बुधवार, 26 अगस्त 2015

मथुरा की कानून-व्‍यवस्‍था भी ”समाजवादी”

यूं तो समूचे सूबे में कानून-व्‍यवस्‍था की बदहाली के उदाहरण हर रोज सामने आते हैं लेकिन यदि बात करें सिर्फ विश्‍व विख्‍यात धार्मिक जनपद मथुरा की तो ऐसा लगता है कि यहां कानून-व्‍यवस्‍था भी ”समाजवादी” हो गई है।मसलन…जाकी रही भावना जैसी। जिसे अच्‍छी समझनी हो, वो अच्‍छी समझ ले और जिसे बदहाल समझनी हो, वो बदहाल समझ ले। इस मामले में अभिव्‍यक्‍ति की पूरी स्‍वतंत्रता है।
वैसे आम आदमी जो न समाजवादी है और न बहुजन समाजी है, न कांग्रेसी है और न भाजपायी है, न रालोद का वोटर है और न वामपंथी है…उसके अनुसार यहां कानून-व्‍यवस्‍था अब केवल एक ऐसा मुहावरा है जिसका इस्‍तेमाल अधिकारीगण अपनी सुविधा अनुसार करते रहते हैं।
कृष्‍ण की जन्‍मस्‍थली में तैनात होने वाले अधिकारियों को यह सुविधा स्‍वत: सुलभ हो जाती है क्‍योंकि यहां नेता और पत्रकार केवल दर्शनीय हुंडी की तरह हैं। अधिकांश नेता और पत्रकारों का मूल कर्म दलाली और मूल धर्म चापलूसी बन चुका है।
चोरी, डकैती, हत्‍या, लूट, बलात्‍कार, बलवा जैसे तमाम अपराध हर दिन होने के बावजूद मथुरा के नेता और पत्रकार अपने मूल कर्म व मूल धर्म को निभाना नहीं भूलते।
कहने को यहां सत्‍ताधारी समाजवादी पार्टी की एक जिला इकाई भी है और उसके पदाधिकारी भी हैं लेकिन उनका कानून-व्‍यवस्‍था से दूर-दूर तक कोई सरोकार नहीं।
दरअसल वो कन्‍फ्यूज हैं कि कानून-व्‍यवस्‍था के मामले में किसकी परिभाषा को उचित मानकर चलें।
जैसे प्रदेश पुलिस के मुखिया कहते हैं कि कानून-व्‍यवस्‍था नि:संदेह संतोषजनक नहीं है। पार्टी के मुखिया का भी यही मत है। वो कहते हैं कि यदि आज की तारीख में चुनाव हो जाएं तो पार्टी निश्‍चित हार जायेगी। उनके लघु भ्राता प्रोफेसर रामगोपाल की मानें तो स्‍थिति इतनी बुरी भी नहीं है जितनी प्रचारित की जा रही है। जबकि ”लिखा-पढ़ी” में मुख्‍यमंत्री पद संभाले बैठे अखिलेश यादव का कहना है कि उत्‍तर प्रदेश की कानून-व्‍यवस्‍था उत्‍तम है और यहां का पुलिस-प्रशासन बहुत अच्‍छा काम कर रहा है। दूसरे राज्‍यों से तो बहुत ही बेहतर परफॉरमेंस है उसकी।
ऐसे में किसकी परिभाषा को सही माना जाए और किसे गलत साबित किया जाए, यह एक बड़ी समस्‍या है।
मथुरा में एक पूर्व मंत्री के घर चोरी होती है तो कहा जाता है कि सुरक्षा बढ़वाने के लिए ऐसा प्रचार किया गया है। व्‍यापारी के यहां डकैती पड़ती है तो बता दिया जाता है कि पुराने परिचित ने डाली है। समय मिलने दो, पकड़ भी लेंगे। हाईवे पर वारदात होती है तो अगली वारदात का इंतजार इसलिए करना पड़ता है जिससे पता लग सके कि अपराधियों की कार्यप्रणाली है क्‍या। वो हरियाणा से आये थे या राजस्‍थान से। यह भी संभव है कि उनका राष्‍ट्रीय राजधानी क्षेत्र से सीधा कनैक्‍शन हो।
हां, इस बीच कुछ उचक्‍के टाइप के बदमाश पकड़ कर गुड वर्क कर लिया जाता है जिसे स्‍थानीय मीडिया पूरा कवरेज देकर साबित कर देता है कि मथुरा का पुलिस-प्रशासन निठल्‍ला चिंतन नहीं कर रहा। साथ में काम भी कर रहा है। एक्‍टिव है।
थोड़े ही दिन पहले की बात है जब मथुरा पुलिस की स्‍वाट टीम का बड़ा कारनामा जाहिर हुआ। बिना काम किए वैसा कारनामा कर पाना संभव था क्‍या।
स्‍वाट टीम के कारनामे ने साबित कर दिया कि वह दिन-रात काम कर रही है। यह बात अलग है कि वह काम किसके लिए और क्‍यों कर रही है। इस बात का जवाब देना न स्‍वाट टीम के लिए जरूरी है और न उनके लिए जिनके मातहत वह काम करती है। जांच चल रही है…नतीजा निकलेगा तो बता दिया जायेगा। नहीं निकला तो आगे देखा जायेगा।
आज यहां एसएसपी डॉ. राकेश सिंह हैं, इनसे पहले मंजिल सैनी थीं। उनसे भी पहले नितिन तिवारी थे। अधिकारी आते-जाते रहते हैं, कानून-व्‍यवस्‍था जस की तस रहती है। अधिकारी अस्‍थाई हैं, कानून-व्‍यवस्‍था स्‍थाई है।
मथुरा में हर अधिकारी सेवाभाव के साथ आता है। कृष्‍ण की पावन जन्‍मभूमि पर मिली तैनाती से वह धन्‍य हो जाता है। उसे समस्‍त ब्रजवासियों और ब्रजभूमि में आने वाले लोगों के अंदर कृष्‍णावतार दिखाई देने लगता है।
कृष्‍णावतार पर कानून का उपयोग करके वह इहिलोक और परलोक नहीं बिगाड़ना चाहता। बकौल मुलायम सिंह कृष्‍ण भी तो समाजवादी थे। यादव थे…इसका मतलब समाजवादी थे।
यहां कहा भी जाता है कि सभी भूमि गोपाल की। जब सब गोपाल का है तो गोपालाओं का क्‍या दोष। वह तो समाजवादी कानून के हिसाब से ही चलेंगे ना।
कृष्‍ण की भूमि पर तैनाती पाकर उसकी भक्‍ति में लीन अधिकारी इस सत्‍य से वाकिफ हो जाते हैं कि एक होता है कानून…और एक होता है समाजवादी कानून।
समाजवादी कानून सबको बराबरी का दर्जा देता है। लुटने वाले को भी और लूटने वाले को भी। पिटने वाले को भी और पीटने वाले को भी।
कागजी घोड़े सदा दौड़ते रहे हैं और सदा दौड़ते रहेंगे। बाकी अदालतें हैं न। वो भी तो देखेंगी कि कानून क्‍या है और व्‍यवस्‍था क्‍या है। कानून समाजवादी है और व्‍यवस्‍था मुलायमवादी है। चार लोग रेप नहीं कर सकते, इस सत्‍य से पर्दा हर कोई नहीं उठा सकता। पता नहीं ये गैंगरेप जैसा घिनौना शब्‍द किस मूर्ख ने ईजाद किया और किसने कानून का जामा पहना दिया।
उत्‍तर प्रदेश ऐसे कानून को स्‍वीकार नहीं करता। नेताजी को रेप स्‍वीकार है, रेपिस्‍ट स्‍वीकार हैं…गलती हो जाती है किंतु गैंगरेप स्‍वीकार नहीं क्‍योंकि वह गलती से भी नहीं किया जा सकता। संभव ही नहीं है।
ठीक उसी तरह जैसे कानून-व्‍यवस्‍था की बदहाली संभव नहीं है। वह कुछ गैर समाजवादी विरोधी दलों के दिमाग की उपज है। उनके द्वारा किया जाने वाला दुष्‍प्रचार है।
कानून-व्‍यवस्‍था कैसे बदहाल हो सकती है। वो बदहाल कर तो सकती है, खुद बदहाल हो नहीं सकती।
-लीजेंड न्‍यूज़

शनिवार, 8 अगस्त 2015

यक्ष प्रश्‍नों का भी कुछ कीजिए राजा युधिष्‍ठिर!

यक्ष प्रश्नों का जहाँ पहरा कड़ा हो,
जिस सरोवर के किनारे
भय खड़ा हो,
उस जलाशय का न पानी पीजिए
राजा युधिष्ठिर।
बंद पानी में
बड़ा आक्रोश होता,
पी अगर ले, आदमी बेहोश होता,
प्यास आख़िर प्यास है, सह लीजिए,
राजा युधिष्ठिर।
जो विकारी वासनाएँ कस न पाए,
मुश्किलों में
जो कभी भी हँस न पाए,
कामनाओं को तिलांजलि दीजिए
राजा युधिष्ठिर।
प्यास जब सातों समंदर
लांघ जाए,
यक्ष किन्नर देव नर सबको हराए,
का-पुरुष बन कर जिए
तो क्या जिए?
राजा युधिष्ठिर।
पी गई यह प्यास शोणित की नदी को,
गालियाँ क्या दें व्यवस्था बेतुकी को,
इस तरह की प्यास का कुछ कीजिए
राजा युधिष्ठिर।

मथुरा में जन्‍मे और इसी वर्ष 11 फरवरी 2015 को ‘नि:शब्‍द’ हुए डा. विष्‍णु विराट ने यह कविता पता नहीं कब लिखी थी और किस उद्देश्‍य के साथ लिखी थी, यह तो कहना मुश्‍किल है अलबत्‍ता इत्‍तिफाक देखिए कि वर्तमान दौर में उनकी यह कविता व्‍यवस्‍था पर किस कदर गहरी चोट करती है जैसे लगता है कि भविष्‍य को वह अपनी मृत्‍यु से पहले ही रेखांकित कर गये हों।

धर्मराज युधिष्‍ठिर को केंद्र में रखकर लिखी गई इस कविता की तरह आज हमारा देश भी तमाम यक्ष प्रश्‍नों के पहरे में घुटकर रह गया है। स्‍वतंत्रता पाने के 67 सालों बाद भी आमजन भयभीत है। वह डरा हुआ है न केवल खुद को लेकर बल्‍कि देश के भी भविष्‍य को लेकर क्‍योंकि देश का भविष्‍य स्‍वर्णिम दिखाई देगा तभी तो उसका अपना भविष्‍य उज्‍ज्‍वल नजर आयेगा।
अभी तो हाल यह है कि सत्‍ताएं बदलती हैं। सत्‍ताओं के साथ कुछ चेहरे भी बदलते हैं लेकिन नहीं बदलती तो वो व्‍यवस्‍था जिसकी उम्‍मीद में चुनाव दर चुनाव आम आदमी अपने मताधिकार का इस्‍तेमाल करता है।
इसमें कोई दो राय नहीं कि चुप्‍पी चाहे सत्‍ता के शिखर पर बैठे लोगों की हो या फिर जमीन से चिपके हुए आमजन की, होती बहुत महत्‍वपूर्ण है। हर तूफान से पहले प्रकृति शायद इसीलिए खामोशी ओढ़ लेती है।
2014 में हुए लोकसभा चुनावों के बाद आज जिस तरह की खामोशी समूचे राजनीतिक वातावरण में व्‍याप्‍त है, वह भयावह है। भयावह इसलिए कि ऊपरी तौर पर भरपूर कोलाहल सुनाई पड़ रहा है, संसद का मानसून सत्र हंगामे की भेंट चढ़ने जा रहा है। शीतकालीन सत्र पर भी अभी से आशंकाओं के बादल मंडराने लगे हैं किंतु सारे कोलाहल और हंगामे के बीच कहीं से कोई उत्‍तर नहीं मिल रहा। कोई समाधान नहीं सूझ रहा लिहाजा देश जैसे ठहर गया है। अगर कोई चाप सुनाई भी देती है तो सिर्फ रेंगने की, उसमें कहीं कोई गति नहीं है। सिर्फ दुर्गति है।
आमजन खुद को हर बार ठगा हुआ और अभिशप्‍त पाता है। उसे समझ में नहीं आता कि राजनीतिक कुतर्कों के बीच वह अपने तर्क किसके सामने रखे और कैसे व कब रखे। जिस वोट की ताकत पर वह सत्‍ता बदलने का माद्दा रखता है, वह ताकत भी बेमानी तथा निरर्थक प्रतीत होती है।
आमजन अब भी भूखा है, अब भी प्‍यासा है लेकिन राजनीति व राजनेताओं की भूख और प्‍यास हवस में तब्‍दील हो चुकी है। नीति व नैतिकता केवल किताबी शब्‍द बनकर रह गए हैं।
अब कोई राजा युधिष्‍ठिर अपनी कामनाओं, अपनी वासनाओं को तिलांजलि देने के लिए तैयार ही नहीं है। लगता है कि 21 वीं सदी में किसी और महाभारत की पटकथा तैयार हो रही है।
राजनेताओं की प्‍यास सातों समंदर लांघ रही है। यक्ष, किन्नर, देव, नर सबको हरा रही है। का-पुरुष बनकर जीने से किसी को परहेज नहीं रहा। आमजन की उम्‍मीद के सारे स्‍त्रोत सूखते दिखाई देते हैं। कहने को लोकतंत्र है परंतु आमजन जितना परतंत्र 67 साल पहले था, उतना ही परतंत्र आज भी है। व्‍यवस्‍था के तीनों संवैधानिक स्‍तंभ विधायिका, न्‍यायपालिका तथा कार्यपालिका…और कथित चौथा स्‍तंभ पत्रकारिता भी किसी अंधी सुरंग में तब्‍दील हो चुके हैं। यहां रौशनी की कोई किरण कभी दिखाई देती भी है तो सामर्थ्‍यवान को दिखाई देती है। असमर्थ व्‍यक्‍ति असहाय है। उसकी पीड़ा तक को व्‍यावसायिक या फिर निजी स्‍वार्थों की तराजू में तोलने के बाद महसूस करने का उपक्रम किया जाता है। वह लाभ पहुंचा सकती है तो ठीक अन्‍यथा नक्‍कारखाने में बहुत सी तूतियां समय-समय पर चीखकर स्‍वत: खामोश हो लेती हैं।
जिस न्‍यायपालिका से किसी भी आमजन की अंतिम आस बंधी होती है, वह न्‍यायपालिका खुद इतने बंधनों और किंतु-परंतुओं में उलझती जा रही है कि उसे खुद अब एक दिशा की दरकार है। सवाल बड़ा यह है कि दिग्‍दर्शक को दिशा दिखाए तो दिखाये कौन?
टकराव के हालात मात्र राजनीति तक शेष नहीं रहे, वह उस मुकाम तक जा पहुंचे हैं जहां से पूरी व्‍यवस्‍था के चरमराने का खतरा मंडराने लगा है। न्‍याय के इंतजार में कोई थक-हार कर बैठ जाता है तो कोई हताश होकर वहां टकटकी लगाकर देखने लगता है, जहां कहते हैं कि कोई परमात्‍मा विराजमान है। वास्‍तव का परमात्‍मा। जिसे लोगों ने अपनी सुविधा से अलग-अलग नाम और अलग-अलग काम दे रखे हैं।
कहते हैं वह ऊपर बैठा-बैठा सबको देखता है, सबकी सुनता है लेकिन कब देखता है और कब सुनता है, इसका पता न सुनाने वाले को लगता है और न टकटकी लगाकर देखने वालों को।
हालात तो कुछ ऐसा बयां करते हैं जैसे 21 वीं सदी का आमजन ही ऊपर वाले को देख रहा है। देख रहा है कि वह कब और कैसे महाभारत में कहे गये अपने शब्‍दों को साकार करने आता है।
कहते हैं कि उसे भी निराकार से साकार होने के लिए किसी आकार की जरूरत पड़ती है।
तो क्‍या हमारी व्‍यवस्‍था भी कोई आकार ले रही है। इस बेतुकी व्‍यवस्‍था से ही कोई तुक निकलेगा और वह सबको तृप्‍त करने का उपाय करने में सक्षम होगा?
कुछ पता नहीं…लेकिन डॉ. विष्‍णु विराट सही लिखते हैं कि-
पी गई यह प्यास शोणित की नदी को,
गालियाँ क्या दें व्यवस्था बेतुकी को,
इस तरह की प्यास का कुछ कीजिए
राजा युधिष्ठिर।
यक्ष प्रश्‍नों का जवाब दिए बिना…ठहरे हुए सरोवर से प्‍यास बुझाने के लिए बाध्‍य असहायों को राजा युधिष्‍ठिर कब उत्‍तर देकर पुनर्जीवित करते हैं, यह भी अपने आप में एक यक्ष प्रश्‍न बन चुका है। नई व्‍यवस्‍था के नए राजा युधिष्‍ठिर के लिए नए यक्ष प्रश्‍न।
ऐसे-ऐसे यक्ष प्रश्‍न जिनके उत्‍तर अब शायद इस युग के राजा युधिष्‍ठिर को भी तलाशने पड़ रहे हैं।
इधर यक्ष प्रश्‍नों को भी उत्‍तर का इंतजार है राजा युधिष्‍ठिर!
-सुरेन्‍द्र चतुर्वेदी

मंगलवार, 4 अगस्त 2015

संसद में सियार ?

क्‍या भारतीय संसद में सियार भी घुस आए हैं?
क्‍या सदन में अब सियारों का ऐसा झुण्‍ड सक्रिय है जिसकी आवाज़ के सामने दूसरी सारी आवाजें दबकर रह गई हैं?
लगता तो ऐसा ही है क्‍यों कि संसद भवन से इन दिनों सिर्फ हू-हू की आवाजें आ रही हैं। बाकी आवाजें तो कहीं खो सी गई हैं।
हंगामा क्‍यूं बरपा है, नेताओं के अलावा किसी की समझ में नहीं आ रहा। हंगामे के जो कारण सामने आ रहे हैं, वो बेमानी नजर आते हैं।
कम से कम इतने मायने तो नहीं रखते कि संसद का पूरा सत्र ही हंगामे की भेंट चढ़ा दिया जाए।
बहरहाल, लोकसभा अध्‍यक्ष द्वारा 25 कांग्रेसी सदस्‍यों को 5 दिन के लिए निलंबित कर दिए जाने के बाद अब लगभग यह तय है कि संसद का मानसून सत्र यूं ही हंगामे की भेंट चढ़ने वाला है।
एक अनुमान के अनुसार सत्र के साथ लोकसभा और राज्‍यसभा में चल रहे इस हंगामे की भेंट जनता की गाढ़ी कमाई का करीब 250 करोड़ रुपया भी चढ़ जायेगा। ये वो आंकड़ा है जो संसद की कार्यवाही पर प्रतिघंटे आने वाले खर्च का जोड़ है।
दलगत राजनीति से इतर जो लोग आम आदमी की परिभाषा के दायरे में आते हैं उन्‍हें समझ में नहीं आ रहा कि इस स्‍थिति के लिए दोष किसे दें। भारी बहुमत देकर सत्‍ता पर बैठाई गई भारतीय जनता पार्टी व उसके सहयोगी दलों को अथवा कांग्रेस या कुकरमुत्‍तों की तरह उग आई उन दूसरी पार्टियों को जो दो-दो, चार-चार सदस्‍यों के बल पर विपक्षी दल तो कहलाती ही हैं।
आरोप-प्रत्‍यारोप का हाल यह है कि सत्‍तापक्ष और विपक्ष दोनों संसद बाधित करने के लिए एक-दूसरे को जिम्‍मेदार ठहरा रहे हैं।
कांग्रेस का कुतर्क है- चूंकि यूपीए की सरकार में भाजपा ने संसद नहीं चलने दी थी इसलिए अब हम उसी का अनुसरण करके क्‍या गलत कर रहे हैं। भाजपा कहती है कि तब स्‍थितियां और थीं। हजारों नहीं, लाखों करोड़ रुपए के घोटाले हुए और उनमें कांग्रेसी मंत्रियों की संलिप्‍तता प्रथम दृष्‍ट्या साबित हो रही थी लिहाजा उस स्‍थिति की तुलना आज की स्‍थितियों से किया जाना किसी तरह सही नहीं है।
ललित मोदी को कथित सहयोग के मुद्दे पर सुषमा स्‍वराज और वसुंधरा राजे के ऊपर लगाये जा रहे आरोप बेबुनियाद हैं और इसीलिए कांग्रेस बहस से भाग रही है।
दरअसल पिछले कुछ वर्षों से राजनीतिक दलों ने आरोप-प्रत्‍यारोप की एक नई परंपरा ईजाद की है। इस परंपरा के तहत किया यही जाता है जो आज कांग्रेस कर रही है।
यूपीए की सरकार में हुए घोटालों का जवाब यह कहकर दिया जाता था कि एनडीए की सरकार में भी यह सब हुआ था। बात चाहे लाखों करोड़ के कोयला घोटाले की रही हो अथवा 2जी घोटाले और कॉमनवेल्‍थ गेम्‍स में हुए घोटालों की। घोटालों का जवाब घोटालों से देने की इस नई परंपरा का ही नतीजा है कि आज संसद ठप्‍प है और तमाम बिल लटके पड़े हैं।
उत्‍तर प्रदेश के जनपद गोंडा अंतर्गत गांव परसपुर में जन्‍मे एक क्रांतिकारी कवि हुए हैं जिन्‍हें ‘अदम गोंडवी’ के नाम से जाना जाता है।
अदम गोंडवी का न तो कभी ज्‍योतिष विद्या से कोई संबंध रहा और ना उन्‍होंने कोई भविष्‍यवाणी की, उन्‍होंने तो बस जुबानी जमा खर्च किया। किंतु उनका ये जुबानी जमाखर्च इत्‍तफाखन आज की राजनीति और राजनेताओं पर इतना ज्‍यादा सटीक बैठता है कि लगता है जैसे वह भविष्‍य को बखूबी भांप चुके थे।
देश को स्‍वतंत्रता मिलने के मात्र दो महीने बाद पैदा हुए अदम गोंडवी सन् 2011 तक जीवित रहे परंतु इस बीच उन्‍होंने इतना कुछ कह डाला कि जिसे कहने को शताब्‍दियां भी कम पड़ सकती हैं।
राजनीति और राजनेता उनके निशाने पर हमेशा रहे क्‍योंकि उन्‍होंने एक ऐसा जीवन जिया जो देश के कर्णधारों की कथनी और करनी के भेद को न सिर्फ कदम-कदम पर भुगतता है बल्‍कि उसके बीच बुरी तरह पिसता भी है। वह खुद भुक्‍तभोगी थे इसलिए उनकी तल्‍खी रचनाओं का हिस्‍सा बन जाती थी।
एक जगह उन्‍होंने लिखा है-
कितना प्रतिगामी रहा भोगे हुए क्षण का इतिहास।
त्रासदी, कुंठा, घुटन, संत्रास लेकर क्‍या करें।।
अदम गोंडवी के पास शब्‍द थे किंतु देश की एक बड़ी आबादी नि:शब्‍द है। क्‍या बोले और किससे बोले। उनसे जिन्‍हें पूरा एक दशक दिया शासन चलाने को या उनसे जिन्‍हें ऐतिहासिक बहुमत देकर काबिज कराया यह सोचकर कि शायद अब अच्‍छे दिन देखने को मिल जाएं।
अदम गोंडवी ने सही खाका खींचा था उस भारत मां का जिसे उसकी अपनी औलादें लज्‍जित करने में कोई कसर बाकी नहीं छोड़ रहीं।
उन्‍होंने लिखा था-
मुक्तिकामी चेतना अभ्यर्थना इतिहास की।
यह समझदारों की दुनिया है विरोधाभास की।।
आप कहते हैं इसे जिस देश का स्वर्णिम अतीत।
वो कहानी है महज़ प्रतिरोध की, संत्रास की।।
यक्ष प्रश्नों में उलझ कर रह गई बूढ़ी सदी।
ये परीक्षा की घड़ी है क्या हमारे व्यास की?
भारत माँ की एक तस्वीर मैंने यूँ बनाई है।
बँधी है एक बेबस गाय खूँटे में कसाई के।।
इधर एक दिन की आमदनी का औसत है चवन्नी का।
उधर लाखों में गांधी जी के चेलों की कमाई है।।
हाल ही में पंजाब के गुरदासपुर में आतंकी हमला हुआ। यह न तो कोई पहला हमला था और न इसे आखिरी माना जा सकता है। बावजूद इसके सो-कॉल्‍ड बुद्धिजीवियों का एक बड़ा तबका 1993 के मुंबई बम धमाकों के आरोपी याकूब मेमन की फांसी पर विलाप करता रहा। उसे मृत्‍युदण्‍ड से बचाने का हरसंभव प्रयास करता रहा।
पता नहीं गोंडवी ने कितने दिन पहले लिखा था यह सब कि-
कोई भी सिरफिरा धमका के जब चाहे जिना कर ले।
हमारा मुल्क इस माने में बुधुआ की लुगाई है।।
लेकिन आज भी हालात जस के तस हैं। कोई अंतर नजर नहीं आता। फिर चाहे मसला बाहरी सुरक्षा का हो या आंतरिक सुरक्षा का।
देश में औरतों की इज्‍जत इस कदर सस्‍ती हो गई है कि हर दिन उससे जुड़ी खबरें शीर्ष पर होती हैं। कहा यह जाता है कि अब यह सब बहुत बढ़ गया है परंतु अदम गोंडवी की कविता तो कुछ और कहती है। वह बताती है कि आज बेशक औरतों की इज्‍जत को भी सियासी नफे-नुकसान का हिस्‍सा बना दिया गया हो और इसलिए उस पर भरपूर सियासत की जा रही हो लेकिन हालात इस मामले में भी पहले कोई बहुत अच्‍छे नहीं रहे।
गोंडवी की ये दो लाइनें साफ करती हैं-
आ रही थी वह चली खोई हुई जज्बात में।
क्या पता उसको कि कोई भेड़िया है घात में।।
अदम गोंडवी को दुनिया से कूच किये साढ़े तीन साल हो गए, और कितने ऐसे अदम गोंडवी और कूच कर जायेंगे जो स्‍वतंत्रता के 67 सालों बाद भी सच्‍ची स्‍वतंत्रता का ख्‍वाब मन में संजोए बैठे हैं।
इसी 27 जुलाई को देश के पूर्व राष्‍ट्रपति एपीजे अब्‍दुल कलाम उसी दिन हुए गुरदासपुर आतंकी हमले तथा संसद की कार्यवाही न चलने की चिंता लिए दुनिया छोड़ गए लेकिन न सत्‍तापक्ष ने अपनी जिद छोड़ी न विपक्ष ने। संसद उनके रहते भी ठप्‍प पड़ी थी और उनके जाने के बाद भी ठप्‍प पड़ी है। कहने को राष्‍ट्रीय शोक है किंतु सच तो यह है कि ‘शोक’ मनाने की परंपराएं भी अब ‘शौक’ पूरे करने के काम आती हैं। मानसून सत्र संसद बाधित करने का शौक पूरा करने के काम आ रहा है। जनहित के नाम पर पूरा किये जाने वाले इस शौक से यदि निजी हित साधे जाते हैं तो इसमें कोई बुराई नजर नहीं आती। आखिर जनप्रतिनिधि भी जनहित की आड़ नहीं लेंगे तो कौन लेगा जबकि उन्‍हें तो जनता ने चुना ही इसलिए है।
संविधान की रचना करने वालों ने शायद ही कभी कल्‍पना की हो कि संविधान में दर्ज इबारत की व्‍याख्‍या इस कदर बेहूदे तरीकों से तोड़ी-मरोड़ी जायेगी। इस कदर उसकी छीछालेदर होगी कि मूल आत्‍मा का पता तक लगाना बड़े-बड़े विशेषज्ञों के लिए मुश्‍किल हो जायेगा।
संविधान प्रदत्‍त अधिकारों को तो बढ़ा-चढ़ाकर पेश किया जायेगा किंतु कर्तव्‍यों का कोई जिक्र नहीं होगा।
सांसदों पर की गई छोटी सी टिप्‍पणी को संसद की अवमानना में तब्‍दील कर देने वाले माननीय क्‍या कभी नहीं सोचेंगे कि वो किस कदर संसद की मान-मर्यादा को हर पल तार-तार कर रहे हैं। क्‍या उन्‍हें कभी अपने किये पर लज्‍जा का अनुभव होगा, संभवत: नहीं। ये बात अलग है कि उंगलियों पर गिने जाने लायक कुछ माननीय वर्तमान हालातों से द्रवित हैं और अपना दुख व रोष भी प्रकट करते हैं किंतु इस भीड़तंत्र में उनकी सुनता ही कौन है।
लोकसभा और राज्‍यसभा की तरह ही है विधानसभाओं का भी हाल। ताजा उदाहरण दिल्‍ली विधानसभा का है।
कल की ही बात है। महिला सुरक्षा के मुद्दे पर चर्चा के लिए विधानसभा का विशेष सत्र बुलाया था किंतु इसका उपयोग किया गया केवल पुलिस कमिश्नर और प्रधानमंत्री को गाली देने के लिए।
स्‍थिति का अंदाज इस बात से लगाया जा सकता है कि सत्‍ताधारी आम आदमी पार्टी के ही एक विधायक पंकज पुष्कर को कहना पड़ा कि यह सिर्फ समय और जनता के पैसे की बर्बादी है।
सत्र बुलाने के पीछे सरकार की मंशा महिलाओं की सुरक्षा न होकर राजनीतिक नजर आती है। सरकार में नकारात्मक विचारों को सुनने का धैर्य नहीं है और एक तरह के फ्लोर मैनेजमेंट की प्रवृत्ति पैदा हो गई है।
पंकज पुष्कर तो इतने नाराज हुए कि टी ब्रेक के बाद वह विधानसभा से ही चले गए।
देश के सामने अनगिनित समस्‍याएं हैं। प्रदेशों की सत्‍ता पार्टियों की जगह परिवारों के हाथ में है। आम आदमी को अपनी समस्‍याओं के समाधान की बात तो दूर उन्‍हें सही कानों पहुंचाने का भी कोई उपाय नहीं सूझ रहा। मामूली से मामूली परेशानी के लिए उसे दर-दर भटकना पड़ता है।
राजनीतिक पार्टियां अपनी कई-कई पीढ़ियों का इंतजाम कर रही हैं। कोई गांधी बाबा के नाम पर तिजोरी भर रहा है तो कोई बाबा साहब अंबेडकर के नाम पर। कोई लोहिया की आड़ में जनता को लोहे के चने चबाने पर मजबूर कर रहा है तो कोई दीनदयाल उपाध्‍याय और श्‍यामाप्रसाद मुखर्जी के नाम पर।
अभिव्‍यक्‍ति की स्‍वतंत्रता के हवाले से नेताओं की जुबान इतनी बेलगाम हो चुकी है कि पता ही नहीं चलता कि वो गालियां बक रहे हैं या संसदीय भाषा में गालियों को समाहित कर रहे हैं।
मुझे नहीं पता कि कुत्‍ते जब एक-दूसरे पर भौंकते हैं तो गालियां देते हैं या नहीं। उनके यहां गालियां संसदीय होती हैं या असंसदीय। लेकिन इतना जरूर पता है कि हमारे देश के नेताओं ने अब गालियों को संसदीय दर्जा दे दिया है। चाहे वह अघोषित ही क्‍यों न हो।
ऐसा नहीं होता तो परस्‍पर इतने अधिक अनर्गल प्रलाप के बाद किसी की तो मानहानि हुई होती। किसी को तो बुरा लगता। तमाशबीन बनी जनता को बुरा लगता है किंतु माननीयों को नहीं। आश्‍चर्य होता है।
कई बार ऐसा भी लगता है कि आश्‍चर्य किस बात का, यह सब उस म्‍यूचल अंडरस्‍टेंडिंग का हिस्‍सा है जिसके तहत सत्‍ता हस्‍तांतरण का खेल पूरी शांति के साथ खेला जाता है और जिसे आमजन लोकतंत्र समझता है।
सच तो यह है कि जिसे आमजन लोकतंत्र समझ कर खुद को बहला लेता है, उसकी असलियत कुछ और है। लोकतंत्र को अंग्रेजी में डेमोक्रेसी कहते हैं पर सच यह है कि यहां न डेमोक्रेसी है न ब्‍यूरोक्रेसी, यहां तो सिर्फ हिप्‍पोक्रेसी है। एक ऐसी हिप्‍पोक्रेसी जिसे डेमोक्रेसी और ब्‍यूराक्रेसी मिलकर अंजाम दे रही हैं ताकि जनता का कन्‍फ्यूजन बरकरार रहे।
यहां भी सुकून देता है बाबा अदम गोंडवीं का यह कथन कि-
जनता के पास एक ही चारा है बगावत।
यह बात कह रहा हूँ मैं होशो-हवास में।।
उम्‍मीद है कि अदम गोंडवी की बाकी कविताओं में छिपा सत्‍य जिस प्रकार आज चरितार्थ हो रहा है, उसी तरह यह दो लाइनें भी अंतत: चरितार्थ होंगी।
किसी के भी धैर्य की परीक्षा लेना उचित नहीं होता, फिर ये तो जनता है। जनता जिसे ‘जनार्दन’ की संज्ञा दी जाती है।
करते रहिए संसद बाधित, मत चलने दीजिए विधानसभाओं के सत्र, एक खास समय पर जनता की आंखों में मिर्च झोंक कर सत्‍ता तो हथियाई जा सकती है किंतु उसे हमेशा के लिए अंधा बनाकर रखना नामुमकिन है।
इंतजार कीजिए और देखिए कि आगे-आगे होता है क्‍या।
जनता की बदहाली और बेबसी का तमाशा देखने वाले खुद तमाशा बनकर न रह जाएं। दुनिया बड़ी तेजी से करवट बदल रही है। तमाम देशों के सत्‍ताधारियों का हश्र उसका उदाहरण है, सब्र का बांध जब टूटता है तो सैलाब बन जाता है।
यह बांध सबको बहाकर ले जाए, उससे पहले दो मिनट का मौन संसद में रखकर विचार कर लीजिए कि सवा अरब की आबादी आपके आचरण को देख भी रही है और सुन भी रही है।
आप चाहें तो सवा अरब से खुद को अलग कर लीजिए क्‍यों कि आप तो माननीय हैं। वो माननीय जिन्‍हें न अपने मान की परवाह है और न संसद के अवमान की।
ईश्‍वर आपकी मदद करे।
-सुरेन्‍द्र चतुर्वेदी
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