शुक्रवार, 27 मई 2016

जब यमुना में यमुना जल ही नहीं, तो प्रदूषण मुक्‍ति की कवायद किसलिए ?

यमुना नदी को प्रदूषण मुक्‍त कराने के लिए 17 वर्ष पूर्व इलाहाबाद हाईकोर्ट में मथुरा के प्रसिद्ध हिंदूवादी नेता गोपेश्‍वरनाथ चतुर्वेदी ने जो जनहित याचिका दायर की थी और जिसे काफी गंभीरता से लेते हुए हाईकोर्ट ने तमाम दिशा-निर्देश जारी किए थे, क्‍या आज वो याचिका तथा उसके आधार पर दिए गए सारे दिशा-निर्देश कोई मायने रखते हैं ?
क्‍या इलाहाबाद हाईकोर्ट द्वारा सन् 1998 में दिए गए ये आदेश-निर्देश ही आज विभिन्‍न सरकारी व गैर सरकारी इकाइयों तथा राज्‍य व केंद्र सरकारों के मुलाजिमों के लिए हर साल करोड़ों रुपए हड़प जाने का जरिया बने हुए हैं ?
क्‍या यमुना को प्रदूषण मुक्‍त करने व कराने के नाम पर ऊपर से नीचे तक जो खेल खेला जा रहा है, वह सिर्फ और सिर्फ आम जनता की आंखों में धूल झोंकते हुए धार्मिक भावनाओं को कैश करने का माध्‍यम है ?
क्‍या यमुना को प्रदूषण मुक्‍त रखने के लिए इलाहाबाद हाईकोर्ट के बाद अब नेशनल ग्रीन ट्रिब्‍यूनल (एनजीटी) में दायर की गई याचिका का कोई औचित्‍य है ?
ये चार सवाल हैं, जो यमुना की वर्तमान दशा और उसके लिए किए जा रहे प्रयासों की दिशा तय करते हैं। इन सवालों में ही यमुना की प्रदूषण मुक्‍ति का सच छिपा है।
सबसे पहले बात करते हैं सवाल नंबर एक की, जो यमुना को प्रदूषण मुक्‍त कराने के लिए 17 वर्ष पूर्व दायर की गई याचिका तथा उसके आधार पर शासन-प्रशासन को दिए गए दिशा-निर्देशों से जुड़ा है।
वर्ष 1998 में जब इलाहाबाद हाईकोर्ट के अंदर यमुना को प्रदूषण मुक्‍त कराने के लिए याचिका दायर की गई थी, तब यमुना नदी का इतना बुरा हाल नहीं था। तब यमुना में जितना पानी दिखाई देता था, उसमें काफी मात्रा यमुना के वास्‍तविक जल की भी रहा करती थी और इसलिए उसमें जलचरों को स्‍वछंद विचरण करते देखा जाता था। धार्मिक आस्‍था रखने वाले लोग भी तब बेखौफ होकर यमुना जल में न केवल स्‍नान किया करते थे बल्‍कि नियमित रूप से उसका पान (आचमन) भी करते थे।
यही कारण था कि इलाहाबाद हाइकोर्ट ने तब यमुना को प्रदूषण मुक्‍त रखने के लिए जो आदेश-निर्देश दिए उनमें प्रमुख रूप से मथुरा की पशु वधशाला को पूरी तरह बंद करने तथा यमुना में गिरने वाले नालों को टेप करने की बात थी। इस कार्य के लिए कोर्ट ने मथुरा के एक एडीएम को नोडल अधिकारी नियुक्‍त करते हुए उन्‍हें न्‍यायिक अधिकारों तक से सुसज्‍जित किया।
शुरूआती दिनों में ऐसा लगा भी कि कोर्ट के आदेश-निर्देशों की गंभीरता के मद्देनजर प्रशासन सख्‍त रुख अपनायेगा और यमुना को प्रदूषण मुक्‍त कराने का सिलसिला शुरू होगा किंतु जैसे-जैसे समय बीतता गया, वैसे-वैसे सच्‍चाई सामने आने लगी।
मथुरा में दरेसी रोड पर चलने वाली पशु वधशाला बंद तो हुई, किंतु सिर्फ कागजों पर। हकीकत में यह हुआ कि जिस पशु वधशाला में पहले नगर पालिका की इजाजत से एक निर्धारित संख्‍या में पशुओं का कटान किया जाता था, वहां अब बेहिसाब पशु काटे जाने लगे क्‍योंकि अब पशु कटान करने वालों को किसी से इजाजत लेने की जरूरत नहीं रह गई थी।
इसी प्रकार पहले जहां बाकायदा एक जगह पर पशु वधशाला हुआ करती थी और केवल उसी जगह पशुओं का कटान होता था, वहीं अब इस कार्य को करने वालों ने गली-गली, मौहल्‍ला-मौहल्‍ला और यहां तक कि घर-घर में पशु काटना शुरू कर दिया।
दूसरी ओर यमुना एक्‍शन प्‍लान के तहत आने वाले करोड़ों रुपए का बंदरबांट होने लगा और यमुना में गिरने वाले नाले-नालियों की टेपिंग का कार्य भी फाइलों तक सीमित होकर रह गया।
इन 17 वर्षों में जनसंख्‍या कहां से कहां जा पहुंची और उसी अनुपात में यमुना का प्रदूषण भी नित नए रिकॉर्ड कायम करता रहा। एक स्‍थिति ऐसी आ गई कि यमुना में दिखाई देने वाला जल, यमुना जल न होकर मात्र रासायनिक कचरा तथा मानव निर्मित गंदगी के अलावा कुछ नहीं था।
17 साल बाद अब जबकि एक बार फिर यमुना को प्रदूषण मुक्‍त रखने के लिए एनजीटी में याचिका दायर की गई है और एक बार आदेश-निर्देशों की श्रृंखला शुरू होती नजर आ रही है, तब बड़ा सवाल यह खड़ा होता है कि जिस यमुना में यमुना का जल ही नहीं है। जो दिखाई दे रहा है, वह मात्र नाले-नालियों व औद्योगिक इकाइयों की गंदगी भर है तो आखिर किसे प्रदूषण मुक्‍त कराने की कवायद की जा रही है ?
तब इलाहाबाद हाईकोर्ट से लेकर आज एनजीटी तक में याचिका दायर करने वाले गोपेश्‍वरनाथ चतुर्वेदी भी यह स्‍वीकार करते हैं कि हथिनी कुंड (हरियाणा) के बाद यमुना में जल के नाम पर अब जो कुछ दिखाई दे रहा है, उसमें एक बूंद भी यमुना जल नहीं है। जो कुछ है वह सिर्फ गंदगी है।
लेकिन गोपेश्‍वर नाथ चतुर्वेदी का कहना यह है कि यमुना को प्रदूषण मुक्‍त करने की आड़ में एसटीपी तथा एसपीएस संचालन के लिए जो ठेका हर साल उठाया जा रहा है और जिसकी अब तक मात्र खानापूर्ति करके करोड़ों रुपए का बंदरबांट किया जाता रहा है, वह कम से कम संचालित तो किए जाएंगे।
उनकी मानें तो एनजीटी के डर से ही प्रशासन सक्रिय हो रहा है और पालिका प्रशासन जवाब देने पर मजबूर है, लेकिन गोपेश्‍वरनाथ चतुर्वेदी यह नहीं बता पाते कि अब जबकि यमुना में यमुना के जल का अंश ही नहीं है तो एसटीपी तथा एसपीएस संचालन का क्‍या लाभ।
यमुना में यमुना का जल प्रवाहित न हो पाने तक क्‍यों नहीं एसटीपी तथा एसपीएस संचालन जैसी प्रक्रिया ही समाप्‍त कर देनी चाहिए जिससे हर साल भ्रष्‍टाचार की भेंट चढ़ रहे करोड़ों रुपए तो बचाए जा सकें।
इसके अलावा लोगों को यह भी समझ में आना चाहिए कि 17 वर्ष पूर्व इलाहाबाद हाईकोर्ट ने यमुना को प्रदूषण मुक्‍त रखने के लिए जो आदेश-निर्देश दिए थे, वो अब अपनी सार्थकता खो चुके हैं क्‍योंकि यमुना में यमुना जल ही शेष नहीं रहा।
अब बात सवाल नंबर दो की, जिसके तहत यमुना प्रदूषण मुक्‍ति के काम से जुड़े लगभग सभी सरकारी व गैर सरकारी संगठन कई चरणों का पैसा डकार चुके हैं और पैसा खाने का यह खेल अब भी जारी है।
आश्‍चर्य की बात तो यह है कि ”जे नर्म” के नाम से पहचानी जाने वाली जवाहर लाल नेहरू नेशनल अरबन रिन्‍यूअल मिशन नामक केंद्र सरकार की योजना में भी इन तत्‍वों ने यमुना को प्रदूषण मुक्‍त करने के लिए 104 करोड़ रुपया स्‍वीकृत करा लिया किंतु उसका क्‍या हश्र हुआ, यह तो सबके सामने है लेकिन पैसा कहां गया, यह किसी को पता नहीं।
सवाल नंबर तीन के जवाब में यह साफ है कि यमुना को प्रदूषण मुक्‍त करने व कराने के नाम पर ऊपर से नीचे तक खेला जा रहा खेल केवल जनभावनाओं का दोहन तथा धार्मिक भावनाओं को कैश करने का उपक्रम है क्‍योंकि इसी से वोट की राजनीति भी जुड़ी है और इसी से अनेक लोगों के निजी हित सध रहे हैं।
तमाम संगठन और उनके पदाधिकारी आज यमुना प्रदूषण के मुद्दे पर अपनी दुकान जमा चुके हैं और उनके लिए यह अच्‍छे-खासे व्‍यवसाय का रूप ले चुका है। यमुना प्रदूषण को लेकर उठ खड़े हुए संगठनों की संख्‍या और सबके द्वारा अपनी-अपनी ढपली से अपना-अपना अलग राग अलापना, खुद-ब-खुद इसकी पुष्‍टि करता है अन्‍यथा यदि सबका मकसद एक है तो सबके राग-द्वेष अलग-अलग क्‍यों हैं।
अब चौथे और अंतिम सवाल पर आते हैं क्‍योंकि यह एनजीटी में दायर की गई उस नई याचिका से ताल्‍लुक रखता है जिसने फिर से लोगों में यमुना प्रदूषण मुद्दे को लेकर उम्‍मीद की नई किरण पैदा कर दी है।
इस सवाल का एक ही जवाब हो सकता है। और जवाब यह है कि जब इलाहाबाद हाईकोर्ट के आदेश पिछले 17 सालों से धूल फांक रहे हैं, तो क्‍या एनजीटी के आदेश कुछ कर पाएंगे।
गौरतलब है कि एनजीटी में दायर की गई याचिका का मुद्दा फिलहाल एसटीपी तथा एसपीएस के संचालन से जुड़ा है, न कि इससे कि यमुना में यमुना का जल शेष है भी या नहीं। अर्थात एनजीटी के आदेश-निर्देश अधिकतम यमुना में गिरने वाली गंदगी को साफ करा सकते हैं। उस गंदगी को साफ करके यमुना के नदी होने का भ्रम पैदा करा सकते हैं लेकिन यमुना जल नहीं दिला सकते।
कुल मिलाकर यमुना को प्रदूषण मुक्‍त कराने के लिए इलाहाबाद हाईकोर्ट से शुरू की गई कवायद एनजीटी तक आते-आते आज गंदे पानी को साफ करके ही यमुना नदी का भ्रम पैदा करा देने के संतोष पर आकर खड़ी हो गई है।
जहां तक सवाल यमुना को प्रदूषण मुक्‍त करने व कराने का है तो याचिकाकर्ता गोपेश्‍वरनाथ चतुर्वेदी और उनके सहायक व कृष्‍ण जन्‍मस्‍थान सेवा संस्‍थान के जनसंपर्क अधिकारी विजय बहादुर सिंह दोनों मानते हैं कि यमुना के मामले में केंद्रीय जल संसाधन मंत्री साध्‍वी उमा भारती भी गाल बजाने के अतिरिक्‍त कुछ नहीं कर रहीं।
बेहतर होगा कि जहर से जहर को मारने वाली चिर-परिचित चिकित्‍सा पद्धति पर अमल करते हुए दलगत राजनीति से इतर जनता भी 2017 के चुनाव में यमुना को मुद्दा बनाकर उसी पार्टी के लिए वोट करे जो पार्टी चुनावों से पूर्व यमुना में अविरल यमुना जल को प्रवाहित करने तथा फिर उसे निर्मल बनाए रखने की दिशा में ठोस कदम उठाती दिखाई दे।
खालिस वोट की राजनीति के इस दौर में वोट को ही हथियार बनाकर जब तक जनता यमुना प्रदूषण को चुनावी मुद्दा नहीं बनायेगी, तब तक हर आदेश-निर्देश का इसी प्रकार मजाक उड़ाया जाता रहेगा और इसी प्रकार पतित पावनी यमुना पतितों के पाप ढोती रहेगी।
आज उसका अस्‍तित्‍व हरियाणा से आगे समाप्‍त हुआ है, कल हरियााणा से ऊपर भी समाप्‍त हो सकता है। तब पहाड़ों के रास्‍ते दिखाकर लोग संभवत: यह बताने लगें कि कभी यहां से होकर यमुना नदी गुजरा करती थी।
-सुरेन्‍द्र चतुर्वेदी
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