत्‍तर देकर पुनर्जीवित करते हैं, यह भी अपने आप में एक यक्ष प्रश्‍न बन चुका है। नई व्‍यवस्‍था के नए राजा युधिष्‍ठिर के लिए नए यक्ष प्रश्‍न।
ऐसे-ऐसे यक्ष प्रश्‍न जिनके उत्‍तर अब शायद इस युग के राजा युधिष्‍ठिर को भी तलाशने पड़ रहे हैं।
इधर यक्ष प्रश्‍नों को भी उत्‍तर का इंतजार है राजा युधिष्‍ठिर!
-सुरेन्‍द्र चतुर्वेदी

मंगलवार, 4 अगस्त 2015

संसद में सियार ?

क्‍या भारतीय संसद में सियार भी घुस आए हैं?
क्‍या सदन में अब सियारों का ऐसा झुण्‍ड सक्रिय है जिसकी आवाज़ के सामने दूसरी सारी आवाजें दबकर रह गई हैं?
लगता तो ऐसा ही है क्‍यों कि संसद भवन से इन दिनों सिर्फ हू-हू की आवाजें आ रही हैं। बाकी आवाजें तो कहीं खो सी गई हैं।
हंगामा क्‍यूं बरपा है, नेताओं के अलावा किसी की समझ में नहीं आ रहा। हंगामे के जो कारण सामने आ रहे हैं, वो बेमानी नजर आते हैं।
कम से कम इतने मायने तो नहीं रखते कि संसद का पूरा सत्र ही हंगामे की भेंट चढ़ा दिया जाए।
बहरहाल, लोकसभा अध्‍यक्ष द्वारा 25 कांग्रेसी सदस्‍यों को 5 दिन के लिए निलंबित कर दिए जाने के बाद अब लगभग यह तय है कि संसद का मानसून सत्र यूं ही हंगामे की भेंट चढ़ने वाला है।
एक अनुमान के अनुसार सत्र के साथ लोकसभा और राज्‍यसभा में चल रहे इस हंगामे की भेंट जनता की गाढ़ी कमाई का करीब 250 करोड़ रुपया भी चढ़ जायेगा। ये वो आंकड़ा है जो संसद की कार्यवाही पर प्रतिघंटे आने वाले खर्च का जोड़ है।
दलगत राजनीति से इतर जो लोग आम आदमी की परिभाषा के दायरे में आते हैं उन्‍हें समझ में नहीं आ रहा कि इस स्‍थिति के लिए दोष किसे दें। भारी बहुमत देकर सत्‍ता पर बैठाई गई भारतीय जनता पार्टी व उसके सहयोगी दलों को अथवा कांग्रेस या कुकरमुत्‍तों की तरह उग आई उन दूसरी पार्टियों को जो दो-दो, चार-चार सदस्‍यों के बल पर विपक्षी दल तो कहलाती ही हैं।
आरोप-प्रत्‍यारोप का हाल यह है कि सत्‍तापक्ष और विपक्ष दोनों संसद बाधित करने के लिए एक-दूसरे को जिम्‍मेदार ठहरा रहे हैं।
कांग्रेस का कुतर्क है- चूंकि यूपीए की सरकार में भाजपा ने संसद नहीं चलने दी थी इसलिए अब हम उसी का अनुसरण करके क्‍या गलत कर रहे हैं। भाजपा कहती है कि तब स्‍थितियां और थीं। हजारों नहीं, लाखों करोड़ रुपए के घोटाले हुए और उनमें कांग्रेसी मंत्रियों की संलिप्‍तता प्रथम दृष्‍ट्या साबित हो रही थी लिहाजा उस स्‍थिति की तुलना आज की स्‍थितियों से किया जाना किसी तरह सही नहीं है।
ललित मोदी को कथित सहयोग के मुद्दे पर सुषमा स्‍वराज और वसुंधरा राजे के ऊपर लगाये जा रहे आरोप बेबुनियाद हैं और इसीलिए कांग्रेस बहस से भाग रही है।
दरअसल पिछले कुछ वर्षों से राजनीतिक दलों ने आरोप-प्रत्‍यारोप की एक नई परंपरा ईजाद की है। इस परंपरा के तहत किया यही जाता है जो आज कांग्रेस कर रही है।
यूपीए की सरकार में हुए घोटालों का जवाब यह कहकर दिया जाता था कि एनडीए की सरकार में भी यह सब हुआ था। बात चाहे लाखों करोड़ के कोयला घोटाले की रही हो अथवा 2जी घोटाले और कॉमनवेल्‍थ गेम्‍स में हुए घोटालों की। घोटालों का जवाब घोटालों से देने की इस नई परंपरा का ही नतीजा है कि आज संसद ठप्‍प है और तमाम बिल लटके पड़े हैं।
उत्‍तर प्रदेश के जनपद गोंडा अंतर्गत गांव परसपुर में जन्‍मे एक क्रांतिकारी कवि हुए हैं जिन्‍हें ‘अदम गोंडवी’ के नाम से जाना जाता है।
अदम गोंडवी का न तो कभी ज्‍योतिष विद्या से कोई संबंध रहा और ना उन्‍होंने कोई भविष्‍यवाणी की, उन्‍होंने तो बस जुबानी जमा खर्च किया। किंतु उनका ये जुबानी जमाखर्च इत्‍तफाखन आज की राजनीति और राजनेताओं पर इतना ज्‍यादा सटीक बैठता है कि लगता है जैसे वह भविष्‍य को बखूबी भांप चुके थे।
देश को स्‍वतंत्रता मिलने के मात्र दो महीने बाद पैदा हुए अदम गोंडवी सन् 2011 तक जीवित रहे परंतु इस बीच उन्‍होंने इतना कुछ कह डाला कि जिसे कहने को शताब्‍दियां भी कम पड़ सकती हैं।
राजनीति और राजनेता उनके निशाने पर हमेशा रहे क्‍योंकि उन्‍होंने एक ऐसा जीवन जिया जो देश के कर्णधारों की कथनी और करनी के भेद को न सिर्फ कदम-कदम पर भुगतता है बल्‍कि उसके बीच बुरी तरह पिसता भी है। वह खुद भुक्‍तभोगी थे इसलिए उनकी तल्‍खी रचनाओं का हिस्‍सा बन जाती थी।
एक जगह उन्‍होंने लिखा है-
कितना प्रतिगामी रहा भोगे हुए क्षण का इतिहास।
त्रासदी, कुंठा, घुटन, संत्रास लेकर क्‍या करें।।
अदम गोंडवी के पास शब्‍द थे किंतु देश की एक बड़ी आबादी नि:शब्‍द है। क्‍या बोले और किससे बोले। उनसे जिन्‍हें पूरा एक दशक दिया शासन चलाने को या उनसे जिन्‍हें ऐतिहासिक बहुमत देकर काबिज कराया यह सोचकर कि शायद अब अच्‍छे दिन देखने को मिल जाएं।
अदम गोंडवी ने सही खाका खींचा था उस भारत मां का जिसे उसकी अपनी औलादें लज्‍जित करने में कोई कसर बाकी नहीं छोड़ रहीं।
उन्‍होंने लिखा था-
मुक्तिकामी चेतना अभ्यर्थना इतिहास की।
यह समझदारों की दुनिया है विरोधाभास की।।
आप कहते हैं इसे जिस देश का स्वर्णिम अतीत।
वो कहानी है महज़ प्रतिरोध की, संत्रास की।।
यक्ष प्रश्नों में उलझ कर रह गई बूढ़ी सदी।
ये परीक्षा की घड़ी है क्या हमारे व्यास की?
भारत माँ की एक तस्वीर मैंने यूँ बनाई है।
बँधी है एक बेबस गाय खूँटे में कसाई के।।
इधर एक दिन की आमदनी का औसत है चवन्नी का।
उधर लाखों में गांधी जी के चेलों की कमाई है।।
हाल ही में पंजाब के गुरदासपुर में आतंकी हमला हुआ। यह न तो कोई पहला हमला था और न इसे आखिरी माना जा सकता है। बावजूद इसके सो-कॉल्‍ड बुद्धिजीवियों का एक बड़ा तबका 1993 के मुंबई बम धमाकों के आरोपी याकूब मेमन की फांसी पर विलाप करता रहा। उसे मृत्‍युदण्‍ड से बचाने का हरसंभव प्रयास करता रहा।
पता नहीं गोंडवी ने कितने दिन पहले लिखा था यह सब कि-
कोई भी सिरफिरा धमका के जब चाहे जिना कर ले।
हमारा मुल्क इस माने में बुधुआ की लुगाई है।।
लेकिन आज भी हालात जस के तस हैं। कोई अंतर नजर नहीं आता। फिर चाहे मसला बाहरी सुरक्षा का हो या आंतरिक सुरक्षा का।
देश में औरतों की इज्‍जत इस कदर सस्‍ती हो गई है कि हर दिन उससे जुड़ी खबरें शीर्ष पर होती हैं। कहा यह जाता है कि अब यह सब बहुत बढ़ गया है परंतु अदम गोंडवी की कविता तो कुछ और कहती है। वह बताती है कि आज बेशक औरतों की इज्‍जत को भी सियासी नफे-नुकसान का हिस्‍सा बना दिया गया हो और इसलिए उस पर भरपूर सियासत की जा रही हो लेकिन हालात इस मामले में भी पहले कोई बहुत अच्‍छे नहीं रहे।
गोंडवी की ये दो लाइनें साफ करती हैं-
आ रही थी वह चली खोई हुई जज्बात में।
क्या पता उसको कि कोई भेड़िया है घात में।।
अदम गोंडवी को दुनिया से कूच किये साढ़े तीन साल हो गए, और कितने ऐसे अदम गोंडवी और कूच कर जायेंगे जो स्‍वतंत्रता के 67 सालों बाद भी सच्‍ची स्‍वतंत्रता का ख्‍वाब मन में संजोए बैठे हैं।
इसी 27 जुलाई को देश के पूर्व राष्‍ट्रपति एपीजे अब्‍दुल कलाम उसी दिन हुए गुरदासपुर आतंकी हमले तथा संसद की कार्यवाही न चलने की चिंता लिए दुनिया छोड़ गए लेकिन न सत्‍तापक्ष ने अपनी जिद छोड़ी न विपक्ष ने। संसद उनके रहते भी ठप्‍प पड़ी थी और उनके जाने के बाद भी ठप्‍प पड़ी है। कहने को राष्‍ट्रीय शोक है किंतु सच तो यह है कि ‘शोक’ मनाने की परंपराएं भी अब ‘शौक’ पूरे करने के काम आती हैं। मानसून सत्र संसद बाधित करने का शौक पूरा करने के काम आ रहा है। जनहित के नाम पर पूरा किये जाने वाले इस शौक से यदि निजी हित साधे जाते हैं तो इसमें कोई बुराई नजर नहीं आती। आखिर जनप्रतिनिधि भी जनहित की आड़ नहीं लेंगे तो कौन लेगा जबकि उन्‍हें तो जनता ने चुना ही इसलिए है।
संविधान की रचना करने वालों ने शायद ही कभी कल्‍पना की हो कि संविधान में दर्ज इबारत की व्‍याख्‍या इस कदर बेहूदे तरीकों से तोड़ी-मरोड़ी जायेगी। इस कदर उसकी छीछालेदर होगी कि मूल आत्‍मा का पता तक लगाना बड़े-बड़े विशेषज्ञों के लिए मुश्‍किल हो जायेगा।
संविधान प्रदत्‍त अधिकारों को तो बढ़ा-चढ़ाकर पेश किया जायेगा किंतु कर्तव्‍यों का कोई जिक्र नहीं होगा।
सांसदों पर की गई छोटी सी टिप्‍पणी को संसद की अवमानना में तब्‍दील कर देने वाले माननीय क्‍या कभी नहीं सोचेंगे कि वो किस कदर संसद की मान-मर्यादा को हर पल तार-तार कर रहे हैं। क्‍या उन्‍हें कभी अपने किये पर लज्‍जा का अनुभव होगा, संभवत: नहीं। ये बात अलग है कि उंगलियों पर गिने जाने लायक कुछ माननीय वर्तमान हालातों से द्रवित हैं और अपना दुख व रोष भी प्रकट करते हैं किंतु इस भीड़तंत्र में उनकी सुनता ही कौन है।
लोकसभा और राज्‍यसभा की तरह ही है विधानसभाओं का भी हाल। ताजा उदाहरण दिल्‍ली विधानसभा का है।
कल की ही बात है। महिला सुरक्षा के मुद्दे पर चर्चा के लिए विधानसभा का विशेष सत्र बुलाया था किंतु इसका उपयोग किया गया केवल पुलिस कमिश्नर और प्रधानमंत्री को गाली देने के लिए।
स्‍थिति का अंदाज इस बात से लगाया जा सकता है कि सत्‍ताधारी आम आदमी पार्टी के ही एक विधायक पंकज पुष्कर को कहना पड़ा कि यह सिर्फ समय और जनता के पैसे की बर्बादी है।
सत्र बुलाने के पीछे सरकार की मंशा महिलाओं की सुरक्षा न होकर राजनीतिक नजर आती है। सरकार में नकारात्मक विचारों को सुनने का धैर्य नहीं है और एक तरह के फ्लोर मैनेजमेंट की प्रवृत्ति पैदा हो गई है।
पंकज पुष्कर तो इतने नाराज हुए कि टी ब्रेक के बाद वह विधानसभा से ही चले गए।
देश के सामने अनगिनित समस्‍याएं हैं। प्रदेशों की सत्‍ता पार्टियों की जगह परिवारों के हाथ में है। आम आदमी को अपनी समस्‍याओं के समाधान की बात तो दूर उन्‍हें सही कानों पहुंचाने का भी कोई उपाय नहीं सूझ रहा। मामूली से मामूली परेशानी के लिए उसे दर-दर भटकना पड़ता है।
राजनीतिक पार्टियां अपनी कई-कई पीढ़ियों का इंतजाम कर रही हैं। कोई गांधी बाबा के नाम पर तिजोरी भर रहा है तो कोई बाबा साहब अंबेडकर के नाम पर। कोई लोहिया की आड़ में जनता को लोहे के चने चबाने पर मजबूर कर रहा है तो कोई दीनदयाल उपाध्‍याय और श्‍यामाप्रसाद मुखर्जी के नाम पर।
अभिव्‍यक्‍ति की स्‍वतंत्रता के हवाले से नेताओं की जुबान इतनी बेलगाम हो चुकी है कि पता ही नहीं चलता कि वो गालियां बक रहे हैं या संसदीय भाषा में गालियों को समाहित कर रहे हैं।
मुझे नहीं पता कि कुत्‍ते जब एक-दूसरे पर भौंकते हैं तो गालियां देते हैं या नहीं। उनके यहां गालियां संसदीय होती हैं या असंसदीय। लेकिन इतना जरूर पता है कि हमारे देश के नेताओं ने अब गालियों को संसदीय दर्जा दे दिया है। चाहे वह अघोषित ही क्‍यों न हो।
ऐसा नहीं होता तो परस्‍पर इतने अधिक अनर्गल प्रलाप के बाद किसी की तो मानहानि हुई होती। किसी को तो बुरा लगता। तमाशबीन बनी जनता को बुरा लगता है किंतु माननीयों को नहीं। आश्‍चर्य होता है।
कई बार ऐसा भी लगता है कि आश्‍चर्य किस बात का, यह सब उस म्‍यूचल अंडरस्‍टेंडिंग का हिस्‍सा है जिसके तहत सत्‍ता हस्‍तांतरण का खेल पूरी शांति के साथ खेला जाता है और जिसे आमजन लोकतंत्र समझता है।
सच तो यह है कि जिसे आमजन लोकतंत्र समझ कर खुद को बहला लेता है, उसकी असलियत कुछ और है। लोकतंत्र को अंग्रेजी में डेमोक्रेसी कहते हैं पर सच यह है कि यहां न डेमोक्रेसी है न ब्‍यूरोक्रेसी, यहां तो सिर्फ हिप्‍पोक्रेसी है। एक ऐसी हिप्‍पोक्रेसी जिसे डेमोक्रेसी और ब्‍यूराक्रेसी मिलकर अंजाम दे रही हैं ताकि जनता का कन्‍फ्यूजन बरकरार रहे।
यहां भी सुकून देता है बाबा अदम गोंडवीं का यह कथन कि-
जनता के पास एक ही चारा है बगावत।
यह बात कह रहा हूँ मैं होशो-हवास में।।
उम्‍मीद है कि अदम गोंडवी की बाकी कविताओं में छिपा सत्‍य जिस प्रकार आज चरितार्थ हो रहा है, उसी तरह यह दो लाइनें भी अंतत: चरितार्थ होंगी।
किसी के भी धैर्य की परीक्षा लेना उचित नहीं होता, फिर ये तो जनता है। जनता जिसे ‘जनार्दन’ की संज्ञा दी जाती है।
करते रहिए संसद बाधित, मत चलने दीजिए विधानसभाओं के सत्र, एक खास समय पर जनता की आंखों में मिर्च झोंक कर सत्‍ता तो हथियाई जा सकती है किंतु उसे हमेशा के लिए अंधा बनाकर रखना नामुमकिन है।
इंतजार कीजिए और देखिए कि आगे-आगे होता है क्‍या।
जनता की बदहाली और बेबसी का तमाशा देखने वाले खुद तमाशा बनकर न रह जाएं। दुनिया बड़ी तेजी से करवट बदल रही है। तमाम देशों के सत्‍ताधारियों का हश्र उसका उदाहरण है, सब्र का बांध जब टूटता है तो सैलाब बन जाता है।
यह बांध सबको बहाकर ले जाए, उससे पहले दो मिनट का मौन संसद में रखकर विचार कर लीजिए कि सवा अरब की आबादी आपके आचरण को देख भी रही है और सुन भी रही है।
आप चाहें तो सवा अरब से खुद को अलग कर लीजिए क्‍यों कि आप तो माननीय हैं। वो माननीय जिन्‍हें न अपने मान की परवाह है और न संसद के अवमान की।
ईश्‍वर आपकी मदद करे।
-सुरेन्‍द्र चतुर्वेदी

रविवार, 26 जुलाई 2015

व्यापम घोटाले के विसलब्लोअर की पत्नी से 10 लाख रुपए बरामद

इंदौर। मध्य प्रदेश के कुख्यात व्यापम घोटाले के विसलब्लोअर प्रशांत पांडेय की पत्नी मेघना से पुलिस ने शनिवार रात 10 लाख रुपए बरामद किए हैं। पुलिस ने मेघना को हिरासत में लेकर पूछताछ की और उनसे कथित तौर पर हवाला की शंका में करीब 10 लाख रुपए जब्त किए।
पांडेय का आरोप है कि उच्चतम न्यायालय द्वारा उनकी याचिका पर व्यापम घोटाले की सीबीआई जांच का आदेश दिए जाने के बाद प्रदेश सरकार उनके परिवार को परेशान कर रही है।
पुलिस अधीक्षक (पूर्वी क्षेत्र) ओपी त्रिपाठी ने बताया कि पुलिस को जवाहरलाल नेहरू स्टेडियम के सामने स्थित निजी फर्म लक्ष्मी मोटर्स के पास हवाला के लेन-देन के बारे में मुखबिर से सूचना मिली थी।
इस सूचना पर पुलिस जब मौके पर पहुंची, तो मेघना पांडेय इस फर्म के दफ्तर से एक बैग लेकर आते दिखाई दीं। मेघना इस निजी फर्म में एचआर मैनेजर के पद पर काम करती हैं।
त्रिपाठी ने बताया कि एक महिला पुलिस अधिकारी ने जब मेघना के कब्जे से मिले बैग की तलाशी ली, तो इसमें नौ लाख 96 हजार रुपए पाए गए।
इस रकम के बारे में मेघना पुलिस को ‘संतोषजनक जवाब’ नहीं दे सकीं और मामला ‘संदिग्ध’ पाया गया लिहाजा यह रकम दंड प्रक्रिया संहिता (सीआरपीसी) की धारा 102 के तहत जब्त कर ली गई और पूछताछ के बाद मेघना को छोड़ दिया गया।
पुलिस अधीक्षक ने बताया कि पुलिस ने मेघना के कब्जे से जब्त संदिग्ध रकम के बारे में आयकर विभाग और अन्य संबंधित महकमों को सूचना दे दी है। मामले में विस्तृत जांच जारी है।
दूसरी ओर व्यापम घोटाले के विसलब्लोअर प्रशांत पांडेय ने आरोप लगाया कि पुलिस ने प्रदेश सरकार के इशारे पर उनकी पत्नी को अवैध तौर पर हिरासत में रखा और उनके परिवार की ‘मेहनत की कमाई के’ 10 लाख रुपए जबरन जब्त कर लिए।
पांडेय ने कहा, ‘उच्चतम न्यायालय द्वारा मेरी याचिका पर व्यापम घोटाले और इससे जुडे़ लोगों की संदिग्ध हालात में मौत के मामलों की सीबीआई जांच का आदेश दिए जाने के बाद प्रदेश सरकार के इशारे पर मेरे परिवार को परेशान किया जा रहा है।’
उन्होंने कहा कि पुलिस ने उनकी पत्नी के कब्जे से करीब 10 लाख रुपए की जो रकम जब्त की, वह उनके परिवार ने अपनी मेहनत की कमाई से पिछले 10 साल के दौरान बचाई थी। उनके परिवार ने इस रकम के बारे में अपने आयकर रिटर्न में भी जानकारी दी थी। पांडे ने कहा, ‘हम किराए के घर में रहते हैं। हमें एक फ्लैट बुक करने के लिए बिल्डर को करीब 10 लाख रुपए देने थे लेकिन इससे पहले ही पुलिस ने अपनी ताकत का दुरुपयोग करते हुए यह रकम मेरी पत्नी के कब्जे से जब्त कर ली।’
-एजेंसी
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