शुक्रवार, 25 नवंबर 2016

माय लॉर्ड, अंतहीन लाइनें तो अदालतों के बाहर भी लगी हैं

”HELLO सुप्रीम कोर्ट ऑफ इंडिया, अदालतों के सामने अंतहीन लाइनें लगी हुई हैं। 2 करोड़ 70 लाख मामले लंबित हैं, और अब तक कहीं भी कोई दंगा नहीं हुआ है।”
यह ट्वीट जाने-माने स्‍तंभकार तुफैल अहमद का है, जो उन्‍होंने सुप्रीम कोर्ट की उस टिप्‍पणी को लेकर किया है जिसमें उसने कहा था कि नोटबंदी के बाद लोग सड़कों पर हैं और जल्‍दी ही इस स्‍थिति को नहीं संभाला गया तो दंगे भी हो सकते हैं।
दूसरी ओर ट्वीट के जरिए ही आज कांग्रेस के राष्‍ट्रीय उपाध्‍यक्ष राहुल गांधी ने मोदी सरकार पर निशाना साधते हुए पूछा है कि क्‍या अब मोदी सरकार कोर्ट को भी राष्‍ट्रविरोधी कहेगी ?
राहुल ने अपने ट्वीट के साथ एक अंग्रेजी अखबार की खबर भी टैग की है। इस खबर के अनुसार कलकत्ता हाईकोर्ट ने सरकार से कहा है कि उसने कदम उठाने से पहले पूर्व तैयारी नहीं की जबकि सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि इससे आगे संकट की स्थिति पैदा हो सकती है।
पहले बात करते हैं तुफैल अहमद के ट्वीट की। तुफैल अहमद ने सुप्रीम कोर्ट के सामने जो सवाल उठाया है, क्‍या उसका कोई जवाब कोर्ट के पास है ?
क्‍या सुप्रीम कोर्ट के पास इस सवाल का भी कोई जवाब है कि विभिन्‍न न्‍यायालयों में लंबित मुकद्दमों की यह संख्‍या आज अचानक पैदा हो गई अथवा इसमें पूर्ववर्ती सरकारों तथा न्‍यायपालिकाओं की कार्यप्रणाली ने भी कोई भूमिका निभाई है?
जहां तक सवाल नोटबंदी के बाद बैंकों के सामने लगने वाली लंबी-लंबी लाइनों और लोगों को हो रही परेशानी का है तो इसका अंदेशा खुद प्रधानमंत्री ने 8 नवंबर की रात राष्‍ट्र के नाम अपने संबोधन में भी जताया था। साथ ही प्रधानमंत्री ने कहा था कि देशहित में उठाए जा रहे इस कड़े कदम से थोड़ी परेशानी के बाद बहुत सी समस्‍याओं से मुक्‍ति मिल जाएगी।
सुप्रीम कोर्ट ने प्रधानमंत्री के कथन पर गौर न करके और सिर्फ याचिकाओं को आधार बनाकर जो कुछ कहा, उसकी अपेक्षा तो देश की सबसे बड़ी अदालत से नहीं थी क्‍योंकि सर्वोच्‍च अदालत का कथन लोगों के बीच भय का वातावरण बनाने में सहायक हो सकता है।
प्रधानमंत्री नरेन्‍द्र मोदी ने काले धन और नकली नोटों के खात्‍मे की दिशा में जो कदम उठाया है, वह निश्‍चित ही किसी बड़ी सर्जिकल स्‍ट्राइक से कम नहीं कहा जा सकता लिहाजा उसका असर तो होना ही था।
फिजीकली, मैंटली अथवा सोशली…कोई भी ऑपरेशन बिना थोड़ी-बहुत तकलीफ के पूरा नहीं होता। फिर यह तो एक ऐसा ऑपरेशन था जिसकी जरूरत कई दशकों से महसूस की जा रही थी।
बेशक मोदी जी द्वारा दिखाया गया 500 और 1000 के नोटों को प्रचलन से बाहर करने का दुस्‍साहस भी काले धन के समूल नाश में मात्र एक पहल ही है, परंतु किसी भी मुकाम तक पहुंचने के लिए किसी न किसी स्‍तर से पहल तो करनी ही पड़ती है।
अगर बात करें नोट बंदी से बैंकों के सामने उपजी लंबी-लंबी लाइनों तथा आम लोगों के समक्ष खड़ी हो रहीं परेशानियों की, तो सवा सौ करोड़ की आबादी वाले इस देश में कहां लाइन नहीं लगी हैं। रेल और बस की टिकट लेने से लेकर सिनेमा की टिकट लेने तक, हर जगह लाइन में लगना पड़ता है। सड़क पर दो पहिया और चार पहिया वाहन सवार भी बिना कतार में लगे मंजिल तक नहीं पहुंच पाते। श्‍मशान घाट भी अब तो लाइन लगने से नहीं बचे।
नोट बंदी से उपजी भीड़ के मद्देनजर दंगे-फसाद हो जाने की आशंका जाहिर करने वाले माननीय न्‍यायाधीश क्‍या देश को यह बताएंगे कि उन्‍हीं के किसी साथी ने कभी देर से मिलने वाले न्‍याय को अन्‍याय की जो संज्ञा दी थी, उस पर कोर्ट कब विचार करेगा?
जिस विवादित कोलेजियम सिस्‍टम को अपनी प्रतिष्‍ठा का प्रश्‍न बनाकर माननीय उच्‍च न्‍यायालय लंबित होते मुकद्दमों की संख्‍या बढ़ने का हवाला दे रहा है, क्‍या वह हमेशा से वजूद में था, और क्‍या वही मुकद्दमों के बढ़ते बोझ का एकमात्र कारण है ?
कौन नहीं जानता कि आज देश की न्‍यायिक व्‍यवस्‍था को भी उसी प्रकार घुन लग चुका है जिस प्रकार दूसरी व्‍यवस्‍थाओं विधायिका व कार्यपालिका को लगा हुआ है। किसे पता नहीं है कि जिला अदालतों से लेकर उच्‍च और उच्‍चतम न्‍यायालय तक में भ्रष्‍टाचार का बोलबाला है। नि:संदेह यहां भी हर पायदान पर ईमानदार अधिकारी एवं कर्मचारी भी हैं किंतु उनकी स्‍थिति बेहद दयनीय है। वह खुद को 32 दांतों के बीच में ”जीभ” के होने जैसा महसूस करते हैं।
यहां पूर्व कानून मंत्री शांतिभूषण द्वारा की गई वह टिप्‍पणी भी काबिले गौर है जिसके तहत उन्‍होंने सर्वोच्‍च न्‍यायालय के अधिकांश मुख्‍य न्‍यायाधीशों की ईमानदारी पर बड़ा सवाल खड़ा किया था। प्रसिद्ध वकील शांतिभूषण की उस टिप्‍पणी ने तब न्‍यायपालिका तथा माननीय विद्वान न्‍यायाधीशों को हिला कर रख दिया था लिहाजा एकबार तो ऐसा लगने लगा था जैसे शांतिभूषण किसी भी वक्‍त अदालत की अवमानना के आरोप में अदालतों के चक्‍कर काटते दिखाई देंगे लेकिन उनके खिलाफ कार्यवाही करने की हिम्‍मत न सर्वोच्‍च न्‍यायालय ने दिखाई और न किसी न्‍यायाधीश ने।
लिखने को तो बहुत कुछ है लेकिन यह बहुत कुछ लिखा नहीं जा सकता। अगर कोई लिखने बैठ जाए तो उसका भी अंत शायद कभी नहीं होगा क्‍योंकि सुप्रीम कोर्ट से लेकर सुप्रीम पॉवर तक सब अपने आप को जायज ठहराने की जिद पाले बैठे हैं।
प्रधानमंत्री मोदी ने तो कम से कम इतना साहस दिखाया कि पहले दिन ही अपने निर्णय से परेशानियां उत्‍पन्‍न होने की आशंका जताई और फिर यह भी कहा कि 50 दिनों बाद मेरा निर्णय गलत लगे तो जो सजा चाहो मुझे दे देना, लेकिन विपक्षी पार्टियां दो-तीन दिन बाद सन्‍निपात से उभरते ही कुतर्कों के सहारे प्रधानमंत्री को मुजरिम साबित करने पर आमादा हैं।
कांग्रेस के राष्‍ट्रीय उपाध्‍यक्ष जिस तरह से सुप्रीम कोर्ट और कलकत्ता हाईकोर्ट की टीका-टिप्‍पणियों को आधार बनाकर मोदी सरकार को निशाना बना रहे हैं, उससे साफ जाहिर है कि उनके अपने पास कोई विजन है ही नहीं। उनकी बुद्धि को लेकर अक्‍सर उठाए जाने वाले सवालों के पीछे संभवत: उनके द्वारा की जाती रही ऐसी ही ओछी राजनीति है। दुर्भाग्‍य की बात यह है कि कांग्रेस की चापलूसी वाली संस्‍कृति उन्‍हें आइना दिखाने का माद्दा नहीं रखती लिहाजा वह मौके-बेमौके भोंडा प्रदर्शन करते रहते हैं।
चार हजार रुपयों के लिए अपनी भारी-भरकम सुरक्षा-व्‍यवस्‍था के साथ बैंक जाकर तमाशा खड़ा करने से बेहतर होता कि वह लोकसभा में यह बताते कि नोट बंदी से उपजी समस्‍या के समाधान का उनके पास भी कोई उपाय है और उससे आमजनता को राहत मिल सकती है।
राहुल गांधी ही क्‍यों…सपा, बसपा, माकपा और ममता की टीएमसी सहित मोदी सरकार में शामिल शिवसेना तक मोदी सरकार के फैसले को लेकर हायतौबा मचा रही है। दिल्‍ली के मुख्‍यमंत्री अरविंद केजरीवाल तो जैसे प्रधानमंत्री से निजी दुश्‍मनी पालकर बैठे हैं। ऐसे में वह नोट बंदी पर चुप कैसे रह सकते थे।
प्रधानमंत्री को टारगेट करने वाली इन पार्टियों और इनके स्‍वयंभू मुखियाओं की हकीकत से वह जनता अच्‍छी तरह वाकिफ है जिसके कंधे पर बंदूक रखकर यह अपना-अपना हित साधना चाहती हैं।
आज सड़क चलता कोई राहगीर भी बता देगा कि प्रधानमंत्री के नोटबंदी वाले निर्णय ने इन पार्टियों के आकाओं की हजारों करोड़ की गड्डियों को रद्दी में तब्‍दील करके रख दिया। अब इन्‍हें समझ में नहीं आ रहा कि आखिर करें तो करें क्‍या ?
कैसे मोदी के इस मास्‍टर स्‍ट्रोक से मुक्‍ति पाएं और कैसे आगामी विधानसभा चुनावों के लिए काले धन का इंतजाम करें।
अचानक की गई इस सर्जिकल स्‍ट्राइक ने कांग्रेस सहित लगभग सभी राजनीतिक पार्टियों और उनके नेताओं की बुद्धि को लकवाग्रस्‍त कर दिया है। इनमें से कोई यह तक बताने को तैयार नहीं है कि यदि पीएम का निर्णय इतना ही जनविरोधी है तो उन्‍होंने खुद अपने ही पैरों पर कुल्‍हाड़ी मारने का काम किया है। उसके लिए विपक्ष इतना चिंतित क्‍यों है। आगामी चुनावों में विपक्ष के मन की मुराद बिना कुछ किए पूरी होने वाली है।
मोदी का कदम आत्‍मघाती है तो विपक्ष चुपचाप तमाशा देखे और आगामी चुनावों के लिए हसीन सपने पालते हुए मोदी और उनकी पार्टी को मुंह चिढ़ाए।
कल की ही रिपोर्ट है कि शिवसेना को विडियोकॉन कंपनी ने एक वर्ष में 85 करोड़ रुपए का चंदा दिया है जबकि इस दौरान उसे मिली कुल चंदे की रकम 87 करोड़ है। कहने का तात्‍पर्य यह है कि कुल 87 करोड़ के चंदे में 85 करोड़ अकेले विडियोकॉन ने दिए हैं। इससे आप अंदाज लगा सकते हैं कि सरकार में शामिल होते हुए शिवसेना, मोदी जी के निर्णय पर क्‍यों लालपीली हो रही है और क्‍यों ममता, मुलायम, मायावती व अरविंद केजरीवाल के साथ खड़ी है। नोट बंदी ने इन सबके पैरों की बिवाइयां को इतनी बुरी तरह चटका दिया है कि उनसे खून टपकने लगा है लेकिन वह उन्‍हें किसी को दिखा तक नहीं सकते।
कांग्रेस का तो जैसे समूचा बेड़ा गर्क हो गया। राहुल गांधी की खाट यात्रा और ”27 साल यूपी बदहाल” की टैग लाइन को मोदी के एक निर्णय ने किनारे लगा दिया। खाट यात्रा की खाटों का तो पता नहीं क्‍या हुआ, अलबत्‍ता कांग्रेस की खाट फिलहाल ऐसी खड़ी हुई है कि उसके रणनीतिकारों की भी बुद्धि का दिवाला निकल गया है।
कांग्रेस और अन्‍य कई पार्टियों के सामने सबसे बड़ी समस्‍या उत्‍तर प्रदेश जैसे बड़े राज्‍य में चुनाव लड़ने की खड़ी हो गई है। कांग्रेस के लिए यह स्‍थिति जहां मरे पर मार वाली कहावत को चरितार्थ कर रही है वहीं मुलायम तथा मायावती अकेले में सिर पकड़ कर सोचने पर मजबूर हो गए हैं।
आश्‍चर्य की बात है कि मीडिया द्वारा कराए गए सर्वे में मोदी के इस कदम को जनसमर्थन मिलने की बातें सामने आ रही हैं। परेशानियों के बावजूद लोग यह मानने को तैयार नहीं कि मोदी का कदम गलत है।
यह वही मीडिया है जिसके अपने घर भी शीशे के हैं। जो बैंकों के सामने लगने वाली लाइनों को दिखाकर भय का वातावरण उत्‍पन्‍न करने में रत्‍तीभर पीछे नहीं रहना चाहता क्‍योंकि मोदी के मास्‍टर स्‍ट्रोक ने आखिर इनके हित भी तो प्रभावित किए हैं। चार चूहे मरने से लेकर एक आदमी की मौत को भी चीख-चीख कर ब्रेकिंग न्‍यूज़ बताने वाला मीडिया आज खामोशी के साथ खून के आंसू पीने को बाध्‍य है।
हर कोई जानता है कि लगभग सारे बड़े मीडिया हाउस काले धन के बल पर अपना अस्‍तित्‍व बचाए हुए थे। मोदी की सर्जिकल स्‍ट्राइक ने उन्‍हें खुद एक ऐसी ब्रेकिंग न्‍यूज़ बना दिया जिसका खामोश क्रंदन सुनाई भले ही न दे रहा हो लेकिन कोने में बैठकर रुला जरूर रहा है। मीडिया में व्‍याप्‍त जिस काले धन ने एक-एक एंकर को सैकड़ों करोड़ का मालिक बना दिया और जिसने कल के कई एंकर्स को न्‍यूज़ चैनल्‍स का मालिक बनवा दिया, वह भले ही प्रधानमंत्री के निर्णय पर सार्वजनिक रूप से बुक्‍का फाड़कर रो नहीं सकते लेकिन उनके निर्णय को देश की बर्बादी वाला साबित करने की कोशिश तो कर ही सकते हैं।
मीडिया के पास इस सवाल का भी कोई जवाब नहीं है कि चुनाव लड़ने में जो परेशानियां विपक्षी पार्टियों के सामने खड़ी होने वाली हैं, क्‍या भाजपा उनसे अछूती रह जाएगी…और रह जाएगी तो कैसे ?
यदि चंदे से हुए धंधे पर चोट पड़ी है तो वह चोट भाजपा को भी पड़ी होगी, फिर रोना किस बात का।
हां, विधान सभा चुनावों के टिकट बेचने से हुई आमदनी को कागज के टुकड़ों में तब्‍दील होते देखने का कुछ खास पार्टियों का दुख जरूर समझ में आता है क्‍यों कि इसके परिणाम टिकट वितरण सहित चुनावों की तिथि घोषित होने पर ज्‍यादा बड़ी परेशानी का कारण बन सकते हैं।
सबका अपना-अपना दुख है। सुप्रीम कोर्ट का अपना और पार्टी सुप्रीमोज का अपना। दुख भी ऐसा कि जिसे सार्वजनिक तौर पर बयां करना संभव नहीं।
ऐसे में जनता के कांधे का ही सहारा है। 125 करोड़ की आबादी कुछ पार्टियों और चंद नेताओं के दुख का पहाड़ तो ढो ही सकती है, इसलिए ढो रही है। यह जानते व समझते हुए भी उनके आंसू घड़ियाली हैं और उनकी सहानुभूति निजी शोक संवेदना से उपजी ऐसी अनुभूति है जिसका सहानुभूति से दूर-दूर तक कोई वास्‍ता नहीं। वास्‍ता है तो नोट व वोट की उस राजनीति से जिस पर फिलहाल तो पाला पड़ ही गया है। आगे की राम जाने।
-सुरेन्‍द्र चतुर्वेदी
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