रविवार, 29 मई 2016

UP elections: इस बार ”मुन्‍ना भाइयों” पर निर्भर होंगे अधिकांश उम्‍मीदवार

राजनीतिक दृष्‍टिकोण से देश के सबसे बड़े राज्‍य उत्‍तर प्रदेश में अगले साल चुनाव होने हैं। राजनीति के पंडितों का तो यहां तक कहना है कि साल 2016 के जाते-जाते भी यूपी में चुनाव हो सकते हैं।
चुनाव जब भी हों…समय पर हों या समय से पहले हों…यह तो चुनाव आयोग को तय करना है लेकिन एक बात जो तय है, वह यह कि इस बार चुनावी मैदान में उतरने वाले विभिन्‍न राजनीतिक दलों के उम्‍मीदवारों की परीक्षा पिछले सभी चुनावों से कुछ भिन्‍न होगी।
यह परीक्षा इसलिए भिन्‍न होगी क्‍योंकि सूबे के अधिकांश उम्‍मीदवार इस परीक्षा में पास होने के लिए अपने-अपने ”मुन्‍ना भाइयों” पर निर्भर होंगे। यानि परीक्षा के लिए फॉर्म (नामांकन) तो उम्‍मीदवार ही भरेंगे किंतु परदे के पीछे से परीक्षा कोई और दे रहा होगा।
सर्वविदित है कि पिछले सभी चुनावों की तुलना में आगामी चुनावों के दौरान सोशल मीडिया एक बड़ी भूमिका निभाएगा लिहाजा प्रत्‍येक राजनीतिक दल सर्वाधिक जोर सोशल मीडिया पर सक्रियता को लेकर दे रहा है।
भारतीय जनता पार्टी ने तो बाकायदा घोषणा कर दी है कि पार्टी से टिकिट पाने का ख्‍वाब देखने वालों को सोशल साइट्स पर कम से कम 25 हजार फॉलोअर्स जुटाने होंगे।
दूसरे राजनीतिक दल भी अपने-अपने संभावित उम्‍मीदवारों से कुछ ऐसी ही अपेक्षा कर रहे हैं।
संभावित उम्‍मीदवार भी इस सच्‍चाई से वाकिफ हो चुके हैं इसलिए वो फेसबुक, टि्वटर, लिंक्‍डइन तथा गूगल प्‍लस जैसी सोशल नेटवर्किंग साइट्स पर सक्रिय दिखाई देते हैं लेकिन अधिकांश संभावित उम्‍मीदवारों के साथ समस्‍या यह है कि वह स्‍वयं सोशल मीडिया को ऑपरेट करना नहीं जानते।
अर्थात परीक्षा फॉर्म (नामांकन) भले ही उम्‍मीदवार भरेंगे लेकिन असल परीक्षा होगी उन ”मुन्‍ना भाइयों” की जिन्‍हें उम्‍मीदवारों द्वारा सोशल मीडिया को हेंडिल करने के लिए हायर किया जाएगा।
दरअसल, इन चुनावों में जीत का सेहरा उसी के सिर बंधेगा जिसकी ओर युवा वोटर का झुकाव हो जाएगा। वही युवा वोटर जिसके लिए सोशल मीडिया अब माई-बाप बन चुका है। जो एकबार को पारिवारिक सदस्‍यों से दूर रह सकता है किंतु सोशल मीडिया से दूर रहने की कल्‍पना भी नहीं कर सकता। सोशल मीडिया से ही उसके दिन की शुरूआत होती है और सोशल मीडिया से ही वह गुड नाइट करके स्‍वीट ड्रीम देखने बिस्‍तर पर पहुंचता है। इस वोटर की न तो टीवी पर समाचार देखने में कोई रुचि है और न वो अखबार पढ़ता है। उसके लिए देश-दुनिया की जानकारी से अपडेट रहने का एकमात्र माध्‍यम सोशल मीडिया बन चुका है।
शायद इसीलिए प्रधानमंत्री नरेन्‍द्र मोदी अपनी लगभग हर स्‍पीच में बताते हैं कि हमारा देश, दुनिया का सबसे युवा देश है। देश की आबादी में 65 प्रतिशत हिस्‍सा उन युवकों का है जो एवरेज 35 वर्ष की उम्र के हैं।
गौरतलब है कि यह वही वर्ग है जो अपटेड रहने के लिए ही नहीं, हर सामाजिक व राजनीतिक गतिविधि की जानकारी के लिए सोशल मीडिया पर निर्भर है।
वह लाइक और कमेंट्स भी सोशल मीडिया पर चल रहे ट्रेंड के मुताबिक देता है। उसकी हवा का रुख उसी से तय होता है क्‍योंकि उसके लिए अब दुनिया वहीं तक सिमट चुकी है।
उम्‍मीदवारों के सामने चुनौती भी यही होगी कि कौन कितनी अधिक संख्‍या में इस वर्ग को प्रभावित करता है क्‍योंकि अधिकांश उम्‍मीदवार सोशल मीडिया पर सक्रियता के लिए ”मुन्‍ना भाइयों” पर निर्भर होंगे।
बेशक, इसका एक बड़ा कारण राजनीतिक लोगों की व्‍यस्‍तता होती है लेकिन कड़वा सच यह भी है कि सभी राजनीतिक दलों के अधिकांश उम्‍मीदवार उस आयु वर्ग से आते हैं जिसमें उनके लिए सोशल मीडिया तो दूर कंम्‍यूटर, लैपटॉप अथवा स्‍मार्ट फोन को हैंडिल करना किसी सिरदर्द से कम नहीं। यही कारण है कि शासन से प्राप्‍त लैपटॉप भी जनप्रतिनिधियों के नहीं, उनकी दूसरी या तीसरी पीढ़ी के काम आ रहे हैं।
इस विषय पर हांडी में पक रहे चावलों का हाल एक दाने से जान लेने की तरह यदि सूबे के राजनीतिक जगत का हाल जानने के लिए विश्‍व प्रसिद्ध जनपद मथुरा को ही देख लें तो तस्‍वीर काफी हद तक साफ हो जाती है।
मथुरा में कुल पांच विधानसभा क्षेत्र हैं। फिलहाल यहां की शहरी सीट पर कांग्रेस पार्टी से विधायक प्रदीप माथुर काबिज हैं जो फर्राटेदार अंग्रेजी तो बोलते हैं लेकिन कंम्‍यूटर ऑपरेट करने में उतने दक्ष नहीं हैं। इसके लिए उन्‍होंने स्‍टाफ रखा हुआ है और वही उनके सोशल मीडिया अकाउंट को हैंडिल करता है।
गोवर्धन क्षेत्र से बसपा के विधायक राजकुमार रावत के लिए कंम्‍यूटर ऑपरेट करना टेढ़ी खीर है। समय की मांग के अनुरूप वह फेसबुक आदि पर दिखाई तो देते हैं किंतु अपना अकाउंट खुद हैंडिल नहीं कर सकते।
छाता क्षेत्र से राष्‍ट्रीय लोकदल के टिकट पर चुनाव जीतने के बाद पिछले दिनों बसपा ज्‍वाइन कर लेने वाले ठाकुर तेजपाल कहने को तो अध्‍यापक हैं लेकिन कंम्‍यूटर ऑपरेट करना कभी उनके वश की बात नहीं रही। यदि वह इस बार चुनाव मैदान में उतरते हैं तो जाहिर है कि सोशल मीडिया को हैंडिल करना उनके लिए मुश्‍किल पेश करेगा। ये काम या तो उनके पुत्र करेंगे, या फिर स्‍टाफ से काम चलाना होगा। हालांकि कहा ये जा रहा है कि इस बार वह छाता क्षेत्र की अपनी विरासत अपने पुत्र को सौंपने जा रहे हैं।
गोकुल क्षेत्र से रालोद विधायक पूरन प्रकाश कहने को तो खासे शिक्षित हैं किंतु सोशल मीडिया के मामले में वह भी अपने पुत्रों पर निर्भर हैं। अब चुनावों के दौरान उनके पुत्र इसके लिए कितना समय निकाल पाते हैं, यह देखने वाली बात होगी अन्‍यथा उन्‍हें भी अंतत: ”मुन्‍ना भाइयों” पर निर्भर होना पड़ेगा।
इसी प्रकार मांट विधानसभा क्षेत्र से विधायक श्‍यामसुंदर शर्मा भी कम पढ़े-लिखे नहीं हैं लेकिन कंप्‍यूटर ऑपरेट करना उनके लिए भी किसी सिरदर्द से कम नहीं। हो सकता है कि दंत चिकित्‍सक की डिग्रीधारी उनके पुत्र उनके लिए सोशल मीडिया हैंडिल करते हों किंतु चुनावों में उन्‍हें भी यह काम किसी पेशेवर के हवाले करना होगा। यानि होंगे वह भी किसी न किसी ”मुन्‍ना भाई” पर ही निर्भर।
इन वर्तमान विधायकों के अलावा समाजवादी पार्टी से शहरी सीट पर प्रमुख दावेदार अशोक अग्रवाल कहने को तो बालरोग विशेषज्ञ हैं किंतु कंप्‍यूटर से वह उतने ही दूर भागते हैं जितनी दूर कोई पत्रकार, डॉक्‍टरी से भागता है।
शहरी सीट पर बसपा के अब तक घोषित उम्‍मीदवार योगेश द्विवेदी का कंप्‍यूटर से जानकारी भर का वास्‍ता है। यह बात अलग है कि वह स्‍टाफ के माध्‍यम से सोशल साइट्स विशेषत: फेसबुक पर सक्रिय नजर आते हैं।
भाजपा ने यूं तो अभी अपने उम्‍मीदवारों की कोई संभावित लिस्‍ट जारी नहीं की है लेकिन बात करें पिछले प्रत्‍याशी डॉ. देवेन्‍द्र शर्मा की तो पीएचडी होने के बावजूद कंप्‍यूटर ऑपरेट करना तथा सोशल मीडिया को खुद हैंडिल करना उनके लिए भी बड़ी समस्‍या है।
भाजपा के नवनियुक्‍त जिला अध्‍यक्ष और तीन मर्तबा मथुरा के सांसद रहे चौधरी तेजवीर सिंह के लिए कंप्‍यूटर ऑपरेट करना, काला अक्षर भैंस बराबर सरीखा है। पढ़े-लिखे वह भी हैं लेकिन कंप्‍यूटर से वह कभी तालमेल नहीं बैठा पाए। मोबाइल फोन का इस्‍तेमाल उनके लिए कॉल सुनने अथवा करने भर तक सीमित है। इससे आगे उनका उससे भी वास्‍ता नहीं।
इन चंद उदाहरणों के अतिरिक्‍त लगभग सभी पार्टियों के जिला व शहर अध्‍यक्ष ही नहीं प्रदेश व राष्‍ट्र स्‍तर के पदाधिकारियों का भी कंप्‍यूटर ज्ञान या तो नाममात्र का है या फिर उनके लिए भी वह हौवा बना हुआ है।
इन हालातों में यूपी के आगामी चुनाव उम्‍मीदवारों के साथ-साथ पार्टियों की भी दोहरी परीक्षा लेने वाले हैं क्‍योंकि जो तबका उनकी जीत में अहम भूमिका निभाने जा रहा है, उसकी दुनिया सोशल मीडिया तक सिमट चुकी है और जो चुनाव मैदान में उतरने वाले हैं, उनके लिए सोशल मीडिया किसी काले जादू से कम नहीं। हारकर ”मुन्‍ना भाइयों” को हायर करना ही एकमात्र रास्‍ता बचता है।
अब देखना यह होगा कि यह ”मुन्‍ना भाई” किसकी लुटिया डुबोते हैं और किसकी नैया पार लगाते हैं क्‍योंकि गुजारा तो इनके बगैर होने से रहा।
-Legend News

शुक्रवार, 27 मई 2016

जब यमुना में यमुना जल ही नहीं, तो प्रदूषण मुक्‍ति की कवायद किसलिए ?

यमुना नदी को प्रदूषण मुक्‍त कराने के लिए 17 वर्ष पूर्व इलाहाबाद हाईकोर्ट में मथुरा के प्रसिद्ध हिंदूवादी नेता गोपेश्‍वरनाथ चतुर्वेदी ने जो जनहित याचिका दायर की थी और जिसे काफी गंभीरता से लेते हुए हाईकोर्ट ने तमाम दिशा-निर्देश जारी किए थे, क्‍या आज वो याचिका तथा उसके आधार पर दिए गए सारे दिशा-निर्देश कोई मायने रखते हैं ?
क्‍या इलाहाबाद हाईकोर्ट द्वारा सन् 1998 में दिए गए ये आदेश-निर्देश ही आज विभिन्‍न सरकारी व गैर सरकारी इकाइयों तथा राज्‍य व केंद्र सरकारों के मुलाजिमों के लिए हर साल करोड़ों रुपए हड़प जाने का जरिया बने हुए हैं ?
क्‍या यमुना को प्रदूषण मुक्‍त करने व कराने के नाम पर ऊपर से नीचे तक जो खेल खेला जा रहा है, वह सिर्फ और सिर्फ आम जनता की आंखों में धूल झोंकते हुए धार्मिक भावनाओं को कैश करने का माध्‍यम है ?
क्‍या यमुना को प्रदूषण मुक्‍त रखने के लिए इलाहाबाद हाईकोर्ट के बाद अब नेशनल ग्रीन ट्रिब्‍यूनल (एनजीटी) में दायर की गई याचिका का कोई औचित्‍य है ?
ये चार सवाल हैं, जो यमुना की वर्तमान दशा और उसके लिए किए जा रहे प्रयासों की दिशा तय करते हैं। इन सवालों में ही यमुना की प्रदूषण मुक्‍ति का सच छिपा है।
सबसे पहले बात करते हैं सवाल नंबर एक की, जो यमुना को प्रदूषण मुक्‍त कराने के लिए 17 वर्ष पूर्व दायर की गई याचिका तथा उसके आधार पर शासन-प्रशासन को दिए गए दिशा-निर्देशों से जुड़ा है।
वर्ष 1998 में जब इलाहाबाद हाईकोर्ट के अंदर यमुना को प्रदूषण मुक्‍त कराने के लिए याचिका दायर की गई थी, तब यमुना नदी का इतना बुरा हाल नहीं था। तब यमुना में जितना पानी दिखाई देता था, उसमें काफी मात्रा यमुना के वास्‍तविक जल की भी रहा करती थी और इसलिए उसमें जलचरों को स्‍वछंद विचरण करते देखा जाता था। धार्मिक आस्‍था रखने वाले लोग भी तब बेखौफ होकर यमुना जल में न केवल स्‍नान किया करते थे बल्‍कि नियमित रूप से उसका पान (आचमन) भी करते थे।
यही कारण था कि इलाहाबाद हाइकोर्ट ने तब यमुना को प्रदूषण मुक्‍त रखने के लिए जो आदेश-निर्देश दिए उनमें प्रमुख रूप से मथुरा की पशु वधशाला को पूरी तरह बंद करने तथा यमुना में गिरने वाले नालों को टेप करने की बात थी। इस कार्य के लिए कोर्ट ने मथुरा के एक एडीएम को नोडल अधिकारी नियुक्‍त करते हुए उन्‍हें न्‍यायिक अधिकारों तक से सुसज्‍जित किया।
शुरूआती दिनों में ऐसा लगा भी कि कोर्ट के आदेश-निर्देशों की गंभीरता के मद्देनजर प्रशासन सख्‍त रुख अपनायेगा और यमुना को प्रदूषण मुक्‍त कराने का सिलसिला शुरू होगा किंतु जैसे-जैसे समय बीतता गया, वैसे-वैसे सच्‍चाई सामने आने लगी।
मथुरा में दरेसी रोड पर चलने वाली पशु वधशाला बंद तो हुई, किंतु सिर्फ कागजों पर। हकीकत में यह हुआ कि जिस पशु वधशाला में पहले नगर पालिका की इजाजत से एक निर्धारित संख्‍या में पशुओं का कटान किया जाता था, वहां अब बेहिसाब पशु काटे जाने लगे क्‍योंकि अब पशु कटान करने वालों को किसी से इजाजत लेने की जरूरत नहीं रह गई थी।
इसी प्रकार पहले जहां बाकायदा एक जगह पर पशु वधशाला हुआ करती थी और केवल उसी जगह पशुओं का कटान होता था, वहीं अब इस कार्य को करने वालों ने गली-गली, मौहल्‍ला-मौहल्‍ला और यहां तक कि घर-घर में पशु काटना शुरू कर दिया।
दूसरी ओर यमुना एक्‍शन प्‍लान के तहत आने वाले करोड़ों रुपए का बंदरबांट होने लगा और यमुना में गिरने वाले नाले-नालियों की टेपिंग का कार्य भी फाइलों तक सीमित होकर रह गया।
इन 17 वर्षों में जनसंख्‍या कहां से कहां जा पहुंची और उसी अनुपात में यमुना का प्रदूषण भी नित नए रिकॉर्ड कायम करता रहा। एक स्‍थिति ऐसी आ गई कि यमुना में दिखाई देने वाला जल, यमुना जल न होकर मात्र रासायनिक कचरा तथा मानव निर्मित गंदगी के अलावा कुछ नहीं था।
17 साल बाद अब जबकि एक बार फिर यमुना को प्रदूषण मुक्‍त रखने के लिए एनजीटी में याचिका दायर की गई है और एक बार आदेश-निर्देशों की श्रृंखला शुरू होती नजर आ रही है, तब बड़ा सवाल यह खड़ा होता है कि जिस यमुना में यमुना का जल ही नहीं है। जो दिखाई दे रहा है, वह मात्र नाले-नालियों व औद्योगिक इकाइयों की गंदगी भर है तो आखिर किसे प्रदूषण मुक्‍त कराने की कवायद की जा रही है ?
तब इलाहाबाद हाईकोर्ट से लेकर आज एनजीटी तक में याचिका दायर करने वाले गोपेश्‍वरनाथ चतुर्वेदी भी यह स्‍वीकार करते हैं कि हथिनी कुंड (हरियाणा) के बाद यमुना में जल के नाम पर अब जो कुछ दिखाई दे रहा है, उसमें एक बूंद भी यमुना जल नहीं है। जो कुछ है वह सिर्फ गंदगी है।
लेकिन गोपेश्‍वर नाथ चतुर्वेदी का कहना यह है कि यमुना को प्रदूषण मुक्‍त करने की आड़ में एसटीपी तथा एसपीएस संचालन के लिए जो ठेका हर साल उठाया जा रहा है और जिसकी अब तक मात्र खानापूर्ति करके करोड़ों रुपए का बंदरबांट किया जाता रहा है, वह कम से कम संचालित तो किए जाएंगे।
उनकी मानें तो एनजीटी के डर से ही प्रशासन सक्रिय हो रहा है और पालिका प्रशासन जवाब देने पर मजबूर है, लेकिन गोपेश्‍वरनाथ चतुर्वेदी यह नहीं बता पाते कि अब जबकि यमुना में यमुना के जल का अंश ही नहीं है तो एसटीपी तथा एसपीएस संचालन का क्‍या लाभ।
यमुना में यमुना का जल प्रवाहित न हो पाने तक क्‍यों नहीं एसटीपी तथा एसपीएस संचालन जैसी प्रक्रिया ही समाप्‍त कर देनी चाहिए जिससे हर साल भ्रष्‍टाचार की भेंट चढ़ रहे करोड़ों रुपए तो बचाए जा सकें।
इसके अलावा लोगों को यह भी समझ में आना चाहिए कि 17 वर्ष पूर्व इलाहाबाद हाईकोर्ट ने यमुना को प्रदूषण मुक्‍त रखने के लिए जो आदेश-निर्देश दिए थे, वो अब अपनी सार्थकता खो चुके हैं क्‍योंकि यमुना में यमुना जल ही शेष नहीं रहा।
अब बात सवाल नंबर दो की, जिसके तहत यमुना प्रदूषण मुक्‍ति के काम से जुड़े लगभग सभी सरकारी व गैर सरकारी संगठन कई चरणों का पैसा डकार चुके हैं और पैसा खाने का यह खेल अब भी जारी है।
आश्‍चर्य की बात तो यह है कि ”जे नर्म” के नाम से पहचानी जाने वाली जवाहर लाल नेहरू नेशनल अरबन रिन्‍यूअल मिशन नामक केंद्र सरकार की योजना में भी इन तत्‍वों ने यमुना को प्रदूषण मुक्‍त करने के लिए 104 करोड़ रुपया स्‍वीकृत करा लिया किंतु उसका क्‍या हश्र हुआ, यह तो सबके सामने है लेकिन पैसा कहां गया, यह किसी को पता नहीं।
सवाल नंबर तीन के जवाब में यह साफ है कि यमुना को प्रदूषण मुक्‍त करने व कराने के नाम पर ऊपर से नीचे तक खेला जा रहा खेल केवल जनभावनाओं का दोहन तथा धार्मिक भावनाओं को कैश करने का उपक्रम है क्‍योंकि इसी से वोट की राजनीति भी जुड़ी है और इसी से अनेक लोगों के निजी हित सध रहे हैं।
तमाम संगठन और उनके पदाधिकारी आज यमुना प्रदूषण के मुद्दे पर अपनी दुकान जमा चुके हैं और उनके लिए यह अच्‍छे-खासे व्‍यवसाय का रूप ले चुका है। यमुना प्रदूषण को लेकर उठ खड़े हुए संगठनों की संख्‍या और सबके द्वारा अपनी-अपनी ढपली से अपना-अपना अलग राग अलापना, खुद-ब-खुद इसकी पुष्‍टि करता है अन्‍यथा यदि सबका मकसद एक है तो सबके राग-द्वेष अलग-अलग क्‍यों हैं।
अब चौथे और अंतिम सवाल पर आते हैं क्‍योंकि यह एनजीटी में दायर की गई उस नई याचिका से ताल्‍लुक रखता है जिसने फिर से लोगों में यमुना प्रदूषण मुद्दे को लेकर उम्‍मीद की नई किरण पैदा कर दी है।
इस सवाल का एक ही जवाब हो सकता है। और जवाब यह है कि जब इलाहाबाद हाईकोर्ट के आदेश पिछले 17 सालों से धूल फांक रहे हैं, तो क्‍या एनजीटी के आदेश कुछ कर पाएंगे।
गौरतलब है कि एनजीटी में दायर की गई याचिका का मुद्दा फिलहाल एसटीपी तथा एसपीएस के संचालन से जुड़ा है, न कि इससे कि यमुना में यमुना का जल शेष है भी या नहीं। अर्थात एनजीटी के आदेश-निर्देश अधिकतम यमुना में गिरने वाली गंदगी को साफ करा सकते हैं। उस गंदगी को साफ करके यमुना के नदी होने का भ्रम पैदा करा सकते हैं लेकिन यमुना जल नहीं दिला सकते।
कुल मिलाकर यमुना को प्रदूषण मुक्‍त कराने के लिए इलाहाबाद हाईकोर्ट से शुरू की गई कवायद एनजीटी तक आते-आते आज गंदे पानी को साफ करके ही यमुना नदी का भ्रम पैदा करा देने के संतोष पर आकर खड़ी हो गई है।
जहां तक सवाल यमुना को प्रदूषण मुक्‍त करने व कराने का है तो याचिकाकर्ता गोपेश्‍वरनाथ चतुर्वेदी और उनके सहायक व कृष्‍ण जन्‍मस्‍थान सेवा संस्‍थान के जनसंपर्क अधिकारी विजय बहादुर सिंह दोनों मानते हैं कि यमुना के मामले में केंद्रीय जल संसाधन मंत्री साध्‍वी उमा भारती भी गाल बजाने के अतिरिक्‍त कुछ नहीं कर रहीं।
बेहतर होगा कि जहर से जहर को मारने वाली चिर-परिचित चिकित्‍सा पद्धति पर अमल करते हुए दलगत राजनीति से इतर जनता भी 2017 के चुनाव में यमुना को मुद्दा बनाकर उसी पार्टी के लिए वोट करे जो पार्टी चुनावों से पूर्व यमुना में अविरल यमुना जल को प्रवाहित करने तथा फिर उसे निर्मल बनाए रखने की दिशा में ठोस कदम उठाती दिखाई दे।
खालिस वोट की राजनीति के इस दौर में वोट को ही हथियार बनाकर जब तक जनता यमुना प्रदूषण को चुनावी मुद्दा नहीं बनायेगी, तब तक हर आदेश-निर्देश का इसी प्रकार मजाक उड़ाया जाता रहेगा और इसी प्रकार पतित पावनी यमुना पतितों के पाप ढोती रहेगी।
आज उसका अस्‍तित्‍व हरियाणा से आगे समाप्‍त हुआ है, कल हरियााणा से ऊपर भी समाप्‍त हो सकता है। तब पहाड़ों के रास्‍ते दिखाकर लोग संभवत: यह बताने लगें कि कभी यहां से होकर यमुना नदी गुजरा करती थी।
-सुरेन्‍द्र चतुर्वेदी

बुधवार, 11 मई 2016

पौने दो करोड़ रुपए के घपले में शामिल Chairman मनीषा गुप्‍ता को आखिर कौन बचा रहा है?

मथुरा नगर पालिका की Chairman मनीषा गुप्‍ता पर करीब पौने दो करोड़ रुपए के घपले में शामिल होने का आरोप है। मनीषा गुप्‍ता पर ये आरोप नीचे से ऊपर तक तमाम जांच पूरी हो जाने के बाद लगे हैं।
जांच करने वाले तीनों अधिकारियों अपर जिलाधिकारी कानून-व्‍यवस्‍था/प्रभारी अधिकारी स्‍थानीय निकाय एस. के. शर्मा, जिलाधिकारी राजेश कुमार तथा कमिश्‍नर आगरा मंडल प्रदीप भटनागर द्वारा पालिका अध्‍यक्ष मनीषा गुप्‍ता सहित घोटाले में लिप्‍त पाए गए सभी अधिकारी व कर्मचारियों के खिलाफ शासन से कार्यवाही की संस्‍तुति भी की जा चुकी है, बावजूद इसके अब तक कार्यवाही नहीं की गई जिससे साफ जाहिर है कि पालिका को करोड़ों रुपए का चूना लगाने वालों के सिर पर किसी न किसी का हाथ जरूर है।
मनीषा गुप्‍ता के खिलाफ कार्यवाही की संस्‍तुति किए जाने के बावजूद अब तक कुछ न किया जाना इसलिए और आश्‍चर्यजनक है क्‍योंकि मनीषा गुप्‍ता भाजपा से हैं जबकि प्रदेश में शासन समाजवादी पार्टी का है तथा प्रदेश के नगर विकास मंत्री वो आजम खां हैं, जो भाजपा के नाम से भी खासी चिढ़ रखते हैं।
नगर पालिका में हुए इस बड़े घोटाले का सच तब सामने आया जब पालिका के ही एक पूर्व सभासद हेमंत अग्रवाल ने घपले की जांच कराने के लिए कमिश्‍नर आगरा मंडल से पत्राचार किया।
इस शिकायती पत्र के मुताबिक यह घपला नगर पालिका परिषद मथुरा द्वारा एसटीपी व एसपीएस के संचालन हेतु उठाए गए ठेके में भारी अनियमितताएं करके किया गया और इसमें पालिका अध्‍यक्ष मनीषा गुप्‍ता के अतिरिक्‍त अधिशासी अधिकारी के. पी. सिंह, अवर अभियंता (जलकल) के. आर. सिंह, सहायक अभियंता उदयराज, लेखाकार विकास गर्ग तथा लिपिक टुकेश शर्मा शामिल थे।
कमिश्‍नर आगरा मंडल प्रदीप भटनागर ने पूर्व सभासद के शिकायती पत्र पर जिलाधिकारी मथुरा को सक्षम अधिकारी से जांच कराने के आदेश कर दिए। इस आदेश के आधार पर जिलाधिकारी मथुरा ने अपर जिलाधिकारी कानून-व्‍यवस्‍था/प्रभारी अधिकारी स्‍थानीय निकाय एस. के. शर्मा को घोटाले की जांच सौंप दी।
अपर जिलाधिकारी ने जांच में पाया कि यमुना किनारे बने नगर पालिका मथुरा के एसटीपी एवं एसपीएस के संचालन हेतु जो निविदा 24 जून 2014 तक आमंत्रित की गई, उसकी बहुत सी शर्तों को दरकिनार कर फरीदाबाद (हरियाणा) की फर्म मै. स्‍टील इंजीनियर्स की 01 करोड़ 74 लाख 13 हजार 400 सौ रुपए की निविदा स्‍वीकार कर ली गई और 30 जून 2014 को कार्यादेश भी जारी कर दिया गया जबकि निविदा डालने वालों में एक फर्म पंप इंजीनियर्स एवं ट्रेडर्स मथुरा से थी तथा एक अन्‍य फर्म मैसर्स लॉर्ड कृष्‍णा एण्‍टरप्राइजेस, लुधियाना (पंजाब) से थी।
जांच में यह भी पता लगा कि निविदा के लिए 22 फरवरी 2014 को नगर पालिका परिषद की बोर्ड बैठक में जो नियम व शर्तें निर्धारित की गईं थीं, उनके अनुसार निविदा उसी फर्म को दी जा सकती थी जिसका रजिस्‍ट्रेशन मथुरा नगर पालिका में हो अथवा उसके द्वारा निविदा पाने के एक सप्‍ताह में यहां रजिस्‍ट्रेशन करा लिया जाए।
इस शर्त में पर्याप्‍त सुविधा होने पर भी फरीदाबाद (हरियाणा) की फर्म मै. स्‍टील इंजीनियर्स ने निविदा पाने के बाद कभी नगर पालिका मथुरा में अपना रजिस्‍ट्रेशन कराना जरूरी नहीं समझा।
इसके अलावा नियमों के विपरीत फर्म का चरित्र प्रमाण पत्र हरियाणा का था और हैसियत प्रमाण पत्र तथा वाणिज्‍य कर प्रमाणपत्र भी हरियाणा से ही बने थे।
इस दौरान पालिका द्वारा हैसियत की राशि पहले 50 लाख, फिर 25 लाख और उसके बाद फिर 50 लाख रुपए की गई और इसके लिए समाचार पत्रों में विज्ञापन कराया गया।
उल्‍लेखनीय है कि हैसियत व चरित्र प्रमाण पत्र को लेकर जारी शासनादेश के अनुसार दो लाख या उससे अधिक प्रत्‍येक सरकारी कार्य, ठेका अथवा निविदा किसी विभाग द्वारा तब तक स्‍वीकार नहीं की जा सकती जब तक आयकर व व्‍यापार कर विभाग, जिला मजिस्‍ट्रेट तथा पुलिस अधीक्षक की ओर से निविदादाता के पक्ष में अनापत्‍ति प्रमाण पत्र (एनओसी) निर्गत न कर दिया गया हो।
इसी प्रकार निविदादाता के पक्ष में जब तक जिले के पुलिस कप्‍तान द्वारा चरित्र प्रमाण पत्र तथा डीएम द्वारा निविदादाता की आर्थिक क्षमता और पूर्व में उसके द्वारा किए गए कार्यों को लेकर निर्धारित प्रमाण पत्र जारी न कर दिया जाए, तब तक उसके नाम निविदा नहीं की जा सकती।
अपर जिलाधिकारी ने जांच में पाया कि लुधियाना की फर्म मैसर्स लॉर्ड कृष्‍णा एण्‍टरप्राइजेस को हैसियत प्रमाण पत्र न होने तथा चरित्र प्रमाण पत्र भी नौकरी के लिए ही मान्‍य होने के बावजूद उसकी निविदा स्‍वीकार कर ली गई।
इसी प्रकार द्वारिकापुरी कॉलोनी मथुरा की फर्म मै. पंप इंजीनियर्स एंड ट्रेडर्स की हैसियत 35 लाख रुपए तक ही होने पर भी उसकी निविदा भी स्‍वीकार कर ली गई जबकि बोर्ड के प्रस्‍ताव में हैसियत 50 लाख रुपए निर्धारित थी।
इन अनियमितताओं से स्‍पष्‍ट है कि मथुरा तथा लुधियाना की फर्मों ने हरियाणा की फर्म के पक्ष में म्‍यूचुअल अंडरस्‍टेंडिंग के तहत निविदा डालीं और नगर पालिका परिषद ने पूर्व निर्धारित योजना के अनुसार हरियाणा की फर्म को निविदा जारी कर दी। निविदा के लिए निर्धारित हैसियत की राशि में भी बार-बार फेरबदल करना नगर पालिका की मंशा को साफ जाहिर करता है।
यही नहीं, अपर जिलाधिकारी ने जांच में यह भी पाया कि निविदा प्राप्‍त करने वाली फर्म के प्रोप्राइटर तो कर्मवीर मेहता हैं लेकिन निविदा में हैसियत प्रमाण पत्र श्रीमती सुमन मेहता के नाम है जो उनकी पत्‍नी हैं।
निविदा पाने वाली फर्म और निविदा देने वाली संस्‍था नगर पालिका मथुरा की बदनीयत इससे इसलिए स्‍पष्‍ट होती है क्‍योंकि डिफॉल्‍टर होने की स्‍थिति में पत्‍नी होने के बावजूद कानूनन सुमन मेहता, कर्मवीर मेहता के किसी कार्य के लिए उत्‍तरदायी नहीं मानी जा सकतीं।
इसके अलावा अपर जिलाधिकारी ने जांच में यह निष्‍कर्ष निकाला कि टेक्‍नीकल बिड तथा फाइनेन्‍सियल बिड के नियमों में भी घपला किया गया और टेक्‍नीकल बिड को स्‍वीकृत करने का कोई भी आदेश न तो टेंडर कमेटी द्वारा पारित किया गया और ना ही पालिका परिषद अथवा पालिका बोर्ड द्वारा उस पर कोई निर्णय लिया गया।
जांच के दौरान एक और अत्‍यंत महत्‍वपूर्ण बात यह पता लगी कि निविदा पाने वाली हरियाणा की फर्म मै. स्‍टील इंजीनियर्स ने श्रम विभाग में अपने कर्मचारियों की कुल संख्‍या 16 दिखा रखी है जो मथुरा की एसटीपी व एसपीएस संचालन के लिहाज से काफी कम थी।
मथुरा नगर पालिका क्षेत्र में कुल एक दर्जन एसपीएस हैं और दो एसटीपी हैं। आठ-आठ घंटे की शिफ्ट के अनुसार चौबीसों घंटे इनका संचालन करने के लिए कुल 84 कर्मचारियों की जरूरत पड़ती है। ऐसे में मात्र 16 कर्मचारियों वाली फर्म को ठेका दे देना अपने आप में सवाल खड़े करता है। वो भी तब जबकि ठेका पाने वाली फर्म की पत्रावली पर कर्मचारियों की संख्‍या का कोई उल्‍लेख ही न किया गया हो।
जांच अधिकारी एडीएम के अनुसार, ठेका उठाने की तारीख 30 जून 2014 से लेकर जांच रिपोर्ट देने की तिथि 13 अप्रैल 2015 तक, प्रशासनिक अधिकारियों ने कई बार एसटीपी व एसपीएस के संचालन का निरीक्षण किया लेकिन इस दौरान प्राय: स्‍टेशन बंद पाए गए तथा गंदगी सीधे यमुना में गिरती मिली।
नगर पालिका ने एसटीपी व एसपीएस संचालन के लिए किसी कमेटी का भी गठन नहीं किया जबकि नगर पालिका अधिनियम 1916 की धारा 104 के अनुसार पालिका कार्यों के अनुरक्षण व सत्‍यापन हेतु सभासदों की एक कमेटी बनाया जाना जरूरी है।
जांच अधिकारी ने जिलाधिकारी को प्रेषित अपनी रिपोर्ट में साफ-साफ लिखा है कि इन हालातों के चलते 01 करोड़ 74 लाख 13 हजार 400 सौ रुपए की बड़ी धनराशि का दुरुपयोग होना संभावित प्रतीत होता है और जिसके लिए नगर पालिका परिषद मथुरा की अध्‍यक्ष श्रीमती मनीषा गुप्‍ता, अधिशाषी अधिकारी के. पी. सिंह सहित अवर अभियंता (जलकल) के. आर सिंह, सहायक अभियंता उदयराज, लेखाकार विकास गर्ग, तथा लिपिक टुकेश शर्मा समान रूप से दोषी हैं।
जांच अधिकारी के मुताबिक ठेकेदार को भुगतान की गई 01 करोड़ 74 लाख 13 हजार 400 सौ रुपए की बड़ी धनराशि संबंधित लोगों से वसूल किया जाना उचित प्रतीत होता है।
अपर जिलाधिकारी एस. के. शर्मा की इस जांच और दोषियों से पैसा वसूलने की संस्‍तुति को क्रमश: जिलाधिकारी राजेश कुमार एवं कमिश्‍नर आगरा मंडल प्रदीप भटनागर ने भी सही पाया तथा शासन से दोषियों के खिलाफ सख्‍त कार्यवाही करने की सिफारिश की लेकिन एक साल से ऊपर का समय बीत जाने के बाद भी किसी दोषी के खिलाफ अब तक कोई कार्यवाही नहीं हुई जिससे इतना तो पता लगता है कि दोषियों को अखिलेश की सरकार में किसी न किसी का संरक्षण अवश्‍य मिला हुआ है।
करीब पौने दो करोड़ रुपए के घोटाले में लिप्‍त इन प्रभावशाली दोषियों के खिलाफ शासन स्‍तर से कार्यवाही न होने पर 12 दिसंबर 2015 को नागरिक कल्‍याण समिति (रजि.) मथुरा के अध्‍यक्ष उमेश भारद्वाज तथा सचिव राजीव कुमार सिंह ने प्रदेश के मुख्‍यमंत्री को भी एक पत्र लिखा और भ्रष्‍टाचार, अनियमितता एवं पद के दुरूपयोग के इस पूरे प्रकरण की जांच सतर्कता विभाग अथवा सीबीआई से कराने की मांग की क्‍योंकि जांच में दोषी पाए गए अधिशाषी अधिकारी के. पी. सिंह बिना किसी कार्यवाही के अवकाश प्राप्‍त कर चुके हैं। जिलाधिकारी कार्यालय से मूल जांच पत्रावली गायब कर दी गई है, नगर पालिका परिषद ने निविदा पाने वाली फर्म मै. स्‍टील इंजीनियर्स को ब्‍लैकलिस्‍टेड तक नहीं किया है और चालू वित्‍त वर्ष में बिना ठेका उठाए उसी से न केवल कार्य कराए जा रहे हैं बल्‍कि उसे भुगतान भी किया जा रहा है। जांच में दोषी पाए गए सहायक अभियंता लगातार अपना कार्य कर रहे हैं जिसमें करोड़ों रुपए के भुगतान शामिल हैं।
जहां तक सवाल एसटीपी व एसपीएस के संचालन का है तो वह अब भी जांच रिपोर्ट की स्‍थिति को प्राप्‍त हैं, जिस कारण गंदगी सीधे यमुना में गिर रही है।
12 दिसंबर 2015 को मुख्‍यमंत्री के नाम प्रेषित इस शिकायती पत्र पर भी कोई कार्यवाही न होने से क्षुब्‍ध नागरिक कल्‍याण समिति (रजि.) मथुरा ने इलाहाबाद उच्‍च न्‍यायालय की शरण ली, जिस पर उच्‍च न्‍यायालय ने याचियों से नेशनल ग्रीन ट्रिब्‍यूनल (NGT) में जाने का परामर्श दिया है।
अब नागरिक कल्‍याण समिति कानून-व्‍यवस्‍था की इस बदहाली, उच्‍च अधिकारियों की जांच रिपोर्ट तथा लोकतंत्र को मजाक बनाकर रख देने वाली व्‍यवस्‍था के खिलाफ नेशनल ग्रीन ट्रिब्‍यूनल (NGT) में जाने की तैयारी कर रही है।
पौने दो करोड़ रुपए के घपले में दोषी पाई गईं नगर पालिका अध्‍यक्ष मनीषा गुप्‍ता से जब ”लीजेंड न्‍यूज़” ने अपना पक्ष रखने को कहा तो उनके पति राजेश गुप्‍ता ने सारे प्रकरण को राजनीति से प्रेरित बताया किंतु तकनीकी तौर पर सफाई देने में असमर्थता प्रकट की।
राजेश गुप्‍ता की मानें तो उनके व उनकी पत्‍नी के राजनीतिक विरोधी इस मामले को अब इसलिए तूल दे रहे हैं क्‍योंकि उनकी पत्‍नी मथुरा-वृंदावन विधानसभा सीट से भाजपा के संभावित उम्‍मीदवारों में प्रबल दावेदार हैं। उनकी पत्‍नी ने चूंकि मथुरा नगर पालिका का संचालन काफी बेहतर तरीके से किया है इसलिए पूरी उम्‍मीद है कि वह भाजपा की टिकट पर मथुरा-वृंदावन विधानसभा क्षेत्र से 2017 का चुनाव लड़ेंगी।
दूसरी ओर नगर पालिका में हुए इस बड़े घोटाले की शिकायत करने वालों का कहना है कि मनीषा गुप्‍ता के पास अभी करीब सवा साल का कार्यकाल शेष है, ऐसे में यदि उनके खिलाफ समय रहते ठोस कार्यवाही नहीं की गई तो वह मथुरा नगर पालिका को पता नहीं कितने करोड़ का चूना और लगा देंगी क्‍योंकि केंद्र व प्रदेश सरकार से मथुरा नगर पालिका क्षेत्र में सैकड़ों करोड़ रुपए के विकास कार्य कराया जाना प्रस्‍तावित है।
रहा सवाल भाजपा की टिकट पर मथुरा-वृंदावन विधानसभा क्षेत्र से चुनाव लड़ने के ख्‍वाब संजोने का, तो उनका यह ख्‍वाब शायद ही कभी पूरा हो। हां, यह जरूर हो सकता है कि उससे पहले मनीषा गुप्‍ता और उनके सहयोगी जेल यात्रा कर लें क्‍योंकि लखनऊ अभी बहुत दूर है।
-सुरेन्‍द्र चतुर्वेदी

”गिफ्ट” के सहारे ”हाथी” की सवारी का सपना कितना सच

इस चित्र में बसपा सुप्रीमो मायावती को जो हाथी ”गिफ्ट” किया जा रहा है, वह सोने का है या चांदी का अथवा किसी अन्‍य धातु का…इसका तो पता नहीं लेकिन चित्र देखने से लगता है कि उक्‍त हाथी निश्‍चित ही बहिनजी की पसंद वाला और उनकी गरिमा के अनुकूल रहा होगा क्‍योंकि न तो मायावती को ऐरा-गैरा हाथी देने की हिमाकत कोई कर सकता है और न मायावती किसी ऐरे-गैरे के हाथों से हाथी की भेंट ले सकती हैं। आखिर वो हाथी ही तो है जिसने मायावती को चार-चार बार सूबे की सवारी करवा दी और बड़ों-बडों को धूल फांकने पर मजबूर कर दिया।
यह हाथी अष्‍टधातु का भी हो सकता है क्‍योंकि इसे देने वाले की भी हैसियत कम नहीं है।
बहिनजी को हाथी भेंट करने वाले सज्‍जन से मथुरा जनपद भली-भांति परिचित है क्‍योंकि यह बहिन मायवती के अति करीबियों में शुमार वृंदावन नगर पालिका की पूर्व अध्‍यक्ष पुष्‍पा शर्मा के पुत्र योगेश द्विवेदी हैं। वही योगेश द्विवेदी जो बसपा की ही टिकट पर 2014 का लोकसभा चुनाव मथुरा से लड़े थे किंतु जीत नहीं पाए।
इस बार वह मथुरा-वृंदावन विधानसभा क्षेत्र से अब तक बसपा की उम्‍मीदवारी का दावा कर रहे हैं। बसपा ने भी अब तक कुछ ऐसे ही संकेत दे रखे हैं कि योगेश द्विवेदी मथुरा-वृंदावन से उनके उम्‍मीदवार होंगे। हालांकि बसपा के संकेत कितने भरोसेमंद होते हैं, इसे डॉ. अशोक अग्रवाल अच्‍छे से जानते हैं। वही डॉ. अशोक अगवाल जो योगेश द्विवेदी की ही तरह आज सपा के मथुरा-वृंदावन सीट से उम्‍मीदवार हैं किंतु कभी बसपा के निष्‍ठावान सिपाही माने जाते थे। बसपा ने उन्‍हें भी योगेश द्विवेदी की ही तरह अंत तक अपना संभावित प्रत्‍याशी बनाए रखा। यहां तक कि डॉ. अशोक अग्रवाल ने नामांकन भरने की पूरी तैयारी के साथ विश्रामघाट जाकर अपने लाव-लश्‍कर के साथ यमुना पूजन भी कर डाला।
यमुना पूजन के बाद अचानक लखनऊ से आकाशवाणी हुई कि मथुरा-वृंदावन से बसपा के टिकट पर चुनाव डॉ. अशोक अग्रवाल की जगह देवेन्‍द्र गौतम उर्फ गुड्डू भइया चुनाव लड़ेंगे। डॉ. अशोक अग्रवाल ने इस आकाशवाणी के खिलाफ यथासंभव प्रयास किया लेकिन उनकी पतंग लखनऊ से काटकर गुड्डू भइया के हाथ में थमा दी गई थी लिहाजा डॉ. साहब के सारे प्रयास बेकार साबित हुए। डॉ. साहब, गुड्डू भइया की चरखी पकड़कर उनकी पतंग के पैंच देखते रह गए।
कहा जाता है कि पार्टी से चुनाव लड़ने की हरी झंडी पाने के लिए डॉ. अशोक अग्रवाल ने भी बहिनजी को इसी तरह कई हाथी भेंट किए थे जिस तरह योगेश द्विवेदी कर रहे हैं लेकिन कोई हाथी फिर काम नहीं आया। पार्टी के लोगों का कहना है कि बहिनजी ने सारे हाथियों का डॉ. अशोक अग्रवाल को किश्‍तों में ”रिटर्न गिफ्ट” दे दिया।
तब से डॉ. अशोक अग्रवाल समाजवादी हो गए, और समाजवादी पार्टी की ओर से पिछला विधानसभा चुनाव भी लड़ लिए। ये बात अलग है कि मुलायम के कुनबे की इस पार्टी के लिए कृष्‍ण की भूमि अब तक ऊसर साबित हुई है लिहाजा डॉ. अशोक बहुत कम मतों से तीसरे नंबर पर रहे। इस बार वह फिर पूरी तैयारी में हैं।
यह सर्वविदित है कि बहिनजी के दरबार में इस पुरानी कहावत पर पूरी तरह अमल होता है कि समझदार लोग राजा, गुरू और तीर्थस्‍थान से मुलाकात करने कभी खाली हाथ नहीं जाते। अपनी हैसियत के अनुसार पत्र-पुष्‍प की भेंट लेकर ही मिलते हैं। ऐसे में योगश द्विवेदी बहिनजी से खाली हाथ मिलते भी कैसे। हाथी चूंकि पार्टी का चुनाव चिन्‍ह भी है और बहिनजी को अति प्रिय भी है इसलिए हाथी से अच्‍छी भेंट कोई हो नहीं सकती थी।
योगेश द्विवेदी ने बहिनजी को जो हाथी भेंट किया, पता नहीं उसका नंबर कौन सा था लेकिन फोटो देखकर इतना अवश्‍य पता लग रहा है कि इस हाथी की भेंट तब चढ़ाई गई थी जब मथुरा के कद्दावर जाट नेता चौधरी लक्ष्‍मीनारायण भी हाथी की पूंछ पकड़कर अपनी राजनीतिक वैतरणी पार करने में लगे थे।
इन दिनों चौधरी लक्ष्‍मीनारायण कमल का फूल लेकर चल रहे हैं और उसी के बल पर उनकी धर्मपत्‍नी ममता चौधरी मथुरा जिला पंचायत की अध्‍यक्ष बनी बैठी हैं।
राजनीति की बिसात पर खेले जाने वाले शतरंज के खेल में प्‍यादों की अहमियत तो बहुत होती है किंतु उनके ”सिर” हमेशा खेल खेलने वालों के हाथ रहते हैं।
यही कारण है कि कभी बसपा के निष्‍ठावान कार्यकर्ता डॉ. अशोक अग्रवाल आज समाजवादी पार्टी के निष्‍ठावान सिपाही हैं और थोड़े दिनों पहले तक हाथी के झंडे वाली हूटर लगी गाड़ी पर लालबत्‍ती लगाए मंत्री पद को सुशोभित करने वाले चौधरी लक्ष्‍मीनाराण के कंधों पर भाजपा का कमल खिलाने की जिम्‍मदारी है।
खैर, योगेश द्विवेदी का हाथी यूपी के विधानसभा चुनावों तक किस करवट बैठता है, यह तो बता पाना फिलहाल संभव नहीं है लेकिन उनका बहिन जी को हाथी भेंट करता हुआ चित्र यह जरूर बताता है कि उम्‍मीदवारी की घोषणा चाहे जिस समय भी होती हो लेकिन उम्‍मीदवारी की प्रत्‍याशा में पता नहीं कितने हाथी और कब-कब भेंट करने पड़ते हैं।
ऊंट तो किसी पार्टी का चुनाव चिन्‍ह है नहीं इसलिए ”ऊंट के मुंह में जीरा” वाली कहावत यहां बेमानी है परंतु नई कहावत यह जरूर बनती है कि हाथी की सवारी के लिए हाथी को केले या गन्‍ना खिलाने का मतलब टिकट पाने की गारंटी कतई नहीं है।
हाथी का पेट बहुत बड़ा होता है, हाथी की भूख भी बहुत बड़ी होती है। ऐसे में जो उसके पेट की भूख समय पर पूरी तरह शांत कर सके, उसकी क्षुधा मिटा सके, हाथी उसका होता है। बाकी तो अंतिम सत्‍य वही है कि ”जाकौ हाथी, वाकौ नाम…चाहे घूम-फिर आवै गांव-गांव।
-लीजेंड न्‍यूज़
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