शनिवार, 28 मार्च 2015

उत्‍तर प्रदेश विधान सभा: न पक्ष, न विपक्ष…सिर्फ एक पक्ष और समकक्ष

कल के किसी अखबार में पहले पन्‍ने पर दो कॉलम की एक खबर छपी थी। खबर का मजमून कुल जमा यह था कि उत्‍तर प्रदेश विधान सभा के बजट सत्र का आखिरी दिन ‘माननीयों के नाम रहा।
इस दिन विधान सभा व विधान परिषद् सदस्‍यों के वेतन-भत्‍ते व कूपन बढ़ाने का विधेयक पेश किया गया, जिस पर ‘आश्‍चर्यजनक किंतु सत्‍य’ की तरह समूची विधायिका ने गजब की एकजुटता दिखाते हुए अपनी सहमति प्रदान कर दी लिहाजा पलक झपकते यह विधेयक पास भी हो गया।
”माननीयों” के वेतन-भत्‍ते व कूपनों में हुई इस वृद्धि से सरकारी खजाने पर करीब-करीब 48 करोड़ रुपए का सालाना खर्च और बढ़ जायेगा।
वैसे यह कोई पहला अवसर नहीं है जब माननीयों ने सर्वसम्‍मति से इस तरह अपने वेतन-भत्‍ते बढ़ाये हों, पूर्व में भी हमेशा यही होता रहा है। अपवाद स्‍वरूप कभी किसी माननीय ने इस पर विरोध दर्ज कराया भी है तो उसकी आवाज नक्‍कार खाने में ‘तूती’ ही साबित हुई है।
यूं देखा जाए तो भारतीय राजनीति का यही कड़वा सच है किंतु जाति, धर्म, संप्रदाय का शिकार आमजन इसे स्‍वीकार करने को तैयार नहीं होता। वह दलगत राजनीति की दलदल में इतना नीचे तक धंस चुका है कि उसे सच्‍चाई दिखाई नहीं देती। उसके लिए अपने मां-बाप से अधिक अपनी पार्टी के नेता की अहमियत है। जिन्‍हें अपने परिजनों की जन्‍म व पुण्‍य तिथियां याद नहीं रहतीं, वह अपनी पार्टी के नेता की इन तिथियों पर आयोजन करना कभी नहीं भूलते।
इसे आमजन का दुर्भाग्‍य कहें या राजनेताओं का सौभाग्‍य कि जिस देश में विभिन्‍न कारणों से लगभग हर दिन किसान आत्‍महत्‍या कर रहा है, महिलाएं सुरक्षित नहीं हैं, युवक बेरोजगार हैं, अपराधियों का बोलबाला है, कानून का राज केवल किताबों तक सीमित है, उस देश के सबसे बड़े प्रदेश में माननीयों के वेतन-भत्‍ते बढ़ाने का विधेयक तो बिना किसी विरोध के एक दिन के अंदर पास हो जाता है और जनहित से जुड़े विधेयक दलगत राजनीति की भेंट चढ़ जाते हैं।
उत्‍तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी के युवराज पर भरोसा करके जनता ने उन्‍हें उसी तरह भारी समर्थन देकर सत्‍तारुढ़ कराया था, जिस तरह 2014 के लोकसभा चुनावों में मोदी पर भरोसा करके भाजपा को कराया। अखिलेश सरकार ने अपने तीन साल पूरे कर लिये। अभी दो साल बाकी हैं।
आत्‍ममुग्‍धता की शिकार अखिलेश सरकार और सत्‍ता के नशे में चूर समाजवादी कुनबा शायद यह समझ बैठा है कि यूपी की सत्‍ता पर उनका स्‍थाई कब्‍जा हो चुका है। तभी तो नेता सदन अहमद हसन ने पिछले दिनों हुई बेमौसम बारिश व ओलावृष्‍टि से बर्बाद फसल को देखकर किसानों की आत्‍महत्‍या पर कहा था कि प्रदेश में एक भी किसान ने आत्‍महत्‍या नहीं की, उनकी मौत तो प्राकृतिक आपदा के चलते हुई है।
कुछ ऐसा ही मुगालता संभवत: भाजपा, बसपा और दूसरे दलों को है कि समाजवादी पार्टी से ऊब चुकी जनता के पास 2017 के विधानसभा चुनावों में उनके अलावा कोई विकल्‍प नहीं है।
वर्तमान राजनीतिक परिस्‍थितियों पर दृष्‍टि डालें तो उनका मुगालता एक बार को सही प्रतीत होता है परंतु हकीकत कुछ और भी है। अब जनता अपने शासकों के हर कर्म व कुकर्म पर पैनी नजर गढ़ाये रहती है और सही वक्‍त का इंतजार करती है। लोकसभा चुनावों से पहले उसने कांग्रेस के नेतृत्‍व वाली यूपीए सरकार को खूब सहा और दिल्‍ली में चुनावों से पूर्व भी उसने अपने भाव प्रकट नहीं होने दिये। अब बारी उत्‍तर प्रदेश की है। देश के एक ऐसे सूबे की जिसने अब तक सर्वाधिक प्रधानमंत्री दिये हैं। जिसने देश की राजनीति की दिशा व दशा दोनों को तय करने में हमेशा महत्‍वपूर्ण भूमिका निभाई है।
बजट सत्र के आखिरी दिन ‘माननीयों’ के वेतन-भत्‍ते बढ़ाने को जो विधायकी खेल खेला गया, उससे समाजवादी पार्टी को कोई नुकसान शायद ही पहुंचे क्‍योंकि वह अपना जितना तथा जो कुछ नुकसान अपने ही हाथों कर सकती थी वह कर चुकी है और उसकी भरपाई करने का वक्‍त भी निकल चुका है लेकिन 2017 में सत्‍तारूढ़ होने का ख्‍वाब देख रहीं भाजपा एवं बसपा जैसी पार्टियों के लिए यह खेल भारी पड़ सकता है।
सामान्‍य तौर पर सांप और नेवले की भांति हर वक्‍त एक दूसरे को पटखनी देने की जुगत में लगे दिखाई देने वाले और सदन के अंदर सारी मान-मर्यादाओं को ताक पर रखकर लड़ने-झगड़ने वाले, बात-बात पर सदन को बाधित करने तथा उसके लिए नियम-कानूनों की धज्‍जियां उड़ाने वाले माननीय जब अपने वेतन-भत्‍तों पर चोर-चोर मौसेरे भाई की कहावत को चरितार्थ करते दिखाई देते हों तो जनता का सोचने पर मजबूर होना स्‍वाभाविक है।
इस सबके बीच इस सारे घटनाक्रम पर सिर्फ राज्‍यपाल रामनाइक का आपत्‍ति दर्ज कराना गौरतलब है। माना कि वह भारतीय जनता पार्टी से ही ताल्‍लुक रखते हैं किंतु उनकी आपत्‍ति पद की गरिमा के अनुकूल तथा भाजपा के प्रतिकूल कही जा सकती है। भाजपा के प्रतिकूल इसलिए क्‍योंकि भाजपा के माननीय भी विधेयक पास कराने वालों में शामिल थे।
हो सकता है कि रामनाइक को व्‍यक्‍तिगत स्‍तर पर माननीयों की यह करतूत नागवार गुजरी हो परंतु राज्‍यपाल जिस तरह अब इस देश में मात्र एक पद नाम रह गया है, उससे ऐसा लगता है कि इससे अधिक महामहिम राज्‍यपाल और कुछ कर भी नहीं सकते थे।
जनहित में कोई क्रांतिकारी कदम उठाने की अपेक्षा तो अब किसी से भी करना, अपनी अक्‍ल पर प्रश्‍नचिन्‍ह लगवाने के समान है। फिर रामनाइक ऐसा कोई कदम कैसे उठा सकते हैं, आखिर अंग्रेजों से विरासत में मिली व्‍यवस्‍था का सुख उम्र के इस पड़ाव पर मिलना कुछ तो अहमियत रखता ही है। ताजिंदगी न सही, जब तक मोदी सरकार है तब तक ही सही। सूबे के महामहिम का तमगा यूं ही नहीं छोड़ा जाता।
-सुरेन्‍द्र चतुर्वेदी

शुक्रवार, 13 मार्च 2015

न्‍यूज़ चैनल्‍स का ‘पैनल′ पॉल्‍यूशन’

”न भूतो, न भविष्‍यति” (जो न पहले कभी हुआ, न आगे कभी होगा) की तर्ज पर मीडिया (विशेष रूप से इलैक्‍ट्रॉनिक मीडिया) ”आम आदमी पार्टी” (आप) को लेकर समाचारों तथा पैनल डिस्‍कशन का प्रसारण कर रहा है, उसे देख और सुनकर ऐसा लगता है जैसे देश की सारी समस्‍याएं सिमटकर ”आप” तक सीमित रह गई हों।
विभिन्‍न समाचार चैनल्‍स ”आप” के अंदर उपजी फूट पर न केवल खुद अनर्गल प्रलाप कर रहे हैं बल्‍कि ऐसे-ऐसे तत्‍वों को भी अनर्गल प्रलाप करने का अवसर दे रहे हैं जिनका स्‍तर किसी गली-मोहल्‍ले की समस्‍या सुलझाने में सहायक नहीं हो सकता। यह भी कह सकते हैं कि उनका किसी समस्‍या के समाधान से दूर-दूर तक कोई वास्‍ता ही नहीं होता, अलबत्‍ता वह स्‍वयं में समस्‍या जरूर होते हैं।
कुछ समाचार चैनल्‍स ने तो इसके लिए अपने मेहमान बाकायदा मुकर्रर किये हुए हैं। इन चैनल्‍स ने हर समस्‍या पर बोलने का इन्‍हें जैसे कॉपी राइट दे रखा हो अथवा उनके लिए पेटेंट हासिल कर लिया हो। बिना यह सोचे-समझे कि उनके इस तथाकथित डिस्‍कशन से उनके दर्शक किस कदर परेशान हैं। उन्‍हें समझ में नहीं आता कि बहस रूपी इस मानसिक प्रदूषण से छुटकारा पाया जाए तो कैसे?
हद तो तब हो जाती है जब टीवी का एंकर किसी कथित बुद्धिजीवी से पूछता कुछ है लेकिन वह जवाब वही देता है, जो देना चाहता है। जिसे वह रट कर आया है अथवा शब्‍दों के दोहराव के कारण उसे रट गया है।
चूंकि इस तथाकथित डिस्‍कशन में विरोधी पार्टियों सहित संबंधित पार्टी का भी कोई न कोई नुमाइंदा जरूर शामिल किया जाता है इसलिए बहस को सास-बहू की तू-तू मैं-मैं बनते देर नहीं लगती।
कल तक जो आम आदमी पार्टी खुद को खास बताते नहीं थकती थी और उसके पदाधिकारी कांग्रेस, भाजपा, सपा, बसपा या देश की तमाम दूसरी पार्टियों से खुद की तुलना तक करना गवारा नहीं करते थे, आज वही अपने अंदर से उठ रही सड़ांध को ढकने का प्रयास उन्‍हीं पार्टियों से तुलना करके दे रहे हैं।
आश्‍चर्य की बात यह है कि कोई टीवी प्रस्‍तोता इनसे यह नहीं पूछता, कि अरे भाई…उनके कर्मों का लेखा-जोखा गिनाने से आप दूध के धुले किस तरह साबित हो सकते हैं?
भाजपा ने अपराधियों को टिकट बांटे, कांग्रेस ने गुण्‍डे मवालियों को नेता बना दिया, सपा और बसपा में अपराधियों का बोलबाला है…अगर यह बातें मान भी ली जाएं तो इससे आपको वैसे ही (कु) कर्म करने का अधिकार प्राप्‍त हो जाता है क्‍या?
आप अपने नेताओं प्रशांत भूषण, योगेन्‍द्र यादव, अंजलि दमानिया, राजेश गर्ग, इरफान उल्‍ला खान सहित पार्टी के संरक्षक शांति भूषण द्वारा लगाये गये आरोपों का जवाब देने की बजाय हर बहस को दूसरी ओर क्‍यों मोड़ ले जाते हो?
क्‍या कोई आरोपी यह दलील देकर खुद को आरोपमुक्‍त करा सकता है कि आरोप लगाने वाले पर इसी तरह के कई आरोप पहले से चस्‍पा हैं…अथवा जिस तरह के आरोप हम पर लगाये जा रहे हैं, वैसे आरोप तो लाखों-करोड़ों लोगों पर हर दिन लगते हैं लिहाजा पहले उनसे सफाई मांगी जाए, उसके बाद हम अपनी सफाई देंगे।
बुद्धि का दिवाला निकाल कर बैठने वालों और उन्‍हें उसका खुलेआम अवसर देने वालों से मैं यह पूछना चाहता हूं कि आपको देशभर में यह डिस्‍कशन प्रदूषण फैलाने का अधिकार किसने दे दिया?
जिन दर्शकों के दम पर टीआरपी का खेल खेलकर सारे चैनल्‍स खुद को सर्वोपरि साबित करते रहते हैं, क्‍या उनसे कभी किसी चैनल ने यह जानने की कोशिश की कि आखिर वह क्‍या देखना चाहता है और क्‍या सुनना उसे पसंद है।
चैनल्‍स के लिए क्‍या दिल्‍ली के अंदर पापी पेट की खातिर बंदरिया का नाच दिखाने वाला ही सब-कुछ होता है, दिल्‍ली के बाहर की दुनिया हिंदुस्‍तान का हिस्‍सा नहीं है।
टीआरपी की दौड़ और उसके लिए किये जाने वाले खेल की खातिर दिल्‍ली तक सिमट कर बैठे इलैक्‍ट्रॉनिक चैनल्‍स में से कोई बतायेगा कि दिल्‍ली के बाहर जिस पार्टी को हाल के लोकसभा चुनावों में कोई पूछने वाला तक पैदा नहीं हुआ, उसे लेकर वह हर रोज ”स्‍यापा” आयोजित किसलिए करते हैं?
राजस्‍थान की रुदालियों की तरह क्‍यों लगभग सभी चैनल्‍स ने अपने-अपने लिए किराये के कथित बुद्धिजीवी एकत्र कर रखे हैं?
क्‍यों कभी इस बहस में किन्‍हीं ऐसे लोगों को शामिल नहीं करते जिनका संबंध आम जनमानस से हो, जो बता सकें कि सत्‍ता के भूखे इन भेड़ियों से इतर भी एक दुनिया है और उस दुनिया के लोग उनके बारे में क्‍या सोचते हैं।
जनता के साथ यह कैसा मजाक है कि उसे किस्‍म-किस्‍म के बहुरूपियों को हर रोज केवल इसलिए झेलना पड़ता है क्‍योंकि वह टीवी चैनल्‍स के ”खास मेहमान” होते हैं।
आम आदमियों से भरे इस देश में ‘खास मेहमानों’ के बिना क्‍या टीवी चैनल्‍स की दुकान भी नहीं चल सकती जबकि समाचार जगत तो हमेशा से आम आदमी की दुनिया से सरोकार रखने का दावा करता रहा है।
यदि यही हाल रहा तो वह दिन दूर नहीं जब समाचारों के प्रसारण का यह माध्‍यम पूरी तरह महत्‍वहीन होकर रह जायेगा और इसकी भी कुगति वैसी ही होगी जैसी आज किसी भी राजनीतिक दल की है। बेशक लोग मजबूरी में उसे ढोते जरूर हैं किंतु सम्‍मान कोई नहीं करता। आम आदमी पार्टी के खास चेहरे चाहे कहें कुछ भी, किंतु चेहरे का नकाब उतर चुका है। उन्‍होंने भी सत्‍ता धोखे से ही हथियाई है, इसका खुलासा हो गया है।
यकीन न हो तो एक जेनुइन सर्वे उस दिल्‍ली की जनता के बीच जाकर करवा लीजिए जिसने चंद रोज पहले 70 में से 67 सीटों पर जीत दिलवाकर अरविंद केजरीवाल को मुख्‍यमंत्री का ताज सौंपा था।
तय मानिये कि दिल्‍ली की जनता आज खुद को ठगा हुआ महसूस कर रही होगी…और कोस रही होगी उस दिन को जिसे उसने अपने लिए परिवर्तन का अवसर मानकर आप जैसी फूहड़ पार्टी के पक्ष में भारी मतदान किया।
उसे अफसोस होगा कि उन्‍होंने क्‍यों अरविंद केजरीवाल पर भरोसा कर लिया। जो शख्‍स अपने साथियों तक का भरोसा बनाये रखने में सफल नहीं हो पाया, वह जनता के भरोसे पर क्‍या खरा साबित होगा।
-सुरेन्‍द्र चतुर्वेदी
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