मंगलवार, 4 अगस्त 2015

संसद में सियार ?

क्‍या भारतीय संसद में सियार भी घुस आए हैं?
क्‍या सदन में अब सियारों का ऐसा झुण्‍ड सक्रिय है जिसकी आवाज़ के सामने दूसरी सारी आवाजें दबकर रह गई हैं?
लगता तो ऐसा ही है क्‍यों कि संसद भवन से इन दिनों सिर्फ हू-हू की आवाजें आ रही हैं। बाकी आवाजें तो कहीं खो सी गई हैं।
हंगामा क्‍यूं बरपा है, नेताओं के अलावा किसी की समझ में नहीं आ रहा। हंगामे के जो कारण सामने आ रहे हैं, वो बेमानी नजर आते हैं।
कम से कम इतने मायने तो नहीं रखते कि संसद का पूरा सत्र ही हंगामे की भेंट चढ़ा दिया जाए।
बहरहाल, लोकसभा अध्‍यक्ष द्वारा 25 कांग्रेसी सदस्‍यों को 5 दिन के लिए निलंबित कर दिए जाने के बाद अब लगभग यह तय है कि संसद का मानसून सत्र यूं ही हंगामे की भेंट चढ़ने वाला है।
एक अनुमान के अनुसार सत्र के साथ लोकसभा और राज्‍यसभा में चल रहे इस हंगामे की भेंट जनता की गाढ़ी कमाई का करीब 250 करोड़ रुपया भी चढ़ जायेगा। ये वो आंकड़ा है जो संसद की कार्यवाही पर प्रतिघंटे आने वाले खर्च का जोड़ है।
दलगत राजनीति से इतर जो लोग आम आदमी की परिभाषा के दायरे में आते हैं उन्‍हें समझ में नहीं आ रहा कि इस स्‍थिति के लिए दोष किसे दें। भारी बहुमत देकर सत्‍ता पर बैठाई गई भारतीय जनता पार्टी व उसके सहयोगी दलों को अथवा कांग्रेस या कुकरमुत्‍तों की तरह उग आई उन दूसरी पार्टियों को जो दो-दो, चार-चार सदस्‍यों के बल पर विपक्षी दल तो कहलाती ही हैं।
आरोप-प्रत्‍यारोप का हाल यह है कि सत्‍तापक्ष और विपक्ष दोनों संसद बाधित करने के लिए एक-दूसरे को जिम्‍मेदार ठहरा रहे हैं।
कांग्रेस का कुतर्क है- चूंकि यूपीए की सरकार में भाजपा ने संसद नहीं चलने दी थी इसलिए अब हम उसी का अनुसरण करके क्‍या गलत कर रहे हैं। भाजपा कहती है कि तब स्‍थितियां और थीं। हजारों नहीं, लाखों करोड़ रुपए के घोटाले हुए और उनमें कांग्रेसी मंत्रियों की संलिप्‍तता प्रथम दृष्‍ट्या साबित हो रही थी लिहाजा उस स्‍थिति की तुलना आज की स्‍थितियों से किया जाना किसी तरह सही नहीं है।
ललित मोदी को कथित सहयोग के मुद्दे पर सुषमा स्‍वराज और वसुंधरा राजे के ऊपर लगाये जा रहे आरोप बेबुनियाद हैं और इसीलिए कांग्रेस बहस से भाग रही है।
दरअसल पिछले कुछ वर्षों से राजनीतिक दलों ने आरोप-प्रत्‍यारोप की एक नई परंपरा ईजाद की है। इस परंपरा के तहत किया यही जाता है जो आज कांग्रेस कर रही है।
यूपीए की सरकार में हुए घोटालों का जवाब यह कहकर दिया जाता था कि एनडीए की सरकार में भी यह सब हुआ था। बात चाहे लाखों करोड़ के कोयला घोटाले की रही हो अथवा 2जी घोटाले और कॉमनवेल्‍थ गेम्‍स में हुए घोटालों की। घोटालों का जवाब घोटालों से देने की इस नई परंपरा का ही नतीजा है कि आज संसद ठप्‍प है और तमाम बिल लटके पड़े हैं।
उत्‍तर प्रदेश के जनपद गोंडा अंतर्गत गांव परसपुर में जन्‍मे एक क्रांतिकारी कवि हुए हैं जिन्‍हें ‘अदम गोंडवी’ के नाम से जाना जाता है।
अदम गोंडवी का न तो कभी ज्‍योतिष विद्या से कोई संबंध रहा और ना उन्‍होंने कोई भविष्‍यवाणी की, उन्‍होंने तो बस जुबानी जमा खर्च किया। किंतु उनका ये जुबानी जमाखर्च इत्‍तफाखन आज की राजनीति और राजनेताओं पर इतना ज्‍यादा सटीक बैठता है कि लगता है जैसे वह भविष्‍य को बखूबी भांप चुके थे।
देश को स्‍वतंत्रता मिलने के मात्र दो महीने बाद पैदा हुए अदम गोंडवी सन् 2011 तक जीवित रहे परंतु इस बीच उन्‍होंने इतना कुछ कह डाला कि जिसे कहने को शताब्‍दियां भी कम पड़ सकती हैं।
राजनीति और राजनेता उनके निशाने पर हमेशा रहे क्‍योंकि उन्‍होंने एक ऐसा जीवन जिया जो देश के कर्णधारों की कथनी और करनी के भेद को न सिर्फ कदम-कदम पर भुगतता है बल्‍कि उसके बीच बुरी तरह पिसता भी है। वह खुद भुक्‍तभोगी थे इसलिए उनकी तल्‍खी रचनाओं का हिस्‍सा बन जाती थी।
एक जगह उन्‍होंने लिखा है-
कितना प्रतिगामी रहा भोगे हुए क्षण का इतिहास।
त्रासदी, कुंठा, घुटन, संत्रास लेकर क्‍या करें।।
अदम गोंडवी के पास शब्‍द थे किंतु देश की एक बड़ी आबादी नि:शब्‍द है। क्‍या बोले और किससे बोले। उनसे जिन्‍हें पूरा एक दशक दिया शासन चलाने को या उनसे जिन्‍हें ऐतिहासिक बहुमत देकर काबिज कराया यह सोचकर कि शायद अब अच्‍छे दिन देखने को मिल जाएं।
अदम गोंडवी ने सही खाका खींचा था उस भारत मां का जिसे उसकी अपनी औलादें लज्‍जित करने में कोई कसर बाकी नहीं छोड़ रहीं।
उन्‍होंने लिखा था-
मुक्तिकामी चेतना अभ्यर्थना इतिहास की।
यह समझदारों की दुनिया है विरोधाभास की।।
आप कहते हैं इसे जिस देश का स्वर्णिम अतीत।
वो कहानी है महज़ प्रतिरोध की, संत्रास की।।
यक्ष प्रश्नों में उलझ कर रह गई बूढ़ी सदी।
ये परीक्षा की घड़ी है क्या हमारे व्यास की?
भारत माँ की एक तस्वीर मैंने यूँ बनाई है।
बँधी है एक बेबस गाय खूँटे में कसाई के।।
इधर एक दिन की आमदनी का औसत है चवन्नी का।
उधर लाखों में गांधी जी के चेलों की कमाई है।।
हाल ही में पंजाब के गुरदासपुर में आतंकी हमला हुआ। यह न तो कोई पहला हमला था और न इसे आखिरी माना जा सकता है। बावजूद इसके सो-कॉल्‍ड बुद्धिजीवियों का एक बड़ा तबका 1993 के मुंबई बम धमाकों के आरोपी याकूब मेमन की फांसी पर विलाप करता रहा। उसे मृत्‍युदण्‍ड से बचाने का हरसंभव प्रयास करता रहा।
पता नहीं गोंडवी ने कितने दिन पहले लिखा था यह सब कि-
कोई भी सिरफिरा धमका के जब चाहे जिना कर ले।
हमारा मुल्क इस माने में बुधुआ की लुगाई है।।
लेकिन आज भी हालात जस के तस हैं। कोई अंतर नजर नहीं आता। फिर चाहे मसला बाहरी सुरक्षा का हो या आंतरिक सुरक्षा का।
देश में औरतों की इज्‍जत इस कदर सस्‍ती हो गई है कि हर दिन उससे जुड़ी खबरें शीर्ष पर होती हैं। कहा यह जाता है कि अब यह सब बहुत बढ़ गया है परंतु अदम गोंडवी की कविता तो कुछ और कहती है। वह बताती है कि आज बेशक औरतों की इज्‍जत को भी सियासी नफे-नुकसान का हिस्‍सा बना दिया गया हो और इसलिए उस पर भरपूर सियासत की जा रही हो लेकिन हालात इस मामले में भी पहले कोई बहुत अच्‍छे नहीं रहे।
गोंडवी की ये दो लाइनें साफ करती हैं-
आ रही थी वह चली खोई हुई जज्बात में।
क्या पता उसको कि कोई भेड़िया है घात में।।
अदम गोंडवी को दुनिया से कूच किये साढ़े तीन साल हो गए, और कितने ऐसे अदम गोंडवी और कूच कर जायेंगे जो स्‍वतंत्रता के 67 सालों बाद भी सच्‍ची स्‍वतंत्रता का ख्‍वाब मन में संजोए बैठे हैं।
इसी 27 जुलाई को देश के पूर्व राष्‍ट्रपति एपीजे अब्‍दुल कलाम उसी दिन हुए गुरदासपुर आतंकी हमले तथा संसद की कार्यवाही न चलने की चिंता लिए दुनिया छोड़ गए लेकिन न सत्‍तापक्ष ने अपनी जिद छोड़ी न विपक्ष ने। संसद उनके रहते भी ठप्‍प पड़ी थी और उनके जाने के बाद भी ठप्‍प पड़ी है। कहने को राष्‍ट्रीय शोक है किंतु सच तो यह है कि ‘शोक’ मनाने की परंपराएं भी अब ‘शौक’ पूरे करने के काम आती हैं। मानसून सत्र संसद बाधित करने का शौक पूरा करने के काम आ रहा है। जनहित के नाम पर पूरा किये जाने वाले इस शौक से यदि निजी हित साधे जाते हैं तो इसमें कोई बुराई नजर नहीं आती। आखिर जनप्रतिनिधि भी जनहित की आड़ नहीं लेंगे तो कौन लेगा जबकि उन्‍हें तो जनता ने चुना ही इसलिए है।
संविधान की रचना करने वालों ने शायद ही कभी कल्‍पना की हो कि संविधान में दर्ज इबारत की व्‍याख्‍या इस कदर बेहूदे तरीकों से तोड़ी-मरोड़ी जायेगी। इस कदर उसकी छीछालेदर होगी कि मूल आत्‍मा का पता तक लगाना बड़े-बड़े विशेषज्ञों के लिए मुश्‍किल हो जायेगा।
संविधान प्रदत्‍त अधिकारों को तो बढ़ा-चढ़ाकर पेश किया जायेगा किंतु कर्तव्‍यों का कोई जिक्र नहीं होगा।
सांसदों पर की गई छोटी सी टिप्‍पणी को संसद की अवमानना में तब्‍दील कर देने वाले माननीय क्‍या कभी नहीं सोचेंगे कि वो किस कदर संसद की मान-मर्यादा को हर पल तार-तार कर रहे हैं। क्‍या उन्‍हें कभी अपने किये पर लज्‍जा का अनुभव होगा, संभवत: नहीं। ये बात अलग है कि उंगलियों पर गिने जाने लायक कुछ माननीय वर्तमान हालातों से द्रवित हैं और अपना दुख व रोष भी प्रकट करते हैं किंतु इस भीड़तंत्र में उनकी सुनता ही कौन है।
लोकसभा और राज्‍यसभा की तरह ही है विधानसभाओं का भी हाल। ताजा उदाहरण दिल्‍ली विधानसभा का है।
कल की ही बात है। महिला सुरक्षा के मुद्दे पर चर्चा के लिए विधानसभा का विशेष सत्र बुलाया था किंतु इसका उपयोग किया गया केवल पुलिस कमिश्नर और प्रधानमंत्री को गाली देने के लिए।
स्‍थिति का अंदाज इस बात से लगाया जा सकता है कि सत्‍ताधारी आम आदमी पार्टी के ही एक विधायक पंकज पुष्कर को कहना पड़ा कि यह सिर्फ समय और जनता के पैसे की बर्बादी है।
सत्र बुलाने के पीछे सरकार की मंशा महिलाओं की सुरक्षा न होकर राजनीतिक नजर आती है। सरकार में नकारात्मक विचारों को सुनने का धैर्य नहीं है और एक तरह के फ्लोर मैनेजमेंट की प्रवृत्ति पैदा हो गई है।
पंकज पुष्कर तो इतने नाराज हुए कि टी ब्रेक के बाद वह विधानसभा से ही चले गए।
देश के सामने अनगिनित समस्‍याएं हैं। प्रदेशों की सत्‍ता पार्टियों की जगह परिवारों के हाथ में है। आम आदमी को अपनी समस्‍याओं के समाधान की बात तो दूर उन्‍हें सही कानों पहुंचाने का भी कोई उपाय नहीं सूझ रहा। मामूली से मामूली परेशानी के लिए उसे दर-दर भटकना पड़ता है।
राजनीतिक पार्टियां अपनी कई-कई पीढ़ियों का इंतजाम कर रही हैं। कोई गांधी बाबा के नाम पर तिजोरी भर रहा है तो कोई बाबा साहब अंबेडकर के नाम पर। कोई लोहिया की आड़ में जनता को लोहे के चने चबाने पर मजबूर कर रहा है तो कोई दीनदयाल उपाध्‍याय और श्‍यामाप्रसाद मुखर्जी के नाम पर।
अभिव्‍यक्‍ति की स्‍वतंत्रता के हवाले से नेताओं की जुबान इतनी बेलगाम हो चुकी है कि पता ही नहीं चलता कि वो गालियां बक रहे हैं या संसदीय भाषा में गालियों को समाहित कर रहे हैं।
मुझे नहीं पता कि कुत्‍ते जब एक-दूसरे पर भौंकते हैं तो गालियां देते हैं या नहीं। उनके यहां गालियां संसदीय होती हैं या असंसदीय। लेकिन इतना जरूर पता है कि हमारे देश के नेताओं ने अब गालियों को संसदीय दर्जा दे दिया है। चाहे वह अघोषित ही क्‍यों न हो।
ऐसा नहीं होता तो परस्‍पर इतने अधिक अनर्गल प्रलाप के बाद किसी की तो मानहानि हुई होती। किसी को तो बुरा लगता। तमाशबीन बनी जनता को बुरा लगता है किंतु माननीयों को नहीं। आश्‍चर्य होता है।
कई बार ऐसा भी लगता है कि आश्‍चर्य किस बात का, यह सब उस म्‍यूचल अंडरस्‍टेंडिंग का हिस्‍सा है जिसके तहत सत्‍ता हस्‍तांतरण का खेल पूरी शांति के साथ खेला जाता है और जिसे आमजन लोकतंत्र समझता है।
सच तो यह है कि जिसे आमजन लोकतंत्र समझ कर खुद को बहला लेता है, उसकी असलियत कुछ और है। लोकतंत्र को अंग्रेजी में डेमोक्रेसी कहते हैं पर सच यह है कि यहां न डेमोक्रेसी है न ब्‍यूरोक्रेसी, यहां तो सिर्फ हिप्‍पोक्रेसी है। एक ऐसी हिप्‍पोक्रेसी जिसे डेमोक्रेसी और ब्‍यूराक्रेसी मिलकर अंजाम दे रही हैं ताकि जनता का कन्‍फ्यूजन बरकरार रहे।
यहां भी सुकून देता है बाबा अदम गोंडवीं का यह कथन कि-
जनता के पास एक ही चारा है बगावत।
यह बात कह रहा हूँ मैं होशो-हवास में।।
उम्‍मीद है कि अदम गोंडवी की बाकी कविताओं में छिपा सत्‍य जिस प्रकार आज चरितार्थ हो रहा है, उसी तरह यह दो लाइनें भी अंतत: चरितार्थ होंगी।
किसी के भी धैर्य की परीक्षा लेना उचित नहीं होता, फिर ये तो जनता है। जनता जिसे ‘जनार्दन’ की संज्ञा दी जाती है।
करते रहिए संसद बाधित, मत चलने दीजिए विधानसभाओं के सत्र, एक खास समय पर जनता की आंखों में मिर्च झोंक कर सत्‍ता तो हथियाई जा सकती है किंतु उसे हमेशा के लिए अंधा बनाकर रखना नामुमकिन है।
इंतजार कीजिए और देखिए कि आगे-आगे होता है क्‍या।
जनता की बदहाली और बेबसी का तमाशा देखने वाले खुद तमाशा बनकर न रह जाएं। दुनिया बड़ी तेजी से करवट बदल रही है। तमाम देशों के सत्‍ताधारियों का हश्र उसका उदाहरण है, सब्र का बांध जब टूटता है तो सैलाब बन जाता है।
यह बांध सबको बहाकर ले जाए, उससे पहले दो मिनट का मौन संसद में रखकर विचार कर लीजिए कि सवा अरब की आबादी आपके आचरण को देख भी रही है और सुन भी रही है।
आप चाहें तो सवा अरब से खुद को अलग कर लीजिए क्‍यों कि आप तो माननीय हैं। वो माननीय जिन्‍हें न अपने मान की परवाह है और न संसद के अवमान की।
ईश्‍वर आपकी मदद करे।
-सुरेन्‍द्र चतुर्वेदी
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