शुक्रवार, 25 दिसंबर 2015

टके-टके पर बिक रही हैं अखबारों की नीति और नैतिकता

This night have Not any morningआगरा से प्रकाशित दैनिक हिन्‍दुस्‍तान अखबार के कल यानि 22 दिसंबर 2015 के अंक में फ्रंट पेज पर एक विज्ञापन प्रकाशित किया गया है। आधे पेज के इस विज्ञापन का मजमून कुल इतना है कि ”22 दिसंबर है साल की सबसे लंबी रात”। इसे दें कुछ एक्‍स्‍ट्रा टाइम।
इन लाइनों के नीचे एक ”कपल” का ”संभोगरत” चित्र है और उसके नीचे लिखा है-”इस रात की सुबह नहीं”। दरअसल, यह विज्ञापन ”कोहेनूर कॉन्‍डोम” का है।
”हिन्‍दुस्‍तान टाइम्‍स” समूह का यह हिंदी अखबार देश के न केवल सबसे पुराने अखबारों में से एक है बल्‍कि इसके प्रधान संपादक ”शशि शेखर” अक्‍सर अपने लेखों में नीति और नैतिकता की बड़ी-बड़ी नसीहतें अन्‍य दूसरे अखबार के संपादकों से कहीं अधिक देते नजर आते हैं।
बेशक आज लगभग हर बड़े अखबार का संपादक अपने मालिकों की व्‍यावसायिक जरूरतों के सामने अपनी नीति-नैतिकता को ताक पर रखकर ही काम करने के लिए मजबूर होता है किंतु दैनिक हिन्‍दुस्‍तान के प्रधान संपादक शशि शेखर अपने हर लेख में खुद को दूसरे संपादकों तथा मीडिया कर्मियों से इतर साबित करने का प्रयास करते हैं।
ऐसे में सवाल यह पैदा होता है कि क्‍या अपनी नौकरी बचाए रखने तथा मालिकों के लिए एक अदद अश्‍लील विज्ञापन से होने वाली आय के लिए शशि शेखर जैसे लोग किसी भी हद तक जा सकते हैं?
वैसे हिन्‍दुस्‍तान अखबार या उसके संपादक शशि शेखर, प्रिंट मीडिया की दुनिया में कोई अपवाद नहीं हैं क्‍योंकि तमाम तथाकथित बड़े अखबार यही सब कर रहे हैं किंतु क्‍या इसे केवल इसलिए जायज ठहराया जा सकता है कि दूसरे अखबार यह सब कर रहे हैं तो दैनिक हिन्‍दुस्‍तान क्‍यों नहीं कर सकता।
छपे हुए शब्‍दों का बहुत सम्‍मान होता है, अपेक्षाकृत बोले हुए शब्‍दों के। अखबार में विज्ञापन छापने की भी अपनी गाइड लाइंस हैं और उनका पालन करना हर अखबार के प्रकाशक और संपादक की जिम्‍मेदारी है। गाइड लाइंस का अतिक्रमण करना अपराध की श्रेणी में आता है और इसके लिए प्रकाशक व संपादक दोनों जिम्‍मेदार माने जाते हैं।
इस सबके अलावा भी फिल्‍मों में आपत्‍तिजनक सीन पर हो-हल्‍ला मचाने से लेकर विधानसभा में किसी विधायक द्वारा अपने मोबाइल पर ‘पोर्न’ देखने तक पर हंगामा काटने वाले अखबार नवीस क्‍या चंद रुपयों के विज्ञापन की खातिर सारी नीति-नैतिकता भूल जाते हैं।
सामाजिक सुधार के ठेकेदार ऐसे अखबार मालिकों और संपादकों से क्‍या कोई यह पूछ सकता है कि एक अदद विज्ञापन के पैसों में बिकने वाली उनकी नीति-नैतिकता आखिर समाज को क्‍या सिखा रही है और किस आधार पर वह समाज में बढ़ रहे यौन अपराधों के लिए केवल व्‍यवस्‍थागत खामियों को दोष देने का काम करते हैं।
पहले पन्‍ने की बात यदि छोड़ दें और अधिकांश तथाकथित बड़े अखबारों के अंदर छपने वाले क्‍लासीफाइड विज्ञापनों के पन्‍ने को देखें तो भी ऐसा लगता है जैसे वह अखबार न होकर उस आम सड़क की दीवार हों, जिस पर कोई भी कुछ भी प्रचारित करने के लिए स्‍वतंत्र है।
”छोटा लिंग निराश क्‍यों…लिंगवर्धक यंत्र फ्री…जैसे विज्ञापनों से भरे हुए इन अधिकांश तथाकथित बड़े अखबारों के पन्‍ने वशीकरण, जादू-टोने, तंत्र-मंत्र आदि के शर्तिया इलाज का भी भरपूर प्रचार-प्रसार करते हैं और महिला दोस्‍त बनाने वालों के विज्ञापन छापकर सैक्‍स रैकेट चलाने वालों की भी पूरी मदद करते हैं।
हालांकि यह सारे काम देश का इलैक्‍ट्रॉनिक मीडिया भी बखूबी कर रहा है लेकिन प्रिंट मीडिया इसके लिए ज्‍यादा जिम्‍मेदार इसलिए है क्‍योंकि आज भी प्रिंट मीडिया को इलैक्‍ट्रॉनिक मीडिया की अपेक्षा अधिक विश्‍वसनीयता हासिल है।
मीडिया की स्‍वतंत्रता उस अभिव्‍यक्‍ति की स्‍वतंत्रता का हिस्‍सा है जो संविधान प्रदत्‍त अधिकारों की श्रेणी में आती है किंतु इसका यह अर्थ कतई नहीं कि स्‍वतंत्रता की आड़ लेकर मीडिया अपने अधिकारों का अतिक्रमण व्‍यावसायिक हित साधने के लिए करने लगे।
सच तो यह है कि ऐसा करने वाले मीडिया हाउसेस उस आम आदमी से कहीं ज्‍यादा बड़े अपराधी हैं जो अपने गैरकानूनी कार्यों को जायज ठहराने के लिए मजबूरी का सहारा लेता है या फिर सारा दोष व्‍यवस्‍था के माथे मढ़ देता है।
पैसा कमाने के लिए अखबार के पहले पन्‍ने पर भी अश्‍लील विज्ञापन छापने से परहेज न करने वाले अखबार मालिक समाज में तेजी से फैल रहे यौन अपराधों के लिए उतने ही जिम्‍मेदार हैं जितने कि दूसरे असामाजिक तत्‍व।
समय की मांग है कि जनहित में ऐसे अखबार मालिकों के खिलाफ स्‍वत: संज्ञान लेते हुए एक ओर जहां सरकार को कठोर कदम उठाने चाहिए वहीं दूसरी ओर प्रेस काउंसिल ऑफ इंडिया को भी इनके खिलाफ सख्‍त कार्यवाही अमल में लानी चाहिए ताकि अखबारों को विज्ञापन की आड़ में सस्‍ती कामुक सामग्री परोसने से रोका जाए और अखबार अपनी मान-मर्यादा को इतना न गंवा दें कि लोग घरों में अखबार मंगाने से परहेज करने लगें।
-लीजेंड न्‍यूज़ विशेष

शुक्रवार, 4 दिसंबर 2015

बीएड फर्जीवाड़े में जेल जायेंगे मथुरा के भी 20 से अधिक कॉलेज संचालक

-एसआईटी ने कर ली है पूरी जन्‍मकुंडली तैयार -पाई-पाई का हिसाब निकाला और यह भी पता कर लिया कि कैसे पहुंचे ये फर्श से अर्श तक जो समय बीत रहा है, वही बीत रहा है लेकिन इतना तय है कि डॉ. भीमराव अंबेडकर विश्‍वविद्यालय के बीएड फर्जीवाड़े में शामिल मथुरा के कई कॉलेज संचालक भी अब जेल जाने से बच नहीं पायेंगे।इस फर्जीवाड़े के तहत देश के शिक्षा जगत में अब तक की सबसे बड़ी आपराधिक कानूनी कार्यवाही होने जा रही है।
कोर्ट के आदेश पर जून 2014 से इस फर्जीवाड़े की जांच एसआईटी (विशेष जांच दल) द्वारा जब शुरू की गई तो पता लगा कि इसमें आगरा के डॉ. भीमराव अंबेडकर विश्‍वविद्यालय से संबद्ध 83 कॉलेज लिप्‍त रहे हैं।
इन कॉलेजों ने विश्‍वविद्यालय के अधिकारी एवं कर्मचारियों के साथ मिलकर 3670 फर्जी रोल नंबर जेनरेट कर दिए और उनके माध्‍यम से जारी बीएड की फर्जी मार्कशीट पर 2700 लोगों को सरकारी शिक्षक की नौकरी भी मिल गई।
इस दुस्‍साहसिक फर्जीवाड़े में एसआईटी ने डॉ. भीमराव अंबेडकर विश्‍वविद्यालय के दो पूर्व कुलपतियों, कुलसचिवों, शिक्षकों, कर्मचारियों और कॉलेज संचालकों सहित 4000 लोगों को आरोपी बनाया है।
इन घोटालेबाजों के खिलाफ कानूनी कार्यवाही में जो विलंब हो रहा है, वह सिर्फ इसलिए क्‍योंकि एसआईटी पहले अपनी रिपोर्ट हाई कोर्ट में पेश करेगी और उसके बाद कार्यवाही आगे बढ़ायेगी।
एसआईटी की जांच में जिन जिलों के कॉलेज संचालकों का नाम सामने आया है उनमें एटा, मैनपुरी, फिरोजाबाद, बागपत तथा मेरठ सहित मथुरा का नाम प्रमुख है।
गौरतलब है कि पिछले कुछ वर्षों के अंदर शिक्षा का व्‍यवसाय एक ऐसा व्‍यवसाय बन चुका है जिसमें सर्वाधिक लाभ दिखाई देता है। खुद को शिक्षाविद् कहने वाले शिक्षा माफिया ने पैसे की खातिर इस व्‍यवसाय को इतना नीचे गिरा दिया कि आज शिक्षा व्‍यवसाई घृणा के पात्र बन गए हैं।
बात करें यदि मथुरा सहित आगरा मंडल की तो शिक्षण संस्‍थाओं का सर्वाधिक प्रसार इसी क्षेत्र में हुआ क्‍योंकि कभी आगरा यूनीवर्सिटी के नाम से आगरा मंडल ही नहीं संपूर्ण उत्‍तर प्रदेश के शिक्षा जगत को गौरवान्‍वित करने वाली यही यूनिवर्सिटी अब पूरी तरह शिक्षा माफिया के जाल में फंस चुकी थी।
आगरा यूनिवर्सिटी से डॉ. भीमराव अंबेडकर विश्‍वविद्यालय में तब्‍दील होने के बाद से तो जैसे इस यूनिवर्सिटी को ग्रहण ही लग गया और देखते-देखते यह फर्जीवाड़े तथा घोटालों का पर्याय बन गई।
निश्‍चित रूप से एक गौरवशाली शिक्षण संस्‍था को इस हाल तक पहुंचाने में शासन व प्रशासन का भी भरपूर हाथ रहा क्‍योंकि वह उसकी ओर से पूरी तरह आंखें बंद किए रहे।
शासन-प्रशासन की इस अनदेखी का परिणाम यह रहा कि डॉ. भीमराव अंबेडकर विश्‍वविद्यालय भ्रष्‍टाचार का पर्याय बन गया और इसका लाभ उठाकर इससे संबद्ध कॉलेज संचालकों ने फर्जीवाड़ा करके करोड़ों रुपए एकत्र कर लिए।
अकेले बीएड के जरिए ही जिन कॉलेज संचालकों ने करोड़ों की संपत्‍ति अर्जित की है, उनमें मथुरा के कॉलेज संचालकों का नाम टॉप पर है।
ये वो कॉलेज संचालक हैं जिनकी कल तक हैसियत स्‍कूटर पर चलने लायक नहीं थी किंतु डॉ. भीमराव अंबेडकर विश्‍वविद्यालय के अधिकारी व कर्मचारियों की कृपा से आज यह कई-कई लग्‍ज़री गाड़ियां तो निजी तौर पर इस्‍तेमाल करते हैं जबकि कॉलेज के नाम पर दर्जनों गाड़ियां खड़ी कर रखी हैं।
एसआईटी जांच से जुड़े सूत्रों के अनुसार जिन 83 कॉलेजों की इस फर्जीवाड़े में संलिप्‍तता पाई गई है, उनमें मथुरा के कई कॉलेज शामिल हैं।
सीधे-सीधे कहें तो इस घोटाले में मथुरा का करीब-करीब हर वो कॉलेज संचालक संलिप्‍त पाया गया है जो डॉ. भीमराव अंबेडकर विश्‍वविद्यालय से बीएड करा रहा था। एसआईटी के अधिकारियों की मानें तो मथुरा का शायद ही कोई कॉलेज संचालक इस घोटाले में संलिप्‍त न रहा हो।
इन कॉलेजों की संख्‍या 20 से ऊपर बताई जा रही है जो चौमुहां, सैदपुर (बल्‍देव), छाता, कोसी खुर्द (भरतपुर रोड मथुरा), सदर बाजार, फरह, पाली डूंगरा, राया, गोवर्धन चौराहा मथुरा, सेमरी (छाता), शिवपुरी (बाजना), चंदनवन (हाईवे थाना क्षेत्र), महुअन, महावन, मुंडेसी और वृंदावन आदि क्षेत्रों में स्‍थित हैं।
चूंकि इस अरबों रुपए के घोटाले तथा फर्जीवाड़े की जांच उच्‍च न्‍यायालय के आदेश पर एसआईटी द्वारा की गई थी इसलिए उम्‍मीद की जा रही है कि शायद ही कोई घोटालेबाज अब इसकी गिरफ्त में आने से बच पायेगा।
ऐसे में यदि अन्‍य जनपदों सहित बड़ी तादाद में मथुरा के भी तथाकथित सभ्रांत कहलाने वाले कॉलेज संचालक हथकड़ियां पहने नजर आएं तो कोई आश्‍चर्य नहीं होगा क्‍योंकि एसआईटी ने उनकी पाई-पाई का हिसाब निकाल लिया है और यह भी मालूम कर लिया है कि चंद वर्षों के अंदर ये फर्श से अर्श तक आखिर पहुंचे कैसे?
-सुरेन्‍द्र चतुर्वेदी
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