गुरुवार, 30 जून 2016

BSP के सतीश मिश्रा की संपत्‍ति में 698 प्रतिशत का इजाफा

नई दिल्‍ली। Rajya Sabha के लिए चुने गए 57 नए सदस्यों में से यूं तो लगभग सभी करोड़पतियों की श्रेणी में हैं लेकिन BSP के सतीश मिश्रा की संपत्‍ति में 698 प्रतिशत का इजाफा हुआ है। इनमें प्रफुल्ल पटेल, कपिल सिब्बल और सतीश चंद्र मिश्रा सबसे ऊपर हैं। इनमें से करीब 55 सदस्य यानि 96 प्रतिशत करोड़पति हैं। इनमें से 13 सदस्यों के खिलाफ आपराधिक केस चल रहे हैं।
इन सांसदों के पास सबसे ज्यादा संपत्ति
ये सर्वेक्षण एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म की ओर से किया गया। इसके अनुसार प्रफुल्ल पटेल के पास करीब 252 करोड़ रुपए की संपत्ति है, वहीं कपिल सिब्बल के पास 212 करोड़ और बीएसपी के सतीश चंद्र मिश्रा के पास 193 करोड़ रुपए की संपत्ति आंकी गई है। राज्यसभा के नवनिर्वाचित सभी सदस्यों के पास औसतन 35.84 करोड़ रुपए की संपत्ति है।
इनकी संपत्ति में सबसे ज्यादा हुई बढ़ोत्‍तरी
बीजेपी के अनिल दवे की आय सबसे ज्यादा बढ़ी है। इनकी संपत्ति करीब 2,111 प्रतिशत बढ़ी है। 2.75 लाख से ये 60.97 लाख हो गई है। शिवसेना के संजय राउत की संपत्ति में 841 प्रतिशत की बढ़ोत्‍तरी हुई है। ये 1.51 करोड़ से बढ़कर 14.22 करोड़ हो गई है। मिश्रा की संपत्ति करीब 698 प्रतिशत बढ़ी है। मिश्रा की संपत्ति पहले 24.18 करोड़ थी जो अब 193 करोड़ रुपए हो गई है।
13 सदस्यों के खिलाफ आपराधिक केस दर्ज
इस सर्वेक्षण में सामने आया कि राज्यसभा के 13 सदस्यों के खिलाफ आपराधिक केस दर्ज हैं। इनमें से सात लोगों के खिलाफ गंभीर अपराध जैसे मर्डर, धोखाधड़ी, प्रॉपर्टी से जुड़ी बेईमानी और चोरी जैसे केस दर्ज हैं। भाजपा के 3, सपा के 2, कांग्रेस, बीजेडी, बसपा, आरजेडी, डीएमके, शिवसेना और वाईएसआरसीपी के एक सदस्यों के खिलाफ आपराधिक केस दर्ज हैं।
यूपी के 11 राज्यसभा सदस्यों में 4 के खिलाफ केस दर्ज है, बिहार के 5 सदस्यों में से 2, महाराष्ट्र के 6 सदस्यों में से 1, तमिलनाडु के 6 सदस्यों में से एक, कनार्टक के 4 सदस्यों में 1, आंध्रप्रदेश के 4 सदस्यों में 1, मध्यप्रदेश के 3 सदस्यों में से 1, उड़ीसा के3 सदस्यों में से 1 और हरियाणा के 2 सदस्यों में से 1 के खिलाप केस दर्ज है। सबसे कम संपत्ति बीजेपी के अनिल माधव दवे के पास 60 लाख दर्ज हुई है।

सोमवार, 27 जून 2016

चुल्‍लू पर पानी में डूब कर मर क्‍यों नहीं जाते ये जन-प्रतिनिधि!

चुल्‍लू पर पानी में डूब कर मर क्‍यों नहीं जाते ये जन-प्रतिनिधि।!
माफ कीजिए…माननीयों के प्रति ये शब्‍द हमारे नहीं, उस जनता के हैं जिसे जनार्दन यानि भगवान का दर्जा प्राप्‍त है।
जनता का यह आक्रोश इसलिए और मायने रखता है कि यूपी में चुनाव होने जा रहे हैं और लगभग हर राजनीतिक दल मिशन 2017 को फतह करने की पूरी तैयारी में जुटा है।
ऐसे में सवाल यह उठता है कि जिन अपने जन-प्रतिनिधियों को सामान्‍यत: जनता जनार्दन सिर-आंखों पर बैठाए रहती है और उनके लिए पलक पांवड़े बिछाए रहती है, उनके प्रति उसके मन में इतना आक्रोश क्‍यों भर गया?
इस जनआक्रोश की वजह है विश्‍व प्रसिद्ध धार्मिक जनपद मथुरा में अघोषित विद्युत कटौती से उपजे वो हालात जिन्‍होंने लोगों की रातों की नींद तथा दिन का चैन, सब छीन लिया है। न लोग रात में चैन से सो पाते हैं और न दिन में अपना काम सुचारू रख पाते हैं लेकिन जन-प्रतिनिधि हैं कि विकराल होती इस जन समस्‍या के बावजूद पूरी तरह चुप्‍पी साधे बैठे हैं। किसी राजनीतिक दल के किसी जन-प्रतिनिधि ने इस इतनी बड़ी समस्‍या पर कोई आंदोलन, धरना या प्रदर्शन करना जरूरी नहीं समझा लिहाजा बिजली विभाग के अधिकारी पूरी तरह मनमानी पर उतरे हुए हैं।
गांव-देहात की बात तो दूर, जिला मुख्‍यालय में शहर के अंदर प्रतिदिन 10 से 12 घंटे की बिजली कटौती की जा रही है। बिजली का मिनीमन बिल तो हर कनैक्‍शन पर निर्धारित है किंतु मिनीमम सप्‍लाई निर्धारित नहीं है। सप्‍लाई पूरी तरह बिजली अधिकारी एवं कर्मचारियों के रहमो-करम पर निर्भर है।
घोर आश्‍चर्य की बात यह है कि बिजली चाहे आठ घंटे आए अथवा दस घंटे किंतु बिल हर महीने बढ़कर ही आता है। बिजली विभाग का यह कारनामा जनता के जले पर नमक छिड़कने का काम कर रहा है।
अब जरा गौर करें विकराल होती इस जनसमस्‍या को लेकर जन-प्रतिनिधियों के रवैये पर ।
इसमें सबसे पहला नंबर आता है जिले की जन-प्रतिनिधि सांसद हेमा मालिनी का। अभिनेत्री से भाजपा नेत्री बनी हेमा मालिनी अपने संसदीय क्षेत्र मथुरा के लोगों को टीवी पर आरओ सिस्‍टम अथवा बाबा रामदेव के बिस्‍किट बेचते ही नजर आती हैं।
हाल ही में हुए जवाहर बाग कांड का जायजा लेने भी वह तब मथुरा आईं जब उनकी अपनी पार्टी के बड़े नेताओं सहित देशभर से उन्‍हें लानत-मलानत भेजीं जाने लगीं, वर्ना वह तो टि्वटर पर अपनी फिल्‍मी शूटिंग के चित्र शेयर करने में मशगूल थीं।
2014 के लोकसभा चुनावों में भारी बहुमत से जीत दर्ज करने के बाद कभी याद नहीं आता कि बतौर सांसद हेमा मालिनी ने अपने संसदीय क्षेत्र की किसी जनसमस्‍या को लेकर कोई स्‍टैप उठाया हो। मथुरा के लिए सही मायनों में वह आज भी स्‍वप्‍न सुंदरी ही बनी हुई हैं।
इसके बाद नंबर आता है मथुरा-वृंदावन क्षेत्र के कांग्रेसी विधायक प्रदीप माथुर का। इन दिनों जब उनके क्षेत्र की जनता बिजली की किल्‍लत से त्राहि-त्राहि कर रही है, तब वह लखनऊ में मुख्‍यमंत्री अखिलेश यादव के साथ बैठकर इफ्तार पार्टी की दावत खाते तो दिखाई देते हैं लेकिन शहर में या शहर के लिए कुछ करते दिखाई नहीं देते।
कहने को प्रदीप माथुर के कांग्रेसी विधायक होने के बावजूद मुख्‍यमंत्री अखिलेश यादव से बहुत अच्‍छे संबंध हैं और उनके चाचा शिवपाल यादव से घनिष्‍ठता के चलते वह आए दिन कहीं न कहीं नारियल फोड़ते रहते हैं किंतु जब बात आती है विद्युत समस्‍या के समाधान की तो प्रदीप माथुर अचानक विपक्षी दल के विधायक हो जाते हैं।
इसी कड़ी में तीसरा नंबर आता है जिले की राजनीति में चाणक्‍य की उपमा प्राप्‍त पंडित श्‍यामसुंदर शर्मा का। 6 बार के विधायक तथा पूर्व कबीना मंत्री श्‍यामसुंदर शर्मा का चुनाव क्षेत्र भले ही मांट हो लेकिन रहते वो शहर में ही हैं। शहर में रहते हुए शहर की विस्‍फोटक होती बिजली समस्‍या को उन्‍होंने भी कभी गंभीरता से नहीं लिया। ऐसे में यह अंदाज लगाना कोई बहुत मुश्‍किल नहीं कि अपने क्षेत्र मांट की इस समस्‍या को वह कितनी गंभीरता से लेते होंगे। संभवत: यही कारण है कि मांट विधानसभा क्षेत्र में अजेय समझे जाने वाले श्‍यामसुंदर शर्मा को पिछली बार हार का मुंह देखना पड़ा। श्‍याम को शिकस्‍त देने वाले रालोद युवराज जयंत चौधरी ने यदि लोकसभा की सदस्‍यता बनाए रखने के लिए विधानसभा की सदस्‍यता से त्‍यागपत्र न दिया होता और जयंत के इस कदम से नाराजगी के चलते श्‍यामसुंदर शर्मा को उप चुनाव में जीत हासिल न हुई होती आज वह पूर्व विधायक बने बैठे होते। श्‍यामसुंदर शर्मा ने हाल ही में एकबार फिर बसपा ज्‍वाइन की है ताकि 2017 के आगामी चुनावों में कोई ऊंच-नीच न हो जाए किंतु यदि जनसमस्‍याओं के प्रति उनकी उदासीनता इसी प्रकार बनी रही तो चौंकाने वाला निर्णय भी सामने आ सकता है।
चौथा नंबर है राष्‍ट्रीय लोकदल के अब एकमात्र शेष विधायक पूरन प्रकाश का। जनपद की सुरक्षित गोकुल सीट से विधायक पूरन प्रकाश यूं तो काफी अनुभवी व सभ्रांत राजनीतिज्ञ माने जाते हैं लेकिन बिजली जैसी समस्‍या के समाधान हेतु उनका भी कोई योगदान आजतक सामने नहीं आया। अन्‍य विधायकों की तरह रहते वह भी शहर के सबसे महंगे इलाके कृष्‍णा नगर में हैं लेकिन शहर या कृष्‍णा नगर के लिए भी उन्‍होंने ऐसा कुछ नहीं किया जिसका उल्‍लेख किया जा सके। ऐसा लगता है जैसे विरासत में मिली राजनीति का तो पूरन प्रकाश पूरा मजा ले रहे हैं किंतु अपने स्‍वर्गीय पिता मास्‍टर कन्‍हैया लाल की इस सीख पर अमल नहीं कर रहे कि जनसेवा का ही दूसरा नाम राजनीति है। यही कारण है कि पूरन प्रकाश जनता के बीच उतना मान-सम्‍मान कभी हासिल नहीं कर पाए जितना उनके पिता ने बतौर विधायक ताजिंदगी हासिल किया।
पूरन प्रकाश पर भी वही बात लागू होती है कि जब वो अपने निवास वाले क्षेत्र की विद्युत समस्‍या के समाधान को कुछ नहीं कर रहे तो अपने चुनाव क्षेत्र के लिए क्‍या कर रहे होंगे। जाहिर है उनके भी चुनाव क्षेत्र की बिजली के मामले में स्‍थिति दूसरे देहाती इलाकों से अलग कुछ नहीं होगी।
जनपद के पांचवें जनप्रतिनिधि हैं ठाकुर तेजपाल सिंह। कई बार की विधायकी और मंत्री पद पर भी रह लेने का अनुभव प्राप्‍त छाता क्षेत्र के ये विधायक शहर के दूसरे पॉश इलाके मयूर बिहार स्‍थित अपनी आलीशान कोठी में रहते हैं। ठाकुर तेजपाल सिंह ने आगामी चुनावों में अपनी विधायकी बरकरार रखने के लिए तो काफी समय पहले से ही राजनीतिक गुणा-भाग के तहत रालोद छोड़ बसपा का दामन थाम लिया और उससे भी पहले अपने पुत्र को बसपा ज्‍वाइन करा दी किंतु जन समस्‍याओं से उनका भी सरोकार दूसरे विधायकों की तरह ही है। बिजली की समस्‍या के समाधान को आजतक उन्‍होंने कुछ ऐसा नहीं किया जिसका जिक्र किया जा सके। शहर में रहते हुए वह शहर की इस भीषण समस्‍या से कोई वास्‍ता नहीं रखते। सर्वविदित है कि जनपद के औद्योगिक क्षेत्र से सटा होने के बावजूद उनका अपना छाता चुनाव क्षेत्र आजतक बिजली की समस्‍या से मुक्‍त नहीं हो पाया। तब भी नहीं जब ठाकुर तेजपाल सिंह प्रदेश के कद्दावर मंत्रियों में शुमार किए जाते थे।
जन-प्रतिनिधियों की श्रृंखला में आखिरी नाम आता है गोवर्धन क्षेत्र से बसपा के विधायक राजकुमार रावत का। दो बार के विधायक राजकुमार रावत कहने को तो जिले के सबसे युवा रानीतिज्ञ हैं और इसलिए काफी सक्रिय माने जाते हैं लेकिन यदि बात करें बिजली समस्‍या के समाधान में उनके अपने किसी योगदान की तो बताने को कुछ नहीं है। वह अकेले ऐसे विधायक हैं जो मथुरा के यमुना पार क्षेत्र में रहते हैं लेकिन न तो यमुना पार क्षेत्र की विद्युत समस्‍या आज तक ठीक करा पाए और न अपने चुनाव क्षेत्र गोवर्धन की, जबकि गोवर्धन की गिनती विश्‍व प्रसिद्ध धार्मिक क्षेत्रों में होती है। लक्‍खी मेले का खिताब प्राप्‍त मुड़िया पूर्णिमा के अलावा गोवर्धन को शायद ही कभी अबाध विद्युत आपुर्ति की गई हो अथवा कभी राजकुमार रावत ने वहां की इस समस्‍या के समाधान का कोई गंभीर प्रयास किया हो।
सत्‍ताधारी दल समाजवादी पार्टी चूंकि आजतक कभी मथुरा में अपना खाता ही नहीं खोल पाई इसलिए उसका कोई जन-प्रतिनिधि यहां नहीं हैं अलबत्‍ता नेताओं की कोई कमी भी नहीं है।
समाजवादी पार्टी के जिलाध्‍यक्ष पद पर काबिज तुलसीराम शर्मा का हाल कुछ ऐसा है जैसा चुनावों के दौरान किसी डमी प्रत्‍याशी का होता है।
वह लिखा-पढ़ी में तो सत्‍ताधारी दल के जिलाध्‍यक्ष पद को सुशोभित कर रहे हैं किंतु जन समस्‍याओं से उनका दूर-दूर तक कोई वास्‍ता कभी रहा नहीं। अलबत्‍ता उनकी कार्यप्रणाली किसी कबीना मंत्री सरीखी है जिनका मोबाइल फोन तक उनके शागिर्द लेकर चलते हैं, और जिससे बात कराना चाहते हैं उससे कराते हैं और जिससे बात नहीं कराना चाहते वह चाहे पूरे दिन कोशिश करता रहे, कराते ही नहीं हैं।
ऐसा लगता है जैसे वह ठान बैठे हों कि मथुरा में समाजवादी पार्टी का खाता इस बार भी खुलने नहीं देंगे। ऐसे में उनसे बिजली की भीषण होती समस्‍या के समाधान हेतु कुछ करने की उम्‍मीद लगाना, अपनी अक्‍ल पर सवालिया निशान लगाने जैसा है।
समाजवादी पार्टी में दूसरे अहम् पद को सुशोभित कर रहे डॉ. अशोक अग्रवाल जरूर हाथ-पैर मारते दिखाई देते हैं किंतु उनके प्रयास फलीभूत होंगे, इसकी संभावना काफी कम है।
सपा के महानगर अध्‍यक्ष पद पर काबिज डॉ. अशोक अग्रवाल चूंकि मथुरा-वृंदावन क्षेत्र से समाजवादी पार्टी के प्रत्‍याशी भी हैं इसलिए वह शहरी जनता को साधने की कोशिश में बिजली की समस्‍या पर भी अधिकारियों से वार्तालाप करते रहते हैं लेकिन उनके वार्तालाप करने का अंदाज यह बताता है कि नतीजा ढाक के तीन पात ही रहना है। अधिकारी उन्‍हें भी इस आशय की मीठी गोली देने से नहीं चूकते कि आप ही की तो सरकार है, आप मथुरा को विद्युत कटौती से मुक्‍त क्‍यों नहीं कराते।
अधिकारियों की मानें तो वह पूरी तरह निर्दोष हैं और जितनी भी बिजली कट रही है, वह लखनऊ से या यूं कहें कि लखनऊ के निर्देश पर कट रही है। वह बेचारे तो आदेश-निर्देशों का बस पालने करते हैं। बात चाहे सख्‍ती से बिल का भुगतान वसूलने की हो अथवा उतनी ही सख्‍ती व बेरहमी से एक बार में लगातार पांच-पांच घंटे बिजली काटने की, वह शासन के निर्देशों का ही अक्षरश: पालने करते हैं।
उधर सूबे के मुखिया अखिलेश यादव की बात पर भरोसा करें तो प्रदेश में बिजली की कोई किल्‍लत नहीं है। उनके आदेश-निर्देशों पर गौर करें तो वह यह भी कहते हैं कि रात के समय शहर को बिजली की कटौती से पूरी तरह मुक्‍त रखा जाए जिससे लोग चैन की नींद ले सकें लेकिन अधिकारी कहते हैं कि हर बार वह लखनऊ के आदेश पर ही बिजली काटते हैं।
बीती रात भी मथुरा शहर में रात 12 बजे काटी गई लाइट सुबह 4 बजे सुचारु हो सकी। शहर की बिजली व्‍यवस्‍था का यही हाल पिछले एक हफ्ते से है लेकिन किसी के कानों पर जूं तक नहीं रैंग रही। जूं इसलिए नहीं रैंग रही क्‍योंकि मथुरा में बिजली की सप्‍लाई सीधे राजधानी लखनऊ की मोहताज है और मथुरा में सत्‍ताधारी दल का प्रतिनिधित्‍व कोई करता नहीं।
इन हालातों में यदि जनता यह कहे कि चुल्‍लू पर पानी में डूब कर मर क्‍यों नहीं जाते ये जन-प्रतिनिधि…तो और क्‍या कहे। जनता के पास जनप्रतिनिधियों को कोसने के अलावा रह क्‍या जाता है। हालांकि अच्‍छी बात एक यही है कि चुनाव लगभग सिर पर आ चुके हैं और जनता अपने इसी अमोघ अस्‍त्र को इस्‍तेमाल करने का इंतजार कर रही है।
वैसे भी उसके पास इंतजार करने अथवा कोसने के अलावा है ही क्‍या। कभी वोट देने का इंतजार तो कभी वोट देने के बाद होने वाले पछतावे को अगला वोट देकर दूर करने का इंतजार। एकमुश्‍त पांच-पांच घंटे तथा बीच में दो-दो, तीन-तीन घंटे की विद्युत कटौती झेलते हुए हर पांच साल में एकबार सरकार चुनने के अधिकार का इंतजार और उसके बाद सरकार के रहमो-करम का इंतजार।
चुल्‍लूभर पानी में डूब मरने जैसी प्रतिक्रिया क्‍या अब उस खीझ की ओर इशारा कर रही है जहां से कानून हाथ में लेने की प्रक्रिया शुरू होने लगती है। समय रहते इस खीज में छिपे आक्रोश को जन-प्रतिनिधि भांप लें तो बेहतर वर्ना नतीजा भगवान भरोसे तो है ही।
एक छोटी सी कहानी इस स्‍थिति को समझने में शायद कुछ मदद कर सके।
कहानी यूं है कि किसी अदालत में एक व्‍यक्‍ति पर हत्‍या का केस चल रहा था। न्‍यायाधीश ने जब उससे पूछा कि क्‍या उसने यह हत्‍या की है, तो उसने बड़े सहज भाव से अपना जुर्म कबूल कर लिया। जज को उसकी स्‍वीकारोक्‍ति पर काफी आश्‍चर्य हुआ लिहाजा उसने कुछ सहानुभूति दिखाते हुए आरोपी से पूछा कि आखिर उसने हत्‍या की क्‍यों ?
आरोपी का इस पर जवाब था कि क्‍या बताऊं हुजूर, मौसम ही कुछ ऐसा था कि मुझसे कत्‍ल हो गया।
जज को आरोपी के इस उत्‍तर ने और आश्‍यर्च में डाल दिया। जज की उत्‍सुकता पहले से कहीं अधिक बढ़ चुकी थी इसलिए उसने कहा कि मौसम की वजह से तुमने कत्‍ल कर दिया, बात कुछ हजम नहीं हुई। विस्‍तार से पूरी बात बताओ।
आरोपी कहने लगा- माई-बाप, आप तो विद्वान न्‍यायाधीश हैं। मैं इतना पढ़ा-लिखा कहां। बताने को कुछ और नहीं है मेरे पास। क्‍या आप इतना भी नहीं समझ सकते कि जब कोई इंसान मौसम के कारण रोमांटिक हो सकता है, मौसम की वजह से खिन्‍न, चिढ़चिढ़ा और उदास हो सकता है, मौसम के चलते कविता, कहानियां तथा चित्रों की रचना कर सकता है, तो क्‍या मौसम के प्रभाव से हत्‍या नहीं कर सकता।
अब जज की समझ में भी कातिल की बात भली-भांति आ चुकी थी।
-सुरेन्‍द्र चतुर्वेदी

शनिवार, 25 जून 2016

खौफ के साये में खाकी: पुलिस ही पुलिस की सबसे बड़ी दुश्‍मन

मथुरा में 2 जून को जवाहर बाग खाली कराते वक्‍त एसपी सिटी तथा एसओ की शहादत के बाद भी दो उप निरीक्षकों को मौत के घाट उतारा जा चुका है
ड्यूटी के लिए खाक में मिल जाने की प्रेरणा देने वाली खाकी इस समय खुद खतरे में है। यूपी में खाकी पर मंडरा रहे खतरे का आलम यह है कि हर रोज Police मजामत व शहादत की खबरें अखबारों की सुर्खियां बन रही हैं। मथुरा में 2 जून को जवाहर बाग खाली कराते वक्‍त एसपी सिटी तथा एसओ की शहादत के बाद भी दो उप निरीक्षकों को मौत के घाट उतारा जा चुका है। एक को बदमाशों ने बदायूं में मार डाला तो दूसरे को हापुड़ में।
2 जून से पहले भी पुलिस पर हमलावर होने की घटनाएं लगातार मिलती रही हैं।
कल यानि शुक्रवार को आगरा के आंवलखेड़ा में खनन माफिया ने पुलिस को दौड़ा-दौड़ा कर पीटा।
इससे पहले मथुरा में नेशनल हाईवे पर लावारिस खड़े ट्रक के अंदर गौवंश की बेरहमी से हुई मौत के बाद लोगों के आक्रोश ने कानून-व्‍यवस्‍था की पोल खोलकर रख दी थी। पूरे दो दिन नेशनल हाईवे पर गौवंश से भरा ट्रक खड़ा रहा और इलाका पुलिस ने यह तक जानने की जहमत नहीं उठाई कि आखिर यह ट्रक इस तरह खड़ा क्‍यों हैं तथा उसके अंदर है क्‍या ?
काफी उपद्रव हो जाने के बाद कोतवाल वृंदावन तथा रिपोर्टिंग चौकी प्रभारी जैत को निलंबित करके लोगों का आक्रोश शांत करने की कोशिश की गई है।
ऐसे में इस तरह के सवाल उठना लाजिमी है कि आखिर क्‍यों बदमाशों के अंदर पुलिस का भय पूरी तरह खत्‍म होता जा रहा है ?
क्‍यों खाकी से सिर्फ शरीफ लोग खौफ खाते हैं और बदमाश उन्‍हें कहीं अपना सहयोगी तो कहीं अपना प्रतिद्वंदी मानकर चलते हैं ?
खाकी की इमेज क्‍यों सिर्फ और सिर्फ वर्दीधारी अपराधियों की बनकर रह गई है और कैसे उसका इकबाल पूरी तरह खत्‍म होता जा रहा है ?
क्‍यों सामाजिक लोग भी अब पुलिस के खिलाफ एकजुट होने लगे हैं और आपराधिक तत्‍व उस पर हमला करने से नहीं चूकते ?
इसमें कोई दोराय नहीं कि खाकी पर खादी के आधिपत्‍य ने पुलिस के इकबाल को खत्‍म करने में बड़ी भूमिका अदा की है, किंतु खाकी की वर्तमान दुर्दशा के लिए पुलिस खुद भी कम जिम्‍मेदार नहीं है।
पुलिस की इस दुर्दशा का सबसे बड़ा कारण है, उसके द्वारा की जाने वाली वो अवैध कमाई जो उनके वेतन-भत्‍तों से भी कई गुना अधिक होती है।
इस अवैध कमाई ने पुलिस की छवि एक ऐसे सड़क छाप गुंडे की बनाकर रख दी है जो लोगों को लूटने खसोटने के लिए किसी भी स्‍तर तक जा सकता है और जिसका एकमात्र धर्म तथा कर्म आमजन में भय व्‍याप्‍त कर अपना उद्देश्‍य पूरा करना होता है।
बेशक दूसरे तमाम सरकारी महकमे अवैध कमाई के मामले में पुलिस से कहीं पीछे नहीं हैं किंतु पुलिसिया कार्यप्रणाली ने जितनी बदनामी हासिल की है, उतनी किसी दूसरे विभाग ने नहीं की।
पुलिस की अवैध कमाई और उसकी बदनामी के कुछ महत्‍वपर्णू कारणों को चंद उदाहरणों से समझा जा सकता है।
उदाहरण के तौर पर एक अनुमान के अनुसार विश्‍व प्रसिद्ध धार्मिक स्‍थल मथुरा जनपद के शहरी क्षेत्र में ही पर्चा सट्टे की करीब 80 गद्दियां संचालित होती हैं। प्रत्‍येक गद्दी से पुलिस 90 हजार रुपया हर महीना लेती है। इस तरह शहरी पुलिस के पास हर माह सट्टे के अवैध करोबार से 72 लाख रुपया महीना आता है।
एमसीएक्‍स का गोरखधंधा भी इस जिले में खूब फल-फूल रहा है और क्रिकेट के सट्टे में मथुरा अपनी एक अलग पहचान बना चुका है। एमसीएक्‍स का अवैध धंधा तो अब तक दर्जनों लोगों की जान ले चुका है लेकिन पुलिस के लिए वह भी अवैध कमाई का अच्‍छा स्‍त्रोत है। एमसीएक्‍स का संचालन चूंकि पुलिस के सहयोग बिना संभव ही नहीं है इसलिए एमसीएक्‍स संचालकों को एक ओर जहां पुलिस के संरक्षण की जरूरत रहती है वहीं दूसरी ओर वसूली के लिए भी पुलिस का सहयोग जरूरी है।
इसी प्रकार डग्‍गेमार वाहनों में थ्री व्‍हीलर पुलिस की अतिरिक्‍त आमदनी का बड़ा जरिया हैं। जनपदभर में चलने वाले छोटे और बड़े टेम्‍पो से हर थाने-चौकी के लिए अवैध वसूली की जाती है। अनुमानत: जिले में लगभग 1500 टेम्‍पो चलते हैं और इन टेम्‍पो से वसूली का एवरेज 250 रुपया प्रति टेम्‍पो प्रतिमाह निकलता है। इस तरह पुलिस पौने चार लाख रुपए हर महीने टेम्‍पो चालकों से वसूलती है। इस काम को पुलिस ने जिन गुर्गों को लगा रखा है, उन्‍हें ठेकेदार कहते हैं। पुलिस इन टेम्‍पो चालकों से बेगार भी लेती है जिसमें चौकी-थानों के लिए पानी लेकर आने से लेकर इधर-उधर घुमाने, गश्‍त के लिए ले जाने तथा नाते-रिश्‍तेदारों को ब्रजदर्शन कराना तक शामिल है।
इसके अलावा जिलेभर में दूसरे बड़े अवैध डग्‍गेमार वाहन दौड़ते हैं जिनमें बसें तो हैं ही, ट्रक तथा बड़ी संख्‍या में जुगाड़ भी हैं। इन सभी वाहनों से पुलिस की महीनेदारी बंधी हुई है। पुलिस की मेहरबानी के बिना जिलेभर में किसी मार्ग पर कोई वाहन न तो सवारी ढो सकता है और न माल।
जुगाड़ तथा ट्रैक्‍टर तो चूंकि सबसे अधिक ईंट ढोने के काम में प्रयोग होते हैं और इसलिए वह पुलिस की कमाई का बड़ा जरिया हैं।
यहां यह जान लेना जरूरी है कि ताज ट्रपेजियम जोन में आने के कारण मथुरा की सीमा के अंदर ईंट भट्टा संचालित करना एक बड़ा अपराध है, बावजूद इसके न केवल यहां खुलेआम ईंटभट्टे चलते हैं बल्‍कि राष्‍ट्रीय राजमार्ग पर नियम-कानूनों को धता बताते हुए ईंट मंडी भी लगती है। सुबह से ही पूरे राजमार्ग पर सैकड़ों की संख्‍या में जगह-जगह ईंटों के ट्रैक्‍टर व जुगाड़ खड़े देखे जा सकते हैं। सड़क को घेरकर अवैध ईंट मंडी बना देने वाले इन वाहनों की वजह से आए दिन दुर्घटनाएं होती हैं लेकिन न कोई बोलने वाला है और न सुनने वाला।
यमुना से निकलने वाली बालू और जिले भर में हो रहा मिट्टी का अवैध खनन भी पुलिस के लिए किसी वरदान से कम नहीं।
राजस्‍थान सीमा से लगे मथुरा के गोवर्धन व बरसाना आदि में अरावली पर्वत श्रृंखला का अवैध खनन और यमुना से मछली व कछुओं की तस्‍करी में भी पुलिस की भूमिका से इंकार नहीं किया जा सकता।
नशीले पदार्थों की तस्‍करी जिसमें शराब भी शामिल है, के लिए मथुरा अच्‍छी-खासी शौहरत रखता है। एक ओर हरियाणा तथा दूसरी ओर राजस्‍थान की सीमा से सटे होने तथा राष्‍ट्रीय राजधानी दिल्‍ली से उसकी बहुत कम दूरी इस काम में मददगार है।
सर्वविदित है कि मथुरा में हेरोइन, चरस व गांजे के अतिरिक्‍त शराब, स्‍मैक तथा ब्राउन शुगर जैसे महंगे नशीले पदार्थों की भी अच्‍छी खपत है और इसलिए इन्‍हें बेचने वालों का यहां बड़ा नेटवर्क है।
वृंदावन, गोवर्धन तथा बरसाना में मौजूद तथाकथित विदेशी ”भक्‍त” इन नशीले पदार्थों का सेवन हर रोज करते देखे जा सकते हैं। ऐसे में यह अंदाज लगाना कोई मुश्‍किल काम नहीं कि उन्‍हें वह पदार्थ कहां से व कैसे मिलता होगा।
जाहिर है कि पुलिस की मदद के बिना किसी देसी या विदेशी नशीले पदार्थ की बिक्री के बारे में सोचा तक नहीं जा सकता। ड्रग्‍स के यह तस्‍कर पुलिस के पास अच्‍छा-खासा पैसा पहुंचाते हैं।
इन तमाम अवैध धंधों से ऊपर मथुरा में तेल से होने वाला वह खेल है जिसकी धार मथुरा रिफाइनरी से निकलती है। तेल के इस खेल ने मथुरा के कई लोगों को देखते-देखते रंक से राजा बना दिया। कल तक जिनकी हैसियत हजारों की नहीं थी, आज वह करोड़ों के मालिक हैं। तेल के इस खेल को पुलिस के साथ-साथ प्रशासन व स्‍थानीय नेताओं का भी पूरा वरदहस्‍त प्राप्‍त है। जिले में शायद ही कोई ऐसा बड़ा नेता हो, जो तेल के खेल में परोक्ष या अपरोक्ष भूमिका न निभाता रहा हो। तेल की बहती गंगा में अधिकांश नेता हाथ धोते हैं। रहा सवाल पुलिस का, तो पुलिस की मर्जी के बिना न तो तेल का कोई टैंकर जिले की सीमा से बाहर जा सकता है और न सड़क पर खड़ा हो सकता है। करोड़ों रुपए के इस खेल में पुलिस की भी अच्‍छी-खासी हिस्‍सेदारी रहती है।
कहने का तात्‍पर्य यह है कि यूपी के एक सी ग्रेड जिले मथुरा का जब यह हाल है तो बाकी उन जिलों का क्‍या होगा जो ए तथा बी ग्रेड जिले कहलाते हैं।
पुलिस की प्रति जिला अवैध कमाई को यदि जोड़ा जाए तो वह सरकारी खजाने से प्रति माह आने वाले उसके वेतन से भी अधिक बैठेगी।
संभवत: यही कारण है कि पेशेवर अपराधियों व अवैध काम करने वालों के मन से खाकी का खौफ दिन-प्रतिदिन खत्‍म होता जा रहा है और इसीलिए वह पुलिस पर हमलावर होने में रत्‍तीभर भी नहीं हिचकिचाते।
टेम्‍पो चालक इसके सबसे बड़े प्रतीक हैं। तिराहे-चौराहों पर बेतरतीब खड़े रहने वाले किसी टेम्‍पो चालक में पुलिस का लेशमात्र भी भय दिखाई नहीं देता। आश्‍चर्य की बात तो यह है कि यातायात व्‍यवस्‍था को सर्वाधिक बाधित करने का काम टेम्‍पो चालक पुलिस की नाक के नीचे और चौकी-थानों के सामने करते हैं। वहां करते हैं जहां पुलिस पिकेट हर वक्‍त मौजूद रहती है क्‍योंकि वह जानते हैं कि उनसे हर महीने मोटी कमाई करने वाली पुलिस उन्‍हें गीदड़ भभकी तो दे सकती है लेकिन ठोस कार्यवाही नहीं कर सकती। आखिर वह उसके लिए सोने का अंडा देने वाली मुर्गी जो हैं।
टेम्‍पो चालक तो मात्र एक उदाहरणभर हैं अन्‍यथा किसी भी धंधे को नियम-कानून से इतर जाकर सुविधाएं देने अथवा पूरी तरह अवैध धंधे को संचालित कराने में पुलिस जब खुद शामिल रहेगी तो उस धंधे को करने वाला पुलिस से डरने भी क्‍यों लगा। पुलिस उसके लिए उस स्‍थिति में सिर्फ और सिर्फ उसकी ऐसी हिस्‍सेदार बनकर रह जाती है जिसने वर्दी के रूप में कानून का जामा पहन रखा है वर्ना उसमें तथा पुलिस में फर्क ही कहां है। पुलिस के प्रति अवैध कारोबारियों तथा अपराधियों में बन रही यही छवि अब उसकी जान की दुश्‍मन बनने लगी है।
इन स्‍थिति तथा परिस्‍थितियों के बीच पुलिस की कांटे से कांटा निकालने की चिर-परिचित कार्यशैली भी अब पुलिस पर भारी पड़ने लगी है। जिस थ्‍यौरी को कभी पुलिस बदमाशों के ऊपर लागू करती थी, वह अब पुलिस ही पुलिस के ऊपर लागू करने लगी है।
पुलिस मजामत के अधिकांश मामलों की तह तक यदि जाया जाए तो पता लगेगा कि उसकी भी जड़ में कहीं न कहीं पुलिस ही है। जातिगत भेदभाव, वर्ण व्‍यवस्‍था, आरक्षण, आउट ऑफ टर्म प्रमोशन आदि के मामले तथा उससे उपजे द्वेषभाव अब पुलिस बल में इस कदर समा चुका है कि पुलिस अब संगठित बल नहीं रह गया। द्वेषभाव के दंश से कोई थाना-चौकी आज की तारीख में अछूता नहीं है। ऐसे में परस्‍पर दुश्‍मनी का भाव अंदर ही अंदर पनपने लगता है और मौका मिलने पर सबक सिखाने की मंशा मन में समा जाती है। दबिश, गश्‍त तथा अपराधियों की धर-पकड़ के मौकों पर पुलिस मजामत के मामले ऐसे ही द्वेषभाव की उपज होते हैं लेकिन पुलिस अधिकारी कभी इनकी तह में जाने का प्रयास नहीं करते। प्रथमद्ष्‍टया जिसका दोष परिलक्षित होता है, उसे लाइन भेजकर या अधिक से अधिक निलंबित करके अपने कर्तव्‍य की इतिश्री कर लेते हैं।
यही सब कारण हैं कि भले ही हर वर्ष पुलिस स्मृति दिवस (इक्कीस अक्तूबर) पर विभिन्न पुलिसबलों के सैकड़ों शहीद याद किए जाते हैं और कर्तव्य-वेदी पर प्राणों की आहुति की वार्षिक रस्म-अदायगी देश की तमाम पुलिस यूनिटों में हो रही होती है लेकिन पुलिस की छवि को लेकर भारतीय समाज में मिश्रित कुंठाएं ज्यों की त्यों बनी रहती हैं।
इस संबंध में स्वयं सर्वोच्च न्यायालय की निगरानी वाली प्रकाश सिंह कमेटी द्वारा प्रस्‍तुत ‘पुलिस सुधार’ की कवायद भी मददगार सिद्ध नहीं हो सकी क्‍योंकि तमाम राज्‍य सरकारों की इन्‍हें लागू करने में कोई रुचि नहीं है जबकि औपनिवेशिक काल वर्ष 1861 के अधिनियम पर काम करने एवं नागरिकों के लोकतांत्रिक अधिकारों की उपेक्षा करने वाली पुलिस की साख सामान्य अपराध के आंकड़ों में हेराफेरी करके ही अपनी कुशलता दिखाने और शातिर अपराधियों से मिलीभगत करने की बनकर रह गई है।
राज्‍य सरकारें जानती हैं कि पुलिस को स्वायत्तता देने का मतलब समूची राजनीतिक बिरादरी के पैरों पर कुल्‍हाड़ी मारने के समान है।
गौरतलब है कि सर्वोच्च न्यायालय का पुलिस सुधार मुख्यत: स्वायत्तता, जवाबदेही और लोकोन्मुखता जैसे पांच बिंदुओं पर केंद्रित है।
इसमें डीजीपी, आईजीपी, एसपी, एसएचओ की दो वर्ष की निश्चित तैनाती और डीजीपी और चार अन्य वरिष्ठतम पुलिस अधिकारियों के (एस्टैब्लिशमेंट) बोर्ड को उप पुलिस अधीक्षक स्तर तक के तबादलों का अधिकार देने तथा पुलिस की स्वायत्तता को मजबूत कर उसे बाह्य दबावों से मुक्त रखने की सिफारिश की गई है।
इसमें पुलिस को भी कानूनी दायरे में रखने के लिए राज्य पुलिस आयोग और पुलिस शिकायत प्राधिकरण की व्‍यवस्‍था है लेकिन राज्‍यों की रुचि लोकोन्मुख पुलिस बनाने में है ही नहीं। राज्‍य सरकारें तो यही चाहती हैं कि पुलिस उनके हाथ की कठपुतली बनी रहे और वो उसे जैसे चाहें वैसे नचाती रहें।
इन हालातों में पुलिस को खुद हवा के बदलते रुख का भली-भांति अध्‍ययन करना होगा, और समझना होगा कि यदि समय रहते उसने पैसे के पीछे अंधी दौड़ की प्रवृत्‍ति को नहीं त्‍यागा तथा ट्रांसफर-पोस्‍टिंग आदि के लिए राजनेताओं की हर जायज-नाजायज बात सिर झुकार मान लेने की आदत नहीं बदली तो आगे आने वाला समय उसके लिए कितना घातक हो सकता है।
पुलिस को यह भी समझना होगा कि कम से कम कानून-व्‍यवस्‍था के अनुपालन में उसे जाति, धर्म व संप्रदाय से ऊपर उठकर काम करना होगा तथा अपराध व अपराधियों के उन्‍मूलन में कंधे से कंधा मिलाकर चलना होगा अन्‍यथा अपराधियों के उसके ऊपर हमलावर होने का सिलसिला दिन-प्रतिदिन बढ़ेगा ही। कम होने का तो सवाल ही पैदा नहीं होता क्‍योंकि अब अपराधी, राजनेताओं से संपर्क साधने तक सीमित नहीं रहे। वह अब राजनीतिक दलों तथा राजनीतिज्ञों के हमराह हो चुके हैं।
खाकी को बदमाशों के मन में पहले जैसा खौफ पैदा करने तथा भद्रजनों के प्रति सद्भाव प्रदर्शित करने के लिए अपने सूत्रवाक्‍य ‘परित्राणाय साधुनाम विनाशाय च दुष्कृताम’ को सार्थक करना होगा, उस पर अमल करना होगा क्‍योंकि यही सूत्रवाक्‍य उसका अपना इकबाल पुनर्स्‍थापित करने की क्षमता रखता है। यही सूत्रवाक्‍य उसे बिना किसी बड़े फेर-बदल के सही मायनों में नागरिक पुलिस बनाने का माद्दा रखता है।
राजनीतिज्ञों का क्‍या है, उसके लिए पुलिस बल मात्र एक ऐसा संख्‍या बल है जिसकी शहादत भी आंकड़ों की बाजीगरी में दबा दी जायेगी और खाकी इसी प्रकार कभी नेताओं को बचाने तथा कभी आत्‍मरक्षा में खाक होती रहेगी।
-सुरेन्‍द्र चतुर्वेदी

गुरुवार, 23 जून 2016

नीरा राडिया के ”नयति” की ”नीयत” में ही खोट लगता है

नीरा राडिया के ”नयति” की ”नीयत” में ही खोट लगता है। अत्‍याधुनिक सुख-सुविधाओं से लैस ”नयति” उस हॉस्‍पील का नाम है जिसे ”2G स्‍पैक्‍ट्रम” घोटाला फेम और ”पनामा लीक्‍स” चर्चित महिला लाइजनर ”नीरा राडिया” ने मथुरा में राष्‍ट्रीय राजमार्ग नंबर- 2 के किनारे बनाया है।
बताया जाता है कि इस हॉस्‍पीटल के प्रमोटर्स में रिलायंस ग्रुप ऑफ कंपनीज के फायनेंशियल एडवाइजर दीनानाथ चतुर्वेदी के पुत्र राजेश चतुर्वेदी का नाम भी शामिल है। चार्टर्ड एकाउंटेंट दीनानाथ चतुर्वेदी मूल रूप से मथुरा के ही निवासी हैं और नीरा राडिया को हॉस्‍पीटल के लिए सारे संसाधन जुटाकर देने में दीनानाथ चतुर्वेदी अथवा उनके पुत्र राजेश की बड़ी भूमिका रही है।
चाहे बात रालोद नेता कुवंर नरेन्‍द्र सिंह से हॉस्‍पीटल के लिए जमीन किराए पर दिलाने की हो, या फिर स्‍थानीय बैंकों से हॉस्‍पीटल के लिए कर्ज मुहैया कराने की। दरअसल, कुंवर नरेन्‍द्र सिंह का निवास अवागढ़ हाउस तथा दीनानाथ चतुर्वेदी का आवास ”तुलसी विला” डैंपियर नगर में लगभग बराबर-बराबर हैं यानि दीनानाथ चतुर्वेदी मथुरा में कुंवर नरेन्‍द्र सिंह के पड़ोसी हैं इसलिए दीनानाथ चतुर्वेदी के लिए कुंवर नरेन्‍द्र सिंह से ”नयति” की खातिर संपर्क साधना बहुत आसान था।
यूं दीनानाथ चतुर्वेदी की छवि मथुरा में एक सुहृदय व्‍यक्‍ति की रही है इसलिए आम लोगों के बीच यह उत्‍सुकता भी है कि आखिर दीनानाथ चतुर्वेदी ने नयति हॉस्‍पीटल के लिए नीरा राडिया जैसी 2G तथा पनामा लीक्‍स फेम महिला का साथ क्‍यों दिया।
बताया जाता है कि लोगों की इस उत्‍सुकता का पता तब आसानी के साथ लग सकता है जब कोई दीनानाथ चतुर्वेदी की तरक्‍की के पीछे की उन कहानियों को सुन ले जो मुंबई जाकर बस गए दूसरे चतुर्वेदी परिवारों की जुबान पर हैं।
बताया जाता है कि मथुरा में भले ही दीनानाथ चतुर्वेदी एक ऐसे सुहृदय व्‍यक्‍ति की छवि रखते हों जिसने मुंबई जाकर अप्रत्‍याशित तरक्‍की हासिल की तथा मथुरा के तमाम लोगों के लिए रोजगार मुहैया कराया किंतु मुंबई में इन्‍हें लेकर चर्चित कहानियां कुछ और ही कहती हैं।
जिन्‍होंने इन कहानियों को बनते देखा है, उनकी मानें तो पता लगता है कि नीरा राडिया जैसी महिला के साथ दीनानाथ चतुर्वेदी का साथ आना, कोई चौंकाने वाली बात नहीं है।
बहरहाल, भारी-भरकम किराए की जमीन पर खड़ा किया गया यह होटलनुमा हॉस्‍पीटल पहले दिन से ही इसलिए चर्चित हो गया कि इसका उद्घाटन देश के मशहूर उद्योगपति रतन टाटा के कर कमलों से हुआ। नीरा राडिया की पहचान रतन टाटा की कंपनियों के लिए ही लाइजनिंग करने वाली हाईप्रोफाइल महिला के रूप में रही है।
इसके बाद नीरा राडिया के इस हॉस्‍पीटल की चर्चा तब शुरू हुई जब वहां मथुरा-आगरा के विभिन्‍न अस्‍पतालों में कार्यरत डॉक्‍टर्स को तोड़कर लाया गया। सूत्रों से प्राप्‍त जानकारी के अनुसार इन डॉक्‍टर्स को उनके तत्‍कालीन वेतन से कई गुना अधिक वेतन पर नयति में नियुक्‍त किया गया जिससे मथुरा-आगरा के चिकित्‍सा जगत में एक प्रकार की भगदड़ का माहौल पैदा हुआ।
फिर नयति द्वारा विधिवत् काम शुरू कर देने के बाद पता लगा कि मथुरा के लोगों की सेवा करने तथा उन्‍हें अत्‍याधुनिक सुविधाएं मुहैया कराने के प्रचार सहित खोले गए इस हॉस्‍पीटल में चिकित्‍सा काफी महंगी है और जनसामान्‍य के लिए तो वहां उपचार कराना संभव ही नहीं है।
देखते-देखते नयति से ऐसी खबरें भी बाहर आने लगीं कि वहां भी लोगों से पैसे वसूलने के लिए वो सारे हथकंडे अपनाए जा रहे हैं, जिनके लिए दूसरे मशहूर अस्‍पताल पहले से बदनाम हैं। मसलन मरीज की नाजुक स्‍थिति का हवाला देकर मोटी रकम जमा करा लेना, विशेषज्ञ चिकित्‍सकों की आड़ में मनमानी फीस वसूलना, पैसा जमा करने में जरा सी भी देरी हो जाने पर मरीज व उसके परिजनों के साथ अभद्र भाषा का प्रयोग करना तथा कैजुअलिटी हो जाने पर पूरा बिल वसूल किए बिना लाश न देना आदि।
हाल ही में एक ऐसे ही मामले को लेकर हॉस्‍पीटल में काफी हंगामा हुआ और बमुश्‍किल पुलिस के हस्‍तक्षेप से विवाद का पटाक्षेप हो पाया।
बताया जाता है कि मथुरा-भरतपुर रोड पर गत रविवार की रात अज्ञात वाहन की टक्‍कर से बाइक सवार तेजवीर सिंह गंभीर घायल हो गया। तेजवीर को जिला अस्‍पताल से रैफर करने पर नयति हॉस्‍पीटल ले जाया गया, जहां उपचार के दौरान सोमवार को उसकी मौत हो गई।
तेजवीर के परिजन हॉस्‍पीटल के कर्मचारियों द्वारा अभद्र व्‍यवहार करने तथा उपचार के बिल का पूरा पैसा वसूल कर ही शव देने की जिद पर अड़े होने जैसी शिकायत कर रहे थे। हॉस्‍पीटल में हंगामे की सूचना पाकर पहुंचे पुलिस अधिकारियों ने जैसे-तैसे मृतक के परिजनों को शांत कराया, और शव उनके सुपुर्द किया अन्‍यथा बड़ी घटना होने का अंदेशा पैदा हो चुका था।
इससे पहले भी एक बच्‍चे के पेट में कील घुस जाने पर जब उसके परिजन नयति में उपचार कराने पहुंचे तो पहले उन्‍हें भयभीत करके 60 हजार रुपए जमा करा लिए और फिर इकठ्ठे आठ लाख रुपए का बिल थमा दिया। बच्‍चे के परिजनों द्वारा हिसाब मांगे जाने पर उनके साथ हॉस्‍पीटल के कर्मचारी अभद्र व्‍यवहार करने लगे।
इस मामले हॉस्‍पीटल की पदाधिकारी शिवानी शर्मा ने मीडिया को बताया कि बच्‍चे के परिजनों से अभद्र व्‍यवहार करने वाले कर्मचारी राजीव शर्मा को हटा दिया गया है और जांच बैठा दी गई है। राजीव शर्मा को भले ही हटा दिया गया हो लेकिन शिवानी शर्मा के कथन से इस बात की तो पुष्‍टि होती ही है कि बच्‍चे के परिजनों से हॉस्‍पीटल में अभद्र व्‍यवहार किया गया।
इन सब बातों के अलावा यह भी पता लगा है कि नयति हॉस्‍पीटल में कार्यरत कर्मचारियों तथा वहां ठेके आदि पर काम करने व कराने वाले दूसरे लोगों को पैसा देने में बहुत परेशान किया जा रहा है।
ऐसे ही एक इमरान नामक युवक ने बताया कि उसे नयति हॉस्‍पीटल में काम करने के नाम पर ले जाया गया और तीन महीने काम कराने के बाद अचानक घर जाने को कह दिया गया। वेतन का पैसा मांगने पर पता लगा कि इमरान व उसके जैसे दूसरे अन्‍य युवकों को नयति के नाम पर ठेकेदार के अंडर में रखा गया था लिहाजा वेतन का भुगतान भी ठेकेदार से लेने की बात कह दी गई।
अब इमरान व उसके जैसे अनेक युवक अपना तीन महीने का वेतन पाने के लिए कभी ठेकेदार बताए गए व्‍यक्‍ति के तो कभी नयति हॉस्‍पीटल के चक्‍कर लगाने पर मजबूर हैं किंतु उन्‍हें अब तक एक भी पैसा नहीं मिला।
दूसरी ओर जब इस संबंध में नयति के लिए ठेके पर काम करने वाले लोगों से बात की तो उनका कहना था कि हमें खुद हॉस्‍पीटल प्रशासन ने महीनों से पेमेंट नहीं किया है। किसी का 15 लाख रुपया बकाया है तो किसी का 20 लाख। अधिकांश लोग पेमेंट के लिए हॉस्‍पीटल के चक्‍कर लगाते देखे जा सकते हैं लेकिन जवाब देने वाला कोई नहीं है।
इन हालातों को देखकर तो यही लगता है कि नयति के मालिकानों की नीयत ठीक नहीं है और उनका मथुरा जैसे विश्‍व प्रसिद्ध धार्मिक स्‍थान पर अत्‍याधुनिक सुविधाओं से युक्‍त हॉस्‍पीटल खोलने का मकसद चाहे जो भी हो, कम से कम जनसेवा तो नहीं था।
मथुरा की जनता अब नयति की नीयत को देखकर खुद को ठगा हुआ महसूस कर रही है और उसे समझ में आने लगा है कि नीरा राडिया व दीनानाथ चतुर्वेदी के इस हॉस्‍पीटल का असली मकसद कुछ और ही है। जनता को दुख है तो इस बात का कि जिसे वह पीड़ित मानवता के सेवा के लिए मथुरा में एक वरदान समझ रहे थे, वह बहुत कम समय में अभिशाप साबित होने लगा है।
अब लोगों को ”नयति” की ”नियति” का भी आभास होने लगा है और वो कहने लगे हैं कि इस तरह तो नयति के संचालक बहुत दिनों तक जनता को मूर्ख नहीं बना पायेंगे।
बेहतर होगा कि वो समय रहते अपना छद्म मकसद त्‍यागकर हॉस्‍पीटल की मान्‍यताओं को पूरा करने लगें अन्‍यथा किसी दिन नयति न केवल मथुरा में किसी बड़े उपद्रव का कारण बनेगा बल्‍कि जितने शोर-शराबे के साथ शुरू हुआ था, उससे अधिक शोर-शराबे के साथ बंद भी हो जायेगा।
-लीजेंड न्‍यूज़

रविवार, 19 जून 2016

ऐसे तो कभी सामने नहीं आयेगा जवाहर बाग कांड का सच

मथुरा। 2 जून को हुए जवाहर बाग कांड का सच कभी सामने आ पायेगा, इस बात की संभावना समय के साथ क्षीण होती जा रही है। अब तक इस मामले में की गई पुलिसिया कार्यवाही से तो यही लगता है।
सबसे पहले गौर करें प्रदेश ही नहीं, पूरे देश को हिला देने वाले इस कांड की पहली महत्‍वपूर्ण गिरफ्तारी पर। यह गिरफ्तारी हुई चंदन बोस नामक उस व्‍यक्‍ति की जिसे रामवृक्ष यादव का दाहिना हाथ कहा जा रहा है। चंदन बोस की गिरफ्तारी जनपद बस्‍ती के परशुरामपुर थाना क्षेत्र अंतर्गत गांव कैथेलिया से बस्‍ती जिले की ही क्राइम ब्रांच (स्‍वाट टीम) करती है। पुलिस के अनुसार यह गांव चंदन बोस की ससुराल है और जवाहर बाग कांड को अंजाम देने के बाद से वह अपनी पत्‍नी सहित यहीं रह रहा था।
पुलिस के अनुसार चंदन बोस की पत्‍नी भी उसकी हर आपराधिक गतिविधि में समान रूप से साझीदार थी और रामवृक्ष के गैंग में महिला विंग की कमांडर थी। इस तरह देखा जाए तो बस्‍ती पुलिस ने एक नहीं, दो बड़े अपराधियों को गिरफ्तार करने में सफलता हासिल की। ऐसे दो बड़े अपराधी जो रामवृक्ष की पल-पल की जानकारी रखते थे और जवाहर बाग के पूरे सच से भली प्रकार वाकिफ थे।
अब देखिए कितने आश्‍चर्य की बात है कि जिस जवाहर बाग कांड पर न सिर्फ प्रदेश सरकार की नजर गढ़ी थी बल्‍कि विपक्षी दल भी पूरी तरह सक्रिय हो चुके थे और अपराधियों की धर-पकड़ के लिए मथुरा पुलिस ने कई टीमें गठित कर दी थीं, उस कांड के सरगना का दाहिना हाथ अपनी अपराधी पत्‍नी सहित पकड़ा जाता है मथुरा से करीब 650 किलोमीटर दूर बस्‍ती जिले के एक गांव में।
यही नहीं, बस्‍ती के पुलिस अधीक्षक चंदन बोस की गिरफ्तारी पर बाकायदा प्रेस कांफ्रेंस करते हैं, और पूरी जानकारी मीडिया को देते हैं।
जाहिर है कि इसके बाद मथुरा पुलिस की भूमिका शुरू होती है और वो चंदन बोस व उसकी पत्‍नी को लेने के लिए जनपद बस्‍ती पहुंचती है।
जब बस्‍ती पुलिस ने चंदन बोस और उसकी पत्‍नी पूनम की अपने यहां कानूनन गिरफ्तारी प्रेस कांफ्रेंस करके दिखा दी तो मथुरा पुलिस के हाथ में रह क्‍या जाता है, सिवाय लकीर पीटने के।
मथुरा पुलिस चूंकि सारी कानूनी औपचारिकता पूरी करके चंदन और उसकी पत्‍नी को मथुरा लाई थी इसलिए न तो वह उन पर अपने चिर-परिचित हथकंडे इस्‍तेमाल कर सकती थी और न उनसे कोई बड़ा राज उगलवा सकती थी।
ऐसे में चंदन बोस ने वही सब बताया जो कई दिन पहले से अखबारों में छपता रहा था। उसने न तो रामवृक्ष को लेकर कोई जानकारी दी और न यह बताकर दिया कि आखिर रामवृक्ष रूपी विषबेल को दो साल तक खाद-पानी कहां से मिलता रहा। किसके इशारे पर वह 280 एकड़ में फैले सरकारी जवाहर बाग को कब्‍जाने का ख्‍वाब देख रहा था। क्‍यों पुलिस प्रशासन उनकी गालियां खाकर और जलील होकर भी उनके सामने असहाय बना रहा।
चंदन बोस और उसकी पत्‍नी पूनम की गिरफ्तारी के बाद फोटो सहित छपे समाचारों में देखा गया कि चंदन बोस को दो पुलिस वाले अपने कंधों का सहारा देकर ले जा रहे हैं। इसका तात्‍पर्य यह है कि चंदन बोस अपने बूते चलने-फिरने की स्‍थिति में भी नहीं था।
यहां एक सीधा सवाल यह खड़ा होता है कि जब चंदन बोस की घटना वाले दिन ही जवाहर बाग में टांग टूट गई थी और वह चलने फिरने लायक भी नहीं रह गया था तो कैसे वह मथुरा से 650 किलोमीटर दूर अपनी ससुराल जा पहुंचा। उसने अपनी टांग पर प्‍लास्‍टर ससुराल पहुंचने के बाद करवाया या कहीं बीच में इलाज कराकर ससुराल तक जा सका।
क्‍या इस सब काम में उसकी किसी ने मदद की, और की तो वह मददगार कौन था।
घटना के तुरंत बाद जब पूरे प्रदेश की पुलिस में एसपी सिटी मुकुल द्विवेदी तथा एसओ संतोष यादव की जान लेने वालों के प्रति भारी उबाल था और मथुरा के लोग तो जवाहर बाग के कथित सत्‍याग्रहियों को ढूंढ-ढूंढ कर पीट रहे थे तब कैसे चंदन बोस अपनी पत्‍नी व बच्‍चों सहित टूटी हुई टांग से सैकड़ों किलोमीटर दूर पहुंचने में कामयाब हो गया। क्‍या इस बीच उसे कहीं भी किसी जिले की पुलिस ने नहीं देखा।
अब जरा गौर करें जवाहर बाग कांड की दूसरी सबसे बड़ी गिरफ्तारी पर। यह गिरफ्तारी बदायूं पुलिस ने शुक्रवार 17 जून को की। गिरफ्तार किया गया शख्‍स राकेश गुप्‍ता बदायूं के ही थाना हजरतपुर अंतर्गत गांव शहापुर का निवासी है।
रामवृक्ष को लाखों रुपए खुद देने से लेकर जवाहर बाग में मौजूद हजारों लोगों के लिए रसद की व्‍यवस्‍था तथा पुलिस प्रशासन से मुकाबले के लिए हथियारों तक का बंदोबस्‍त करने वाला राकेश गुप्‍ता भी घटना वाले दिन जवाहर बाग में मौजूद था लेकिन पुलिस कार्यवाही के बाद बड़े इत्‍मीनान से सपरिवार मथुरा पुलिस लाइन होकर रेलवे स्‍टेशन जा पहुंचा तथा वहां से कासगंज, बरेली व फर्रुखाबाद होकर बदायूं पहुंच गया।
गौरतलब है कि कासगंज, बरेली तथा फर्रुखाबाद व बदायूं आदि सब उसी प्रदेश के हिस्‍से हैं जिस प्रदेश में दो पुलिस अफसरों को निर्ममता के साथ अवैध कब्‍जाधारियों ने हजारों लोगों के सामने मार डाला और जिस प्रदेश की पुलिस कथित तौर पर इन अफसरों की हत्‍या करने वालों को पूरी शिद्दत के साथ तलाश रही थी। जिनकी गिरफ्तारी के लिए कई टीमें सक्रिय थीं और शासन स्‍तर से हर पल जवाब तलब किया जा रहा था क्‍योंकि उस पर राजनीति शुरू हो चुकी थी।
पुलिस की अब तक की पूरी कार्यवाही तथा चंदन बोस, उसकी पत्‍नी पूनम एवं रामवृक्ष के फायनेंसर राकेश गुप्‍ता की गिरफ्तारियों को देखकर तो लगता है कि जवाहर बाग कांड की लीपापोती का खेल शुरू हो चुका है और पुलिस बड़े सुनियोजित तरीके से इसका पटाक्षेप करने में लगी है।
टूटी टांग लेकर चंदन बोस का पत्‍नी सहित जवाहर बाग से निकल भागना, दोनों की गिरफ्तारी पूनम के घर यानि चंदन के सुसराल बस्‍ती जिले के एक गांव से होना। बस्‍ती पुलिस द्वारा सारी लिखा-पढ़ी करने व मीडिया से रूबरू होने के बाद चंदन व पूनम को मथुरा पुलिस के हवाले करना। दो दिन बाद राकेश गुप्‍ता की गिरफ्तारी भी उसके गृह जनपद बदायूं से होना। उसे भी बदायूं की पुलिस द्वारा पूरी लिखा-पढ़ी व कानूनी प्रक्रिया के तहत मथुरा पुलिस के सुपुर्द करना, क्‍या सब-कुछ एक इत्‍तेफाकभर है।
क्‍या शासन-प्रशासन नहीं जानता कि कानूनी प्रक्रिया पूरी करके किसी अपराधी को दूसरे जिले की पुलिस के सुपुर्द करने पर उससे पूछताछ के कितने ”हथियार” शेष रह जाते हैं।
दो पुलिस अधिकारियों को घेरकर मार डालने जैसे गंभीर अपराध के आरोपियों को यदि दूसरे जनपद में पकड़ा भी गया था तो क्‍या सारी कानूनी प्रक्रिया पूरी करके ही उन्‍हें उस जिले की पुलिस के सुपुर्द करना जरूरी था, जिस जिले की पुलिस उनसे बहुत कुछ उगलवा सकती थी। या यूं कहें कि जिनसे बहुत कुछ उगलवाना बेहद जरूरी था।
चंदन बोस, उसकी पत्‍नी पूनम तथा राकेश गुप्‍ता की गिरफ्तारी को देखें तो ऐसा लगता है कि जैसे इनकी गिरफ्तारी के लिए स्‍क्रिप्‍ट पहले तैयार कर ली गई तथा गिरफ्तारी उसके बाद दिखाई गई जिससे सांप मर जाए और लाठी भी न टूटे।
यही कारण है कि दो-दो पुलिस अधिकारियों की नृशंस हत्‍या के जिम्‍मेदार दोनों शातिर अपराधियों से पुलिस ऐसा कुछ नहीं उगलवा सकी जिससे यह पता लग सके कि आखिर किसके संरक्षण में रामवृक्ष पूरे दो साल तक शासन, प्रशासन व अदालतों तक को खुली चुनौती देने में कामयाब रहा। कैसे वह पूरी प्‍लानिंग के साथ हथियार जमा करके पुलिस-प्रशासन पर बेखौफ हमला करने का दुस्‍साहस कर पाया।
पुलिस यह तक पता नहीं लगा सकी कि रामवृक्ष कैसे मारा गया। उसे किसने मारा और कहां मारा।
आगरा से प्रकाशित आज के ”दैनिक हिंदुस्‍तान” का समाचार सच मानें तो राकेश गुप्‍ता ने रामवृक्ष के बारे में पुलिस को जो जानकारी दी है उसके मुताबिक रामवृक्ष को घटना के तुरंत बाद जवाहर बाग की चारदीवारी के बाहर महिला-पुरुषों की भीड़ ने पत्‍थर आदि से तभी मार डाला जब वह भागने की कोशिश कर रहा था। राकेश गुप्‍ता का कहना है कि खुद को घिरा देख वह भी कपड़े उतारकर भीड़ का हिस्‍सा बन गया और भीड़ के साथ रामवृक्ष पर पथराव करने लगा। उसने खुद रामवृक्ष को अपनी आंखों से मरते हुए देखा।
राकेश के दावे से ठीक विपरीत उत्‍तर प्रदेश पुलिस के मुखिया जाविद अहमद ने रामवृक्ष यादव की मौत का कारण जवाहर बाग में उसकी खुद की लगाई गई आग के अंदर जल जाना बताया।
डीजीपी जाविद अहमद ने जिस दिन रामवृक्ष के मारे जाने की पुष्‍टि पहले ट्वीट करके और फिर मीडिया को दी, उस दिन बताया कि मथुरा के एसएसपी राकेश सिंह ने उन्‍हें सारी जानकारी उपलब्‍ध कराई है तथा रामवृक्ष के शव की शिनाख्‍त जेल में बंद उसके एक साथी से करा ली है।
डीजीपी साहब ओर मथुरा के तत्‍कालीन एसएसपी राकेश सिंह क्‍या अब यह बतायेंगे कि यदि रामवृक्ष की मौत जवाहर बाग के अंदर उसकी खुद की लगाई गई आग से हुई थी तो राकेश गुप्‍ता के सामने भीड़ ने जिसे मारा वह कौन था।
उल्‍लेखनीय है कि रामवृक्ष यादव की मौत के इस पुलिसिया दावे को मथुरा में एडीजे-9 की कोर्ट ने भी तब खारिज कर दिया जब वह उसके खिलाफ एक अन्‍य मामले में जारी गैर जमानती वारंट की तामील न करा पाने का कारण उसकी मौत बताकर अपना पीछा छुड़ाना चाहती थी।
कोर्ट ने पुलिस की कहानी पर सवालिया निशान लगाते हुए उसे आदेशित किया है कि वह रामवृक्ष का डीएनए कराकर पूरे तथ्‍यों सहित कोर्ट के समक्ष हाजिर हो।
जहां तक सवाल चंदन बोस और उसकी पत्‍नी का है, तो पुलिस की पूछताछ में उन्‍होंने रामवृक्ष के बावत कोई जानकारी नहीं दी।
आगरा से ही प्रकाशित आज का दैनिक जागरण भी यही कहता है कि चंदन बोस से पुलिस रामवृक्ष के बारे में कुछ नहीं उगलवा सकी। सिवाय इसके के रामवृक्ष मारा जा चुका है।
ऐसा लगता है कि पुलिस भी अपने ही दो अधिकारियों की शहादत को जैसे भूलने लगी है और शहीदों के परिजनों को आर्थिक मदद करके ही अपने कर्तव्‍य की इतिश्री मान बैठी है।
यदि ऐसा नहीं होता तो यह कैसे संभव था कि जहां इतना बड़ा कांड हुआ, जहां के दो बड़े अफसरान डीएम व एसएसपी को घटना के लिए जिम्‍मेदार ठहराते हुए उनका तबादला कर दिया गया, उस जिले की पुलिस रामवृक्ष के दाहिने व बाएं किसी हाथ को नहीं पकड़ सकी और मात्र खाना-पूरी करने तक सिमट कर रह गई।
जिन तेज-तर्रार एसएसपी बबलू कुमार और अनुभवी डीएम निखिल चंद्र शुक्‍ला को हवाई मार्ग के जरिए मथुरा भेजा गया, वो देखते रह गए और चंदन बोस तथा राकेश गुप्‍ता की गिरफ्तारी का श्रेय बस्‍ती व बदायूं की पुलिस ले गई।
क्‍या वाकई यह सब इत्‍तेफाक ही है अथवा इस सबके पीछे भी वही राजनीतिक ताकत काम कर रही है जो रामवृक्ष को दो साल तक संरक्षण देने में काम करती रही थी।
कहीं दो जांबाज अफसरों की हत्‍या के आरोपी चंदन बोस तथा रामवृक्ष के फायनेंसर राकेश गुप्‍ता सहित रामवृक्ष के पूरे गैंग और उसके संरक्षणदाताओं को बचाने के लिए ही तो यह ”सारे इत्‍तेफाक” नहीं हो रहे।
लगता तो ऐसा ही है क्‍योंकि अब तक पुलिस न तो उस असलाह को बरामद कर सकी है जिस असलाह से एसओ फरह संतोष यादव की हत्‍या हुई, न यह बता सकी है जब उसकी ओर से 200 राउंड फायर किए गए तो एक भी गोली किसी उपद्रवी को क्‍यों नहीं लगी जबकि राकेश गुप्‍ता की लाइसेंसी रायफल पुलिस को जवाहर बाग से मिल गई लेकिन रिवॉल्‍वर अब तक नहीं मिली।
नए एसएसपी बबलू कुमार ने यह तो मीडिया के समक्ष स्‍वीकार किया कि पुलिस की ओर 200 राउंड फायर किए गए लेकिन यह नहीं बताया कि फायर कहां तथा किसलिए किए गए।
मथुरा पुलिस ने तो घटना के 17 दिन बाद अब तक उन पुलिसकर्मियों के खिलाफ भी कोई कार्यवाही नहीं की है जो सत्‍याग्रह के नाम पर एकजुट हुए भेड़ियों के बीच मुकुल द्विवेदी को अकेला छोड़कर भाग खड़े हुए थे।
पुलिस के पास इस बात का भी शायद ही कोई जवाब हो कि जवाहर बाग में आगजनी करने वाले यदि कथित सत्‍याग्रही ही थे तो वह अपनी ही लगाई आग में कैसे जल गए और चंदन बोस, पूनम, राकेश यादव, रामवृक्ष का लड़का विवेक स्‍वाधीन यादव, वीरेश यादव व इनके जैसे अनेक दूसरे शातिर अपराधी कैसे बच निकलने में सफल रहे।
अब तक की पूछताछ से जो सामने आया है, उसके अनुसार जवाहर बाग की हिंसा के आरोपियों में से एकमात्र रामवृक्ष ही कथित तौर पर मारा गया है, बाकी सभी शातिर अपराधी बड़े इत्‍मीनान के साथ निकल गए।
अब जो पकड़े भी जा रहे हैं, वह भी अपने प्रभाव वाले दूसरे जनपदों में पकड़े जा रहे हैं ताकि मथुरा पुलिस सिर्फ खानापूरी करती रहे और कार्यवाही होती दिखाई तो दे किंतु नतीजा ढाक के तीन पात ही रहे।
अगर अब भी शहीद पुलिस अफसरों के परिजन अथवा मथुरा की जनता ऐसी कोई गलतफहमी पाले बैठी हो कि जवाहर बाग कांड का पूरा सच सामने आ पायेगा, तो उसे अपनी गलतफहमी दूर कर लेनी चाहिए क्‍योंकि उत्‍तर प्रदेश पुलिस इस इतने गंभीर व संगीन केस में भी उसी ढर्रे पर चल पड़ी है जिसके लिए वह पहचानी जाती है और जिसके कारण मुकुल द्विवेदी व संतोष यादव जैसे अफसरों को अपनी जान गंवानी पड़ती है।
सच तो यह है कि ”कोई शक्‍ति” लगातार इस पूरे कांड पर बारीकी से नजर रख रही है और पुलिस को हिदायत दे रही है कि उसे क्‍या करना है तथा कैसे करना है ताकि जवाहर बाग कांड के असली दोषियों को साफ बचाया जा सके।
विपक्षी दलों ने भी जवाहर बाग कांड पर एकसाथ चुप्‍पी साध ली है क्‍योंकि उनके हाथ अब राजनीति के लिए ”कैराना का सांप्रदायिक मुद्दा” लग चुका है। सांप्रदायिकता निश्‍चित ही हमेशा से राजनीतिज्ञों का पसंदीदा विषय रही है क्‍योंकि उससे जितना उबाल लाया जा सकता है, उतना दो पुलिस अफसरों की शहादत से संभव नहीं हो सकता। इस मामले में सारे राजनीतिक दल एक जैसे हैं। यूं भी यूपी में चुनावों की दुंदुभि बज चुकी है। चुनावों में ध्रुवीकरण के लिए आखिर जाति, धर्म, संप्रदाय की राजनीति ही काम आयेगी। जवाहर बाग में जो कुछ हुआ उसे किसी जाति, धर्म या संप्रदाय से जोड़ पाना संभव नहीं है। संभव होता तो पुलिस-प्रशासन इस तरह उसकी लीपापोती नहीं कर पाता जैसी कि अब की जा रही है।
-सुरेन्‍द्र चतुर्वेदी

रविवार, 5 जून 2016

Mathura हिंसा: जांच से पहले ही नतीजा निकाल लेने की जल्‍दबाजी किसलिए ?

Mathura की हिंसा के प्रमुख खलनायक और दोनों नायक अब इस दुनिया में नहीं रहे। रामवृक्ष नामक जो सांप दो सालों से जवाहर बाग को अपना बिल बनाकर रह रहा था, उसके भी मारे जाने की पुष्‍टि प्रदेश पुलिस के मुखिया ने स्‍वयं कर दी। अब हमेशा की तरह लकीर पीटने का दौर शुरू हो चुका है। कोई अपने ही अधीनस्‍थों से जांच कराने के नाम पर लकीर पीट रहा है तो कोई सीबीआई जांच कराने की मांग के नाम पर। यहां यह कहना तो बेमानी है कि लाशों पर राजनीति की जा रही है अथवा चुनावों को देखते हुए वोट की राजनीति का प्‍लेटफॉर्म तैयार किया जा रहा है। राजनेता हैं तो राजनीति करेंगे ही। नेता यदि राजनीति नहीं करेंगे तो कौन करेगा। सत्‍ता की खातिर वोट की राजनीति भी जरूरी है और जनता उस राजनीति का शिकार होने के लिए अभिशप्‍त है। फिलहाल इस समस्‍या का कोई हल दूर-दूर तक नजर भी नहीं आ रहा इसलिए इसका जिक्र करने से भी कोई लाभ नहीं होगा।
अभी जो जरूरी है, वह यह कि जो भी और जैसी भी जांच हो, उस जांच की दिशा क्‍या होगी।
अगर जांच की दिशा सिर्फ यह रही कि दोनों पुलिस अधिकारी कैसे और किसकी चूक से मारे गए तो सच कभी सामने नहीं आ पायेगा। सच तभी सामने आएगा जब जांच की दिशा यह रहे कि आखिर किसकी शह से एक अदना से निपट देहाती इंसान शासन, प्रशासन और यहां तक कि उस न्‍याय पालिका को भी चुनौती देता रहा जिसके सामने अधिकांश मामलों में शासन व प्रशासन भी अंतत: नतमस्‍तक होने के लिए बाध्‍य होते हैं।
सबको मालूम है कि दोनों पुलिस अधिकारी कैसे मारे गए, उनको मारने वाले कौन थे इसलिए उसके बारे में जांच करना सिर्फ मामले को हमेशा की तरह लटकाना और लोगों की आंखों में धूल झोंकने से अधिक कुछ नहीं होगा।
नहीं मालमू तो यह कि आखिर एक मामूली सा वृक्ष इतना बड़ा विषवृक्ष कैसे बन गया। कौन उसे खाद दे रहा था और किसने उसे पानी दिया।
इतना अंदाज तो लोगों को लग चुका है कि सत्‍ता के गलियारों से उसे पूरा संरक्षण प्राप्‍त था और उसी संरक्षण के बल पर वह जवाहर बाग में बैठकर अपनी समानांतर सत्‍ता कायम कर पाया किंतु अब जरूरी है कि उस संरक्षणदाता का चेहरा भी बेनकाब हो क्‍योंकि जब तक ऐसे चेहरे बेनकाब नहीं होंगे तब तक कहीं न कहीं कोई न कोई जांबाज अफसर राजनीति की भेंट चढ़ता रहेगा।
जांच इस बात की होनी चाहिए कि किस वजह से मथुरा का पुलिस प्रशासन पूरे दो साल तक हाथ पर हाथ रखकर बैठा रहा और तमाशबीन बना रहा। ऐसी क्‍या मजबूरी थी कोर्ट की अवमानना तक बात पहुंच जाने के बावजूद जिले में तैनात पुलिस व प्रशासनिक अधिकारी असहायों की तरह लखनऊ की ओर टकटकी लगाए देखते रहे। वो कौन से अधिकारी थे जो यहां से जवाहर बाग के संबंध में जाने वाली हर चिठ्ठी को डस्‍टबिन के हवाले करते रहे और किसके इशारे पर करते रहे।
280 एकड़ में फैले सरकारी बाग को कब्‍जाने का ख्‍वाब देखने वाले रामवृक्ष यादव और उसके गुर्गों को रसद-पानी कहां से आ रहा था और उसे यह सब मुहैया कराने वाले का मकसद क्‍या था।
आखिर वह भी तो रामवृक्ष से कुछ न कुछ जरूर चाहता होगा। वह कोई व्‍यक्‍ति विशेष था अथवा कोई समूह या पूरी संस्‍था।
अगर कोई अब भी यह कहे कि रामवृक्ष को कहीं से कोई संरक्षण प्राप्‍त नहीं था और वह एक सिरफिरा सनकी इंसानभर था, तो इससे बड़ा झूठ कोई दूसरा नहीं हो सकता। ऐसा कहना सिर्फ और सिर्फ उस सच को छिपाने की कोशिश भर है जिसका पता लग जाने पर उत्‍तर प्रदेश तो क्‍या, देश के अंदर भूचाल आ सकता है।
सच को छिपाने के लिए ही रामवृक्ष की गिरफ्तारी नहीं की गई, सच को छिपाने के लिए ही पहले दिन से जांच बदलनी शुरू हो गई। सच को सामने लाने की मंशा होती तो सत्‍ता पर काबिज लोग इस आशय की थोथी दलील नहीं देते कि सीबीआई जांच में देरी होगी इसलिए प्रदेश सरकार सीबीआई जांच कराने की हिमायती नहीं है और अपने अधिकारियों से ही जांच कराना चाहती है।
एक सच यह भी है कि मुख्‍यमंत्री अखिलेश यादव पूरी घटना के लिए अधिकारियों को बिना जांच के ही जिम्‍मेदार ठहरा देते हैं और कहते हैं कि चूक तो उनसे हुई है, जबकि मथुरा के जिलाधिकारी राजेश कुमार पूरी तरह मुख्‍यमंत्री के निष्‍कर्ष को खारिज कर देते हैं। वह हर बात का सिलसिलेवार जवाब मीडिया को देते हैं और बताते हैं कि न सिर्फ उनके कार्यकाल में बल्‍कि उनसे पहले भी जितने अधिकारी रहे, सभी ने जवाहर बाग से अतिक्रमणकारियों को खदेड़ने के लिए यथासंभव प्रयास किए।
जिलाधिकारी का यह कथन बहुत कुछ कहता है और मुख्‍यमंत्री का कथन स्‍पष्‍ट करता है कि वह जांच से पहले ही नतीजे पर पहुंचने की जल्‍दबाजी में हैं। अब ऐसा क्‍यों है और क्‍यों वह घटना के दूसरे दिन ही इस निष्‍कर्ष पर जा पहुंचे कि अधिकारियों की चूक ही हिंसा के लिए जिम्‍मेदार है, इसका भी जवाब वही दे सकते हैं।
बहरहाल, कृष्‍ण की नगरी पर दो जांबाज पुलिस अधिकारियों की वीभत्‍स हत्‍या का कलंक तो लग ही गया। यह कलंक शायद ही कभी मिटे, लेकिन यदि इस कलंक से भी सबक सीखना है तो जांच से ज्‍यादा जरूरी है जांच की दिशा तय करना। एकबार यदि जांच सही दिशा में शुरू हो गई तो निश्‍चित ही नतीजा भी अपेक्षा के अनुरूप निकलेगा।
विभिन्‍न राजनीतिक दल, अपनी राजनीति करें। चुनावों के मद्देनजर पूरे घटनाक्रम को वोट की राजनीति में तब्‍दील करने की भी कोशिश करें, आरोप-प्रत्‍यारोप भी जारी रखें लेकिन सिर्फ इतना प्रयास जरूर करें कि पूरा सच सामने आ सके।
आज एसपी सिटी मुकुल द्विवेदी तथा एसआई संतोष यादव की शहादत को सलाम करने वाले और उन्‍हें विनम्र श्रंद्धाजलि अर्पित करने वाले भी यदि थोड़ी सी कोशिश जांच की दिशा तय कराने के लिए कर दें। उसके लिए धरना-प्रदर्शन सहित जो कुछ करना हो करें, तो निश्‍चित जानिए कि फिर सत्‍ता के संरक्षण में छिपकर न तो रामवृक्ष जैसा कोई भेड़िया मुकुल व संतोष जैसे शेरों का शिकार कर पायेगा और न सत्‍ता पर काबिज कोई रंगा हुआ सियार किसी भेड़िए अथवा भेड़ियों के झुण्‍ड को बेखौफ संरक्षण दे पायेगा।
-सुरेन्‍द्र चतुर्वेदी

बड़ा सवाल: कथित सत्‍याग्रहियों को Mathura में ”जवाहर बाग” ही क्‍यों दिया धरने के लिए ?

2 साल पहले Mathura में उद्यान विभाग की 280 एकड़ सरकारी जमीन पर कथित सत्‍याग्रहियों द्वारा लगाया गया मजमा 2 पुलिस अधिकारियों सहित 2 दर्जन लोगों को मौत की नींद सुलाने के बाद समाप्‍त तो हो गया, लेकिन यह मजमा अपने पीछे इतने सवाल छोड़ गया है जो वर्षों तक शासन और प्रशासन का पीछा करते रहेंगे।
मीडिया अपने स्‍तर से इन प्रश्‍नों को आज भी उछाल रहा है और शायद आगे भी उछालता रहे, किंतु अब उसमें वो ताकत नहीं रही जो शासन-प्रशासन को प्रश्‍नों का जवाब देने के लिए बाध्‍य कर सके।
दरअसल, पेशेवर मीडिया की हैसियत फिलहाल उस मदारी की तरह हो गई है जो अपनी डुगडुगी बजाकर लोगों की भीड़ तो इकठ्ठी कर सकता है किंतु उसकी झोली में नया कुछ दिखाने को होता नहीं है।
कल भी मथुरा कांड की रिपोटिंग करने आए एनडीटीवी के रिपोर्टर रवीश रंजन, स्‍टूडियो में बैठे रवीश कुमार को बता रहे थे कि कई बार फोन करने के बावजूद जिलाधिकारी मथुरा राजेश कुमार ने उनका फोन नहीं उठाया।
यह स्‍थिति अकेले किसी एक टीवी रिपोर्टर या अखबार से जुड़े व्‍यक्‍ति की नहीं है। यह स्‍थिति है पूरे मीडिया जगत की है।
सच्‍ची बात तो यह है कि अब शासन और प्रशासन में बैठे लोग मीडिया का इस्‍तेमाल केवल अपनी बात कहने के लिए करते हैं, बात सुनने के लिए नहीं।
मीडिया का सरोकार चूंकि सीधे जनता से होता है और वह वही प्रश्‍न उठाता है जिनके बारे में जनता की जिज्ञासा होती है इसलिए शासन-प्रशासन के लोग उनकी बात न सुनके सिर्फ अपनी बात पूरी करने के साथ उठ खड़े होते हैं जबकि कुछ वर्षों पहले तक ऐसा नहीं था।
तब मीडिया के प्रति भी शासन व प्रशासन की जवाबदेही थी और उसके द्वारा उठाए जाने वाले प्रश्‍नों का वो जवाब देता था। अब जवाबदेही किसी की रह ही नहीं गई, या यूं कहें कि जवाबदेही ओढ़कर कोई फंसना नहीं चाहता।
बहरहाल, इस सब के बावजूद यक्ष प्रश्‍न हमेशा खड़े होते रहे हैं और हमेशा खड़े होते रहेंगे।
mathuraजवाहर बाग प्रकरण में भी कई यक्ष प्रश्‍न खड़े हैं। इस प्रकरण की शुरूआत से समीक्षा की जाए तो सबसे बड़ा सवाल यह खड़ा होता है कि कथित सत्‍याग्रहियों को धरना देने के लिए ”जवाहर बाग” उपलब्‍ध होने का प्रस्‍ताव तत्‍कालीन जिलाधिकारी ने अपनी ओर से दिया था अथवा ऐसा कोई प्रस्‍ताव कथित सत्‍याग्रही खुद लेकर पहुंचे थे?
यह प्रश्‍न इसलिए महत्‍वपूर्ण हो जाता है कि उद्यान विभाग के 280 एकड़ क्षेत्र में फैले जवाहर बाग के अंदर धरना-प्रदर्शन करने की इजाजत न तो पहले कभी जिला प्रशासन द्वारा दी गई और न कथित सत्‍याग्रहियों के बाद किसी अन्‍य को इजाजत मिली।
ऐसे में यह सवाल बड़ा हो जाता है कि धरने के लिए आखिर जवाहर बाग ही क्‍यों चुना गया ?
जवाहर बाग न तो मुख्‍य सड़क के किनारे है और न वहां बैठकर जनता से सीधे संवाद किया जा सकता है, फिर धरने के लिए उसका चयन समझ से परे है।
जवाहर बाग को धरने के लिए चयनित करने की तह में यदि जाया जाए तो एक बात जरूर सामने आती है कि जवाहर बाग ही नहीं, मथुरा स्‍थित उद्यान विभाग की सभी जमीनों पर हमेशा ऐसे तत्‍वों की नजर रही है जो शासन-प्रशासन के सहयोग से उन्‍हें कब्‍जाना चाहते हैं।
इस मामले में सबसे बड़ा उदाहरण मथुरा-वृंदावन रोड स्‍थित उद्यान विभाग की करीब 43.15 एकड़ वह जमीन है जिस पर आज ”वात्‍सल्‍य ग्राम” बसा हुआ है। कभी विश्‍व हिन्दू परिषद् की फायरब्रांड नेत्री के रूप में पहचान रखने वाली साध्‍वी ऋतम्‍भरा का ”वात्‍सल्‍य ग्राम”। साध्‍वी ऋतम्‍भरा को उद्यान विभाग की यह बेशकीमती जमीन मात्र 1 रुपया प्रति एकड़ के सालाना पट्टे पर प्रदेश की तत्‍कालीन भाजपा सरकार ने दी थी।
साध्‍वी ऋतम्‍भरा के लिए पहले इस जमीन के पट्टे पर नवंबर 1992 में यूपी के तत्‍कालीन मुख्‍यमंत्री कल्‍याण सिंह ने हस्‍ताक्षर किए थे किंतु बाद में मुलायम सिंह सरकार ने यह पट्टा निरस्‍त कर दिया। इसके बाद जब वर्ष 1999 में रामप्रसाद गुप्‍त के नेतृत्‍व वाली भाजपा की सरकार यूपी पर काबिज हुई तो ऋतम्‍भरा के लिए आखिर इस 43.15 एकड़ जमीन का पट्टा कर दिया गया।
तब से साध्‍वी ऋतम्‍भरा का यही स्‍थाई निवास है और यहीं वह अपने धार्मिक व राजनीतिक क्रिया-कलापों को अंजाम देती हैं। समाज सेवा के नाम पर यदि उनके बारे में मथुरा की जनता से पूछा जाए तो शायद ही कोई कुछ बता पायेगा क्‍योंकि आज तक उन्‍होंने समाज के लिए कोई उल्‍लेखनीय काम किया ही नहीं। उद्यान विभाग की करीब 44 एकड़ जमीन अब पूरी तरह साध्‍वी ऋतम्‍भरा की निजी जागीर बन चुकी है और उसमें उनकी बिना इजाजत के कोई एक पल नहीं ठहर सकता।
जिस देश की आबादी का एक बड़ा हिस्‍सा अपनी पूरी जिंदगी दो कमरों का निजी छोटा सा मकान बनाने के सपने देखते बिता देता हो, उस देश में राजनीतिक संरक्षण प्राप्‍त लोग हजारों मकान बनने लायक जमीन पर इसी तरह कुंडली मारकर बैठे हैं और उनसे कोई सवाल नहीं पूछा जाता।
इसी तरह बात कांग्रेस के शासन में चाहे हरियाणा, पंजाब, राजस्‍थान और दिल्‍ली के अंदर नेशनल हेरल्‍ड अखबार के नाम पर आवंटित बेशकीमती जमीनों की हो अथवा सोनिया गांधी के दामाद रॉबर्ट बाड्रा को व्‍यापार करने के लिए हेरफेर करके दी गई जमीनों की, सबका सार यही निकलता है कि जिसकी लाठी, उसकी भैंस। सत्‍ता का लाभ सत्‍ता पर काबिज लोग तो उठाते ही हैं, सत्‍ता के गलियारों तक पैठ बनाने वाले लोग भी खूब उठाते हैं।
इन हालातों में खुद को स्‍वाधीन भारत सुभाष सेना का स्‍वयंभू नेता बताने वाला और बाबा जयगुरुदेव का अनुयायी रामवृक्ष यादव यदि 280 एकड़ के जवाहर बाग को पूरी तरह कब्‍जाने का सपना देखने लगा था, तो कौन सी बड़ी बात थी।
आखिर उसके गुरू बाबा जयगुरुदेव का किसी ने क्‍या बिगाड़ लिया। न तो बाबा जयगुरुदेव के जीते जी उनके द्वारा कब्‍जाई गई सैकड़ों करोड़ रुपए कीमत की जमीन को कोई कब्‍जामुक्‍त करा पाया, और न उनके मरने बाद किसी की हिम्‍मत है कि कोई उधर आंख उठाकर भी देखे। क्‍या यह सब सत्‍ताधारियों के संरक्षण बिना संभव है। क्‍या सत्‍ताधारी लोगों की इस सब में परोक्ष अथवा अपरोक्ष भागीदारी नहीं है।
रामवृक्ष यादव के पीछे कोई तो ऐसी ताकत थी जिसके बल पर वह जिला प्रशासन की नाक के नीचे सैनिक क्षेत्र में 280 एकड़ की जमीन को कब्‍जाने की जुर्रत कर पाया। कोई तो था जिसके कारण जिला प्रशासन उसके सामने तब भी मिमियाता रहा जब कोर्ट ने अधिकारियों के खिलाफ अवमानना की कार्यवाही शुरू कर दी थी।
कोई तो रहा होगा जो हजारों लोगों के खाने-पीने का इंतजाम कर रहा था और उसके लिए अंदर ही अंदर हथियारों का बंदोबस्‍त भी करा रहा था।
बस, यही वो सवाल हैं जिनके उत्‍तर यदि समय रहते मिल जाएं तो न किसी जांच की आवश्‍यकता रह जाती है और न जांच कमीशन की।
बेहद तल्‍ख लेकिन सच्‍ची बात तो यह है कि जवाहर बाग को अब भी कब्‍जामुक्‍त कराने में न हाईकोर्ट के आदेश-निर्देश किसी काम आए और न जिला प्रशासन काम आया। जवाहर बाग यदि अतिक्रमणकारियों के कब्‍जे से मुक्‍त हुआ है तो सिर्फ और सिर्फ एसपी सिटी मुकुल द्विवेदी तथा एसओ फरह संतोष यादव की शहादत से।
यदि जवाहर बाग को कब्‍जामुक्‍त कराने के लिए इन दोनों पुलिस अफसरों ने अपनी जान नहीं गंवाई होती तो निश्‍चित जानिए कि आज भी रामवृक्ष यादव अपने गुर्गों के साथ जवाहर बाग पर काबिज होता और पुलिस प्रशासन किसी नए बहाने के साथ बाहर खड़ा होकर डंडे फटकार रहा होता।
मुकुल द्विवेदी और संतोष यादव की शहादत ने जवाहर बाग को तो कब्‍जामुक्‍त करा ही दिया, साथ ही उन लोगों के अरमानों पर भी पानी फेर दिया जो इस बेशकीमती जमीन को हड़पने की पूरी प्‍लानिंग कर चुके थे।
-सुरेन्‍द्र चतुर्वेदी

कथित सत्‍याग्रहियों को 99 साल के पट्टे पर जवाहर बाग देने की तैयारी कर चुकी थी Akhilesh Government

-एडवोकेट विजयपाल तोमर के प्रयासों ने नहीं पूरी होने दी Akhilesh Government की मंशा
-प्रदेश सरकार का संरक्षण ही बना हुआ था प्रशासन के ढीले रवैये की वजह
-विजयपाल तोमर ने अवमानना की कार्यवाही न की होती तो अब भी खाली न होता जवाहर बाग
मथुरा। 280 एकड़ में फैले उद्यान विभाग के जिस ”जवाहर बाग” से अवैध कब्‍जा हटवाते हुए कल दो जांबाज पुलिस अफसर शहीद हो गए और दर्जनों पुलिसकर्मी गंभीर रूप से घायल हुए हैं, उसे कथित सत्‍याग्रहियों को 99 साल के पट्टे पर देने की प्रदेश सरकार ने पूरी तैयारी कर ली थी।
इस बात का दावा बार एसोसिएशन मथुरा के पूर्व अध्‍यक्ष और इस पूरे मामले को इलाहाबाद हाईकोर्ट तक ले जाने वाले एडवोकेट विजयपाल सिंह तोमर ने किया है।
एडवोकेट विजयपाल सिंह तोमर का कहना है कि यदि वह समय रहते जवाहर बाग पर अवैध कब्‍जे के मामले को हाईकोर्ट में नहीं ले जाते तो प्रदेश सरकार इस बेशकीमती सरकारी जमीन का पट्टा मात्र 1 रुपया सालाना प्रति एकड़ के हिसाब से कथित सत्‍याग्रहियों के नाम कर चुकी होती।
dmएडवोकेट विजयपाल तोमर को इस आशय की जानकारी सारा मामला हाईकोर्ट में ले जाने के तत्‍काल बाद ही हो गई थी और इसीलिए हाईकोर्ट ने उस पर कड़ा संज्ञान लेते हुए शासन प्रशासन को जवाहर बाग खाली कराने के आदेश दिए।
एडवोकेट विजयपाल तोमर के अनुसार मथुरा का जिला प्रशासन पूरी तरह प्रदेश सरकार के दबाव में था और इसीलिए वह चाहते हुए तथा कोर्ट के सख्‍त आदेश होने के बावजूद कथित सत्‍याग्रहियों के खिलाफ कठोर कार्यवाही नहीं कर पा रहा था जबकि प्रशासन के खिलाफ कोर्ट की अवमानना का मामला भी शुरू हो चुका था।
विजयपाल तोमर का कहना है कि कल भी जवाहर बाग को कथित सत्‍याग्रहियों के कब्‍जे से मुक्‍त कराने में अहम भूमिका पुलिस व आरएएफ के उन जवानों ने निभाई है, जो अभी-अभी ट्रेनिंग पूरी करके आए हैं और जिन्‍होंने अपने अफसरों को कथित सत्‍याग्रहियों की एकतरफा फायरिंग में घायल होते व दम तोड़ते देखा था अन्‍यथा पुलिस प्रशासन तो कल भी जवाहर बाग को शायद ही कब्‍जामुक्‍त करा पाता।
हालांकि इस सबके बावजूद एडवोकेट विजयपाल तोमर मथुरा के जिलाधिकारी राजेश कुमार तथा एसएसपी राकेश सिंह को इस बात के लिए धन्‍यवाद देते हैं कि शासन स्‍तर से भारी दबाव में होने पर भी दोनों अधिकारियों ने जवाहर बाग को खाली कराने के लिए हरसंभव प्रयास किया। यह बात अलग है कि शासन के दबाव में वह कब्‍जाधारियों के खिलाफ उतनी सख्‍त कार्यवाही नहीं कर सके, जितनी सख्‍ती की दरकार थी।
एडवोकेट विजयपाल तोमर का कहना है कि यदि पूर्व में ही कब्‍जाधारियों के ऊपर आवश्‍यक बल प्रयोग किया गया होता तो न उन्‍हें इतना असलाह जमा करने का अवसर मिलता और न वो पुलिस प्रशासन पर एकतरफा हमलावर होने की हिम्‍मत जुटा पाते।
जो भी हो, लेकिन इसमें कोई दो राय नहीं कि जवाहर बाग को खाली करवाने में एडवोकेट विजयपाल तोमर ने बड़ी भूमिका निभाई क्‍योंकि वह जवाहर बाग पर कब्‍जा होने के कुछ समय बाद ही इस मामले को इलाहाबाद उच्‍च न्‍यायालय ले गए। उनकी याचिका पर हाईकोर्ट ने 20 मई 2015 को ही सरकारी बाग खाली कराने के आदेश शासन-प्रशासन को दे दिए थे किंतु शासन के दबाव में प्रशासन यथासंभव नरमी बरतता रहा।
हारकर विजयपाल तोमर ने जब शासन-प्रशासन के खिलाफ 22 जनवरी 2016 को न्‍यायालय की अवमानना का केस शुरू किया, तब शासन प्रशासन सक्रिय हुआ लेकिन उसके बाद भी 4 महीने पर्याप्‍त फोर्स का इंतजाम न होने के बहाने गुजार दिए जिससे कब्‍जाधारियों को अपनी ताकत बढ़ाने तथा अवैध असलाह जमा करने का पूरा मौका मिला।
policeएडवोकेट विजयपाल तोमर की बात में इसलिए भी दम लगता है कि कब्‍जा करने वाले कथित सत्‍याग्रहियों का संबंध बाबा जयगुरुदेव में आस्‍था रखने वाले एक गुट से ही बताया जाता है। हालांकि जयगुरुदेव की विरासत पर काबिज लोग इस बात का खंडन करते हैं।
उल्‍लेखनीय है कि जयगुरूदेव धर्म प्रचारक संस्‍था की मथुरा में बेहिसाब चल व अचल संपत्‍ति है। जयगुरूदेव के जीवित रहते तथा अब उसके बाद भी जिन जमीनों पर आज जयगुरूदेव धर्म प्रचारक संस्‍था काबिज है, उनमें से अधिकांश जमीन विवादित हैं और उनके मामले विभिन्‍न न्‍यायालयों में लंबित हैं। इन जमीनों में सर्वाधिक जमीन ओद्यौगिक एरिया की है जिसे कभी उद्योग विभाग ने विभिन्‍न उद्यमियों के नाम एलॉट किया था।
जवाहर बाग पर कब्‍जा करने वाले कथित सत्‍याग्रहियों की प्रमुख मांग में यह भी शामिल था कि जिला प्रशासन उन्‍हें बाबा जयगुरुदेव का मृत्‍यु प्रमाणपत्र उपलब्‍ध कराए। कथित सत्‍याग्रहियों का कहना था कि बाबा जयगुरूदेव की मौत हुई ही नहीं है और जिस व्‍यक्‍ति को उनके नाम पर मृत दर्शाया गया था, वह कोई और था। बाबा जयगुरूदेव को उनके कथित अनुयायियों ने उनकी सारी संपत्‍ति हड़पने के लिए कहीं गायब कर दिया है।
कथित सत्‍याग्रहियों की इस मांग से यह तो साबित होता है कि किसी न किसी स्‍तर पर बाबा जयगुरुदेव तथा उनकी धर्म प्रचारक संस्‍था से कथित सत्‍याग्रहियों का कोई न कोई संबंध जरूर था अन्‍यथा उन्‍हें बाबा जयगुरुदेव की मौत से लेना-देना क्‍यों होता।
इस सबके अतिरिक्‍त सरकारी जमीन कब्‍जाने की उनकी कोशिश भी जयगुरूदेव व उनके अनुयायियों की मंशा से मेल खाती है।
अब सवाल यह खड़ा होता है कि जवाहर बाग को 2 साल से कब्‍जाए बैठे कथित सत्‍याग्रहियों के पास हर दिन हजारों लोगों के लिए रसद का इंतजाम कहां से हो रहा था। कौन कर रहा था यह इंतजाम ?
इस सवाल का जवाब आज 2 साल बाद भी जिला प्रशासन के पास क्‍यों नहीं है। यही वो सवाल है जिससे एडवोकेट विजयपाल तोमर के इस दावे की पुष्‍टि होती है कि कथित सत्‍याग्रहियों को प्रदेश सरकार का संरक्षण प्राप्‍त था और प्रदेश सरकार जवाहर बाग को उन्‍हें 99 साल के पट्टे पर देने की पूरी तैयारी कर चुकी थी।
यूं भी कथित सत्‍याग्रहियों का नेता कभी बाबा जयगुरुदेव के काफी निकट रहा था, इस बात की पुष्‍टि तो हो चुकी है लिहाजा आज जयगुरुदेव की विरासत पर काबिज लोग भले ही कथित सत्‍याग्रहियों से अपना कोई संबंध न होने की बात कहें लेकिन उनकी बात पूरी तरह सच नहीं है।
कथित सत्‍याग्रहियों की कार्यशैली से साफ जाहिर था कि वह उसी तरह जवाहर बाग की 280 एकड़ सरकारी जमीन पर काबिज होना चाहते थे जिस तरह बाबा जयगुरुदेव के रहते उनके अनुयायियों ने वर्षों पूर्व मथुरा के इंडस्‍ट्री एरिया तथा नेशनल हाईवे नंबर- 2 के इर्द-गिर्द की सैकड़ों एकड़ जमीन कब्‍जा ली थी और जिस पर आज तक मुकद्दमे चल रहे हैं।
स्‍वयं बाबा जयगुरुदेव का भी आपराधिक इतिहास था।
मूल रूप से इटावा जनपद के बकेवर थाना क्षेत्र अंतर्गत गांव खितौरा निवासी बाबा जयगुरुदेव के पिता का नाम रामसिंह था। बाबा पर उनके गृह जनपद ही नहीं, लखनऊ में भी आपराधिक मुकद्दमे दर्ज हुए और उनमें सजा हुई। मुकद्दमा अपराध संख्‍या 226 धारा 379 थाना कोतवाली इटावा के तहत बाबा को 13 अक्‍टूबर सन् 1939 में छ: माह के कारावास की सजा हुई। इसके बाद लखनऊ के थाना वजीरगंज में अपराध संख्‍या 318 धारा 381 के तहत 25 नवम्‍बर सन् 1939 को डेढ़ वर्ष के सश्रम कारावास की सजा सुनाई गई।
यह बात दीगर है कि बाबा जयगुरुदेव ने जब से आध्‍यात्‍मिक दुनिया में खुद को स्‍थापित किया, तब से कभी कानून के लंबे हाथ भी उनके गिरेबां तक नहीं पहुंच सके।
इस दौरान एक सभा में खुद को नेताजी सुभाष चन्‍द्र बोस बताने पर बाबा का भारी अपमान हुआ और आपातकाल में उन्‍हें जेल की हवा भी खानी पड़ी लेकिन उसके बाद वोट बैंक की राजनीति के चलते इंदिरा गांधी तक बाबा के दर पर आने को मजबूर हुईं।
गौरतलब है कि बाबा जयगुरुदेव और उनकी धर्मप्रचारक संस्‍था से समाजवादी पार्टी के कद्दावर नेता और मुख्‍यमंत्री अखिलेश यादव के चाचा शिवपाल यादव का नाम जुड़ता रहा है। शिवपाल यादव समय-समय पर बाबा के पास आते भी रहते थे। कहा जाता है कि बाबा के उत्‍तराधिकारी के तौर पर उनके ड्राइवर पंकज को काबिज कराने में भी शिवपाल यादव की अहम भूमिका रही है। वही पंकज जो आज पंकज बाबा के नाम से बाबा के उत्‍तराधिकारी बने बैठे हैं।
प्रदेश की सत्‍ता पर काबिज समाजवादी कुनबे की बाबा जयगुरुदेव से निकटता का एक बड़ा कारण बाबा जयगुरुदेव का सजातीय होना भी रहा है।
उधर जिस ग्रुप से कथित सत्‍याग्रहियों का संबंध बताया जा रहा है, उस ग्रुप के तार उस उमाकांत तिवारी से भी जाकर जुड़ते हैं जो कभी बाबा जयगुरुदेव का दाहिना हाथ हुआ करता था और जिसकी मर्जी के बिना बाबा जयगुरुदेव एक कदम आगे नहीं बढ़ते थे।
जिस दौरान बाबा जयगुरूदेव और उनकी संस्‍था का उमाकांत तिवारी सर्वेसर्वा हुआ करता था, उन दिनों भी शिवपाल यादव का मथुरा स्‍थित जयगुरुदेव आश्रम में आना-जाना था इसलिए ऐसा संभव नहीं है कि शिवपाल यादव तथा समाजवादी कुनबा उमाकांत तिवारी से अपरिचित हो।
बताया जाता है कि जवाहर बाग 99 साल के पट्टे पर दूसरे गुट को दिलाने के पीछे भी समाजवादी कुनबे की यही मंशा थी कि एक ओर इससे जहां दोनों गुटों के बीच का विवाद हमेशा के लिए खत्‍म हो जायेगा, वहीं दूसरी ओर दूसरा गुट भी इस तरह समाजवादी पार्टी के कब्‍जे में होगा। पूर्व में भी समाजवादी पार्टी द्वारा दोनों गुटों के बीच इसीलिए समझौते के प्रयास किए गए बताए।
दरअसल, जवाहर बाग की 280 एकड़ जमीन कलक्‍ट्रेट क्षेत्र में आगरा रोड पर है और इसलिए बेशकीमती है। पूरी जमीन फलदार वृक्षों से अटी पड़ी है और इससे सालाना करोड़ों रुपए की आमदनी होती रही है। यह जमीन सेना की छावनी के क्षेत्र से भी जुड़ी है और पूरा प्रशासनिक अमला इसी के इर्द-गिर्द सिमटा हुआ है। यहां तक कि जिले की जुडीशियरी भी यहीं रहती है।
अब जरा विचार कीजिए कि ऐसे क्षेत्र में कैसे तो अवैध कब्‍जा हो गया और कैसे कथित सत्‍याग्रहियों ने इतनी ताकत इकठ्ठी कर ली कि पुलिस-प्रशासन पर बेखौफ हमलावर हो सकें।
जाहिर है कि यह सब किसी सामर्थ्‍यवान का संरक्षण पाए बिना संभव नहीं है।
कल एसपी सिटी मुकुल द्विवेदी तथा एसओ फरह संतोष कुमार सिंह की शहादत के बाद सक्रिय हुए पुलिस प्रशासन ने जितनी तादाद में जवाहर बाग से अवैध असलाह बरामद किया है, वह न तो एक-दो दिन में एकत्र होना संभव है और ना ही किसी के संरक्षण बिना संभव है। पुलिस प्रशासन की ठीक नाक के नीचे इतनी बड़ी संख्‍या में अवैध हथियारों का जखीरा इकठ्ठा कर लेना, इस बात का ठोस सबूत है कि कथित सत्‍याग्रहियों को उच्‍च स्‍तर से संरक्षण प्राप्‍त था।
जहां तक सवाल कल के घटनाक्रम का है तो आज उत्‍तर प्रदेश के डीजीपी जाविद अहमद ने प्रेस कांफ्रेस में मथुरा हिंसा के तहत कुल 24 लोगों के मारे जाने की पुष्‍टि की है।
उधर अपुष्‍ट खबरों तथा अफवाहों का बाजार गर्म है। कोई कह रहा है सैकड़ों की संख्‍या में सत्‍याग्रही भी मारे गए हैं और उनकी लाशें गायब कर दी गई हैं। कोई कह रहा है कि जिन पुलिसकर्मियों को सत्‍याग्रही उठा ले गए थे, उनका अब तक पता नहीं है।
इसी प्रकार कथित सत्‍याग्रहियों के नेता रामवृक्ष यादव की भी कोई खबर जिला प्रशासन नहीं दे रहा इसलिए उसे लेकर भी अफवाहों का बाजार गर्म है। कहा जा रहा है कि उसे कल ही पुलिस ने गोलियों से भून दिया था। अपने अफसरों की शहादत से आक्रोशित पुलिसजनों ने उसके ऊपर कारतूसों की पूरी मैगजीन खाली कर दी थी। एक अफवाह यह भी है कि हाईवे स्‍थित नीरा राडिया के नयति हॉस्‍पीटल में भी लाशों का ऐसा ढेर देखा गया है जिसकी शिनाख्‍त करने वाला कोई नहीं है।
सच्‍चाई क्‍या है और कभी वह सामने आयेगी भी या नहीं, इस बारे में तो कुछ भी कहना मुमकिन नहीं है लेकिन एक बात जरूर कही जा सकती है कि पुलिस-प्रशासन पिछले चार महीनों से जिस मंथर गति के साथ कार्यवाही कर रहा था, उसके पीछे कोई न कोई शक्‍ति जरूर थी। चार महीने की कोशिशों के बाद भी कथित सत्‍याग्रहियों को खदेड़ने के लिए शासन स्‍तर से पर्याप्‍त सुरक्षाबल उपलब्‍ध न कराना, किसी न किसी सोची-समझी रणनीति की ओर इशारा करता है।
मथुरा की जनता और सत्‍याग्रहियों के खिलाफ पिछले काफी समय से आवाज बुलंद करने वाले विभिन्‍न सामाजिक व राजनीतिक संगठनों का भी मानना है कि यदि सारा मामला मथुरा की पुलिस व प्रशासन के जिम्‍मे छोड़ दिया जाता और वह बिना दबाव के अपने स्‍तर से कार्यवाही करते तो न 2 जांबाज पुलिस अफसरों को अपनी जान से हाथ धोने पड़ते और न इतना रक्‍तपात हुआ होता।
पुलिस व प्रशासनिक अधिकारियों के बीच से भी छनकर आ रही खबरें इस बात की पुष्‍टि करती हैं कि 2017 में प्रस्‍तावित प्रदेश के विधानसभा चुनाव तथा उनके मद्देनजर वोट की राजनीति को देखते हुए शासन स्‍तर से जिला प्रशासन को इस आशय की स्‍पष्‍ट हिदायत दी गई थी कि कथित सत्‍याग्रहियों के खिलाफ किसी प्रकार की सख्‍ती न बरती जाए।
प्रदेश सरकार को डर था कि जवाहर बाग को खाली कराने के लिए बरती गई सख्‍ती 2017 के चुनावों में वोट की राजनीति को प्रभावित कर सकती है और उसका लाभ विपक्षी दल उठा सकते हैं।
पुलिस व प्रशासनिक अधिकारियों के बीच की इन खबरों में इसलिए भी सत्‍यता मालूम होती है क्‍योंकि एक चारदीवारी के अंदर सिमटे बैठे मात्र तीन-चार हजार कथित सत्‍याग्रहियों के सामने जिस तरह मथुरा का जिला प्रशासन असहाय व लाचार नजर आ रहा था, वह किसी की भी समझ से परे था। ऐसा लग रहा था जैसे पुलिस और प्रशासनिक अधिकारी अपनी कुर्सी व मथुरा में अपनी तैनाती बचाने के लिए ही कवायद कर रहे थे, न कि 280 एकड़ में फैले सरकारी जवाहर बाग को खाली कराने की कोशिश में लगे थे।
-सुरेन्‍द्र चतुर्वेदी
Related Posts Plugin for WordPress, Blogger...