रविवार, 29 मई 2016

UP elections: इस बार ”मुन्‍ना भाइयों” पर निर्भर होंगे अधिकांश उम्‍मीदवार

राजनीतिक दृष्‍टिकोण से देश के सबसे बड़े राज्‍य उत्‍तर प्रदेश में अगले साल चुनाव होने हैं। राजनीति के पंडितों का तो यहां तक कहना है कि साल 2016 के जाते-जाते भी यूपी में चुनाव हो सकते हैं।
चुनाव जब भी हों…समय पर हों या समय से पहले हों…यह तो चुनाव आयोग को तय करना है लेकिन एक बात जो तय है, वह यह कि इस बार चुनावी मैदान में उतरने वाले विभिन्‍न राजनीतिक दलों के उम्‍मीदवारों की परीक्षा पिछले सभी चुनावों से कुछ भिन्‍न होगी।
यह परीक्षा इसलिए भिन्‍न होगी क्‍योंकि सूबे के अधिकांश उम्‍मीदवार इस परीक्षा में पास होने के लिए अपने-अपने ”मुन्‍ना भाइयों” पर निर्भर होंगे। यानि परीक्षा के लिए फॉर्म (नामांकन) तो उम्‍मीदवार ही भरेंगे किंतु परदे के पीछे से परीक्षा कोई और दे रहा होगा।
सर्वविदित है कि पिछले सभी चुनावों की तुलना में आगामी चुनावों के दौरान सोशल मीडिया एक बड़ी भूमिका निभाएगा लिहाजा प्रत्‍येक राजनीतिक दल सर्वाधिक जोर सोशल मीडिया पर सक्रियता को लेकर दे रहा है।
भारतीय जनता पार्टी ने तो बाकायदा घोषणा कर दी है कि पार्टी से टिकिट पाने का ख्‍वाब देखने वालों को सोशल साइट्स पर कम से कम 25 हजार फॉलोअर्स जुटाने होंगे।
दूसरे राजनीतिक दल भी अपने-अपने संभावित उम्‍मीदवारों से कुछ ऐसी ही अपेक्षा कर रहे हैं।
संभावित उम्‍मीदवार भी इस सच्‍चाई से वाकिफ हो चुके हैं इसलिए वो फेसबुक, टि्वटर, लिंक्‍डइन तथा गूगल प्‍लस जैसी सोशल नेटवर्किंग साइट्स पर सक्रिय दिखाई देते हैं लेकिन अधिकांश संभावित उम्‍मीदवारों के साथ समस्‍या यह है कि वह स्‍वयं सोशल मीडिया को ऑपरेट करना नहीं जानते।
अर्थात परीक्षा फॉर्म (नामांकन) भले ही उम्‍मीदवार भरेंगे लेकिन असल परीक्षा होगी उन ”मुन्‍ना भाइयों” की जिन्‍हें उम्‍मीदवारों द्वारा सोशल मीडिया को हेंडिल करने के लिए हायर किया जाएगा।
दरअसल, इन चुनावों में जीत का सेहरा उसी के सिर बंधेगा जिसकी ओर युवा वोटर का झुकाव हो जाएगा। वही युवा वोटर जिसके लिए सोशल मीडिया अब माई-बाप बन चुका है। जो एकबार को पारिवारिक सदस्‍यों से दूर रह सकता है किंतु सोशल मीडिया से दूर रहने की कल्‍पना भी नहीं कर सकता। सोशल मीडिया से ही उसके दिन की शुरूआत होती है और सोशल मीडिया से ही वह गुड नाइट करके स्‍वीट ड्रीम देखने बिस्‍तर पर पहुंचता है। इस वोटर की न तो टीवी पर समाचार देखने में कोई रुचि है और न वो अखबार पढ़ता है। उसके लिए देश-दुनिया की जानकारी से अपडेट रहने का एकमात्र माध्‍यम सोशल मीडिया बन चुका है।
शायद इसीलिए प्रधानमंत्री नरेन्‍द्र मोदी अपनी लगभग हर स्‍पीच में बताते हैं कि हमारा देश, दुनिया का सबसे युवा देश है। देश की आबादी में 65 प्रतिशत हिस्‍सा उन युवकों का है जो एवरेज 35 वर्ष की उम्र के हैं।
गौरतलब है कि यह वही वर्ग है जो अपटेड रहने के लिए ही नहीं, हर सामाजिक व राजनीतिक गतिविधि की जानकारी के लिए सोशल मीडिया पर निर्भर है।
वह लाइक और कमेंट्स भी सोशल मीडिया पर चल रहे ट्रेंड के मुताबिक देता है। उसकी हवा का रुख उसी से तय होता है क्‍योंकि उसके लिए अब दुनिया वहीं तक सिमट चुकी है।
उम्‍मीदवारों के सामने चुनौती भी यही होगी कि कौन कितनी अधिक संख्‍या में इस वर्ग को प्रभावित करता है क्‍योंकि अधिकांश उम्‍मीदवार सोशल मीडिया पर सक्रियता के लिए ”मुन्‍ना भाइयों” पर निर्भर होंगे।
बेशक, इसका एक बड़ा कारण राजनीतिक लोगों की व्‍यस्‍तता होती है लेकिन कड़वा सच यह भी है कि सभी राजनीतिक दलों के अधिकांश उम्‍मीदवार उस आयु वर्ग से आते हैं जिसमें उनके लिए सोशल मीडिया तो दूर कंम्‍यूटर, लैपटॉप अथवा स्‍मार्ट फोन को हैंडिल करना किसी सिरदर्द से कम नहीं। यही कारण है कि शासन से प्राप्‍त लैपटॉप भी जनप्रतिनिधियों के नहीं, उनकी दूसरी या तीसरी पीढ़ी के काम आ रहे हैं।
इस विषय पर हांडी में पक रहे चावलों का हाल एक दाने से जान लेने की तरह यदि सूबे के राजनीतिक जगत का हाल जानने के लिए विश्‍व प्रसिद्ध जनपद मथुरा को ही देख लें तो तस्‍वीर काफी हद तक साफ हो जाती है।
मथुरा में कुल पांच विधानसभा क्षेत्र हैं। फिलहाल यहां की शहरी सीट पर कांग्रेस पार्टी से विधायक प्रदीप माथुर काबिज हैं जो फर्राटेदार अंग्रेजी तो बोलते हैं लेकिन कंम्‍यूटर ऑपरेट करने में उतने दक्ष नहीं हैं। इसके लिए उन्‍होंने स्‍टाफ रखा हुआ है और वही उनके सोशल मीडिया अकाउंट को हैंडिल करता है।
गोवर्धन क्षेत्र से बसपा के विधायक राजकुमार रावत के लिए कंम्‍यूटर ऑपरेट करना टेढ़ी खीर है। समय की मांग के अनुरूप वह फेसबुक आदि पर दिखाई तो देते हैं किंतु अपना अकाउंट खुद हैंडिल नहीं कर सकते।
छाता क्षेत्र से राष्‍ट्रीय लोकदल के टिकट पर चुनाव जीतने के बाद पिछले दिनों बसपा ज्‍वाइन कर लेने वाले ठाकुर तेजपाल कहने को तो अध्‍यापक हैं लेकिन कंम्‍यूटर ऑपरेट करना कभी उनके वश की बात नहीं रही। यदि वह इस बार चुनाव मैदान में उतरते हैं तो जाहिर है कि सोशल मीडिया को हैंडिल करना उनके लिए मुश्‍किल पेश करेगा। ये काम या तो उनके पुत्र करेंगे, या फिर स्‍टाफ से काम चलाना होगा। हालांकि कहा ये जा रहा है कि इस बार वह छाता क्षेत्र की अपनी विरासत अपने पुत्र को सौंपने जा रहे हैं।
गोकुल क्षेत्र से रालोद विधायक पूरन प्रकाश कहने को तो खासे शिक्षित हैं किंतु सोशल मीडिया के मामले में वह भी अपने पुत्रों पर निर्भर हैं। अब चुनावों के दौरान उनके पुत्र इसके लिए कितना समय निकाल पाते हैं, यह देखने वाली बात होगी अन्‍यथा उन्‍हें भी अंतत: ”मुन्‍ना भाइयों” पर निर्भर होना पड़ेगा।
इसी प्रकार मांट विधानसभा क्षेत्र से विधायक श्‍यामसुंदर शर्मा भी कम पढ़े-लिखे नहीं हैं लेकिन कंप्‍यूटर ऑपरेट करना उनके लिए भी किसी सिरदर्द से कम नहीं। हो सकता है कि दंत चिकित्‍सक की डिग्रीधारी उनके पुत्र उनके लिए सोशल मीडिया हैंडिल करते हों किंतु चुनावों में उन्‍हें भी यह काम किसी पेशेवर के हवाले करना होगा। यानि होंगे वह भी किसी न किसी ”मुन्‍ना भाई” पर ही निर्भर।
इन वर्तमान विधायकों के अलावा समाजवादी पार्टी से शहरी सीट पर प्रमुख दावेदार अशोक अग्रवाल कहने को तो बालरोग विशेषज्ञ हैं किंतु कंप्‍यूटर से वह उतने ही दूर भागते हैं जितनी दूर कोई पत्रकार, डॉक्‍टरी से भागता है।
शहरी सीट पर बसपा के अब तक घोषित उम्‍मीदवार योगेश द्विवेदी का कंप्‍यूटर से जानकारी भर का वास्‍ता है। यह बात अलग है कि वह स्‍टाफ के माध्‍यम से सोशल साइट्स विशेषत: फेसबुक पर सक्रिय नजर आते हैं।
भाजपा ने यूं तो अभी अपने उम्‍मीदवारों की कोई संभावित लिस्‍ट जारी नहीं की है लेकिन बात करें पिछले प्रत्‍याशी डॉ. देवेन्‍द्र शर्मा की तो पीएचडी होने के बावजूद कंप्‍यूटर ऑपरेट करना तथा सोशल मीडिया को खुद हैंडिल करना उनके लिए भी बड़ी समस्‍या है।
भाजपा के नवनियुक्‍त जिला अध्‍यक्ष और तीन मर्तबा मथुरा के सांसद रहे चौधरी तेजवीर सिंह के लिए कंप्‍यूटर ऑपरेट करना, काला अक्षर भैंस बराबर सरीखा है। पढ़े-लिखे वह भी हैं लेकिन कंप्‍यूटर से वह कभी तालमेल नहीं बैठा पाए। मोबाइल फोन का इस्‍तेमाल उनके लिए कॉल सुनने अथवा करने भर तक सीमित है। इससे आगे उनका उससे भी वास्‍ता नहीं।
इन चंद उदाहरणों के अतिरिक्‍त लगभग सभी पार्टियों के जिला व शहर अध्‍यक्ष ही नहीं प्रदेश व राष्‍ट्र स्‍तर के पदाधिकारियों का भी कंप्‍यूटर ज्ञान या तो नाममात्र का है या फिर उनके लिए भी वह हौवा बना हुआ है।
इन हालातों में यूपी के आगामी चुनाव उम्‍मीदवारों के साथ-साथ पार्टियों की भी दोहरी परीक्षा लेने वाले हैं क्‍योंकि जो तबका उनकी जीत में अहम भूमिका निभाने जा रहा है, उसकी दुनिया सोशल मीडिया तक सिमट चुकी है और जो चुनाव मैदान में उतरने वाले हैं, उनके लिए सोशल मीडिया किसी काले जादू से कम नहीं। हारकर ”मुन्‍ना भाइयों” को हायर करना ही एकमात्र रास्‍ता बचता है।
अब देखना यह होगा कि यह ”मुन्‍ना भाई” किसकी लुटिया डुबोते हैं और किसकी नैया पार लगाते हैं क्‍योंकि गुजारा तो इनके बगैर होने से रहा।
-Legend News
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