शनिवार, 16 सितंबर 2017

एक सैकड़ा मोदी और दो सैकड़ा योगी भी नहीं बदल सकते व्‍यवस्‍थाएं!

एक सैकड़ा मोदी और दो सैकड़ा योगी भी देश तथा प्रदेश की व्‍यवस्‍था नहीं बदल सकते क्‍योंकि झूठ, धोखा, फरेब, बेईमानी, भ्रष्‍टाचार जैसे आचरण न सिर्फ इस देश के शासक और प्रशासकों की बड़ी जमात में शामिल हैं बल्‍कि अधिकांश लोगों की भी फितरत का हिस्‍सा हैं।
गौर करें तो पाएंगे कि सरकारी क्षेत्र ही नहीं, निजी क्षेत्र में भी सिर्फ और सिर्फ झूठ का कारोबार फल-फूल रहा है। जिसे देखो वह सामने वाले की आंखों में मिर्च झोंकने को बैठा है ताकि उसे लूटा जा सके।
टीवी पर आने वाले 99 प्रतिशत विज्ञापन झूठ का करोबार करके देश की जनता को लूट रहे हैं। कोई टूथपेस्‍ट में ”नमक” न होने के बहाने बेवकूफ बना रहा है तो कोई टूथपेस्‍ट को ”वेदशक्‍ति” से लैस बताता है। एक अन्‍य कंपनी का टूथपेस्‍ट करने वाले की सांसें इस कदर महकती हैं कि राह चलती लड़की उसे किस करने पहुंच जाती है और उसकी सांसों में अपनी सांसें समाहित कर देती है।
कोई एक कंपनी साबुन में चांदी का वर्क बताकर उल्‍लू बना रही है तो दूसरी कंपनी टॉयलेट सोप में हल्‍दी और चंदन के गुण बताकर ठग रही है। किसी साबुन कंपनी का दावा है कि उसका साबुन इस्‍तेमाल करने वाले हर बीमारी से बचे रहते हैं तो कोई कंपनी कहती है कि उसके साबुन से स्‍किन चमकने लगती है।
कोई खास कंपनी अपनी बनियाइन पहनने वाले को ही ”महाबली” दर्शाती है तो दूसरी कंपनी अपनी बनियाइन पहनने वाले को ”शेर” के समकक्ष साबित करने पर तुली है। खास विदेशी कंपनी का पेय पीने वाला तो इस कदर तूफानी हो जाता है कि उसके लिए कुछ भी असंभव नहीं रहता। इसी प्रकार खास चॉकलेट खाने वाले की बुद्धि अचानक ”आइंस्‍टीन” जैसे वैज्ञानिक को पीछे छोड़ देती है। उसकी बुद्धि इतनी तेज हो जाती है कि वह किसी घटना के होने से पहले उसका पता लगा लेता है। और तो और एक विज्ञापन के अनुसार तो उसकी कंपनी के चॉकलेट की भूख आदमी को औरत और औरत को आदमी में तब्‍दील करने की क्षमता रखती है।
एक खास कंपनी के डी-ओ इस्‍तेमाल करने वाले लड़के को देखते ही सड़क चलती तमाम लड़कियों की कामेच्‍छा जागृत हो जाती है तो ऐसी ही किसी कंपनी का परफ्यूम लगाने वाले लड़के के पीछे लड़कियां दीवानों की तरह भागने लगती हैं।
झूठ और फरेब के इन कारोबारों की पूरी कथा लिखने बैठा जाए तो हजार पेज भी कम पड़ जाएंगे। दो-तीन मोटे उपन्‍यास इतने में पूरे हो सकते हैं किंतु झूठ के करोबार का वर्णन फिर भी अधूरा रह जाएगा।
आश्‍चर्य की बात तो यह है कि झूठ, फरेब और शत-प्रतिशत धोखे के इस कारोबार का चौबीसों घंटे सभी टीवी चैनल व अखबार प्रसारण व प्रकाशन करते हैं किंतु कोई इन पर उंगली तक नहीं उठाता। लोग ठगे जा रहे हैं और सरकार तमाशबीन बनी हुई है।
सत्‍यवादी राजा हरिश्‍चंद्र का अवतार और हर किसी को कठघरे में खड़ा करने वाला मीडिया धोखे के इस धंधे में उनका सहभागी है क्‍योंकि उसी से उनके चैनल एवं अखबार चल रहे हैं। करोड़ों-अरबों की कमाई उन्‍हीं से होती है लिहाजा उनका हर झूठ सिर माथे।
विज्ञापनों की धोखाधड़ी के धंधे में शामिल मीडिया खुद भी झूठ का करोबार करने में पीछे नहीं है। इसका बड़ा उदाहरण है टीवी पर हर रोज और दिन में कई-कई बार कराए जाने वाले वो पैनल डिस्‍कशन जिनमें सत्ता पक्ष तथा विपक्ष के प्रवक्‍ताओं सहित विषय के अनुसार विशेषज्ञ शामिल होते हैं।
सत्‍ता पक्ष के प्रवक्‍ताओं की बात करें तो पैनल डिस्‍कशन में पार्टी के प्रवक्‍ता आते हैं, न कि सरकार के। इसी प्रकार विपक्षी पार्टी के प्रवक्‍ता डिस्‍कशन का हिस्‍सा बनते हैं।
सारे देश को मूर्ख समझने वाले इलैक्‍ट्रॉनिक मीडिया से कोई यह पूछने वाला नहीं है कि हे स्‍वघोषित बुद्धिजीवियो, किसी पार्टी का प्रवक्‍ता सरकार की नीति-रीतियों का जवाबदेह कैसे हो सकता है और कैसे वह सरकार के कामकाज का विश्‍लेषण कर सकता है। कोई सत्‍ताधारी पार्टी, अपने किसी प्रवक्‍ता को न तो सरकारी नीतिगत निर्णयों से अवगत कराती है और न सरकारी मीटिंग्‍स का हिस्‍सा बनाती है। उसे सरकार अथवा किसी सरकारी नुमाइंदे को भी सलाह-मशविरा देने का हक नहीं होता। पार्टी में भी उसका कद इतना बड़ा नहीं होता कि वह किसी मुद्दे पर अपना विचार हाईकमान तक पहुंचा सके। यही हाल विपक्षी पार्टी के प्रवक्‍ता का होता है। उस बेचारे की तो महीनों-महीनों अपने हाईकमान से मुलाकात भी होना संभव नहीं होता। जाहिर है कि ऐसे में अनेक गंभीर विषयों पर हर रोज होने वाले पैनल डिस्‍कशन किसी काम के नहीं। वह निरर्थक हैं क्‍योंकि न तो सत्‍ताधारी पार्टी के प्रवक्‍ता उनके निहितार्थ को प्रभावित करने का माद्दा रखते हैं और न विपक्षी प्रवक्‍ता कोई ठोस कदम उठवाने में सहायक हो सकते हैं।
सभी प्रमुख पार्टियों के प्रवक्‍ता अगर कोई काम पूरी काबिलियत के साथ करते हैं तो वो काम है एक-दूसरे की पार्टियों पर दोषारोपण करना। टीवी ऐंकर का प्रश्‍न कैसा भी क्‍योंन हो, जवाब में वह तुलनात्‍मक अध्‍ययन शुरू कर देते हैं। कई बार तो आपराधिक आरोपों के बारे में भी इस आशय की दलील देने लगते हैं कि फलां पार्टी के शासन में ऐसा नहीं हुआ क्‍या। जैसे एक पार्टी के शासन में कोई अपराध कभी हुआ तो दूसरी पार्टी को उस तरह के अपराध करने का लाइसेंस मिल गया हो।
यही हाल उन कथित विशेषज्ञों का है जिन्‍हें अवकाश प्राप्‍ति के बाद उनका अपना विभाग तक नहीं पूछता, सलाह मानना तो बहुत दूर रहा। उनका टीवी पर आना मात्र अपनी भड़ास निकालने तथा चेहरा चमकाने तक सीमित है। ऐसे में विचारणीय प्रश्‍न यह है कि टीवी पर दिन-रात कराए जाने वाली इन बहसों का जब कोई परिणाम निकलना ही नहीं होता और इन बहसों में शामिल लोग किसी अच्‍छी या बुरी सलाह को अपने आकाओं तक पहुंचाने का अधिकार नहीं रखते तो ऐसी बहसें किस काम की। हां, इनसे टीवी चैनल की टीआरपी जरूर ऊपर-नीचे होती है अर्थात वही पब्‍लिक को बेवकूफ बनाकर अपना उल्‍लू सीधा करने का धंधा। निरर्थक बहसों से सार्थक कमाई।
मोदी सरकार ने नोटबंदी की तो विपक्ष ने पूरा देश सिर पर उठा लिया। संसद ठप्‍प और सड़कें जाम कर दीं। नौटंकी यहां तक कि कांग्रेस के युवराज राहुल गांधी खुद नोट बदलवाने का दिखावा करने के लिए बैंक के बाहर लाइन में जाकर खड़े हो गए। मोदी के कदम को जनविरोधी और गरीबों की जिंदगी से खिलवाड़ करने वाला बताया गया, लेकिन किसी ने यह नहीं सोचा कि दशकों बाद सत्ता हासिल करने वाली एनडीए अपने लिए आत्‍मघाती कदम क्‍यों उठाऐगी। विपक्ष के तमाशे में व्‍यापारियों के भी एक वर्ग ने साथ दिया। नोटबंदी के बाद हुए पांच राज्‍यों के चुनावों ने जवाब दे दिया, लेकिन विपक्ष से किसी ने जवाब नहीं मांगा कि संसद ठप्‍प करने तथा सड़कों को जाम करने से हुए नुकसान की भरपाई कौन करेगा।
सेना द्वारा पाकिस्‍तान के खिलाफ की गई जिस सर्जीकल स्‍ट्राइक को हजारों किलोमीटर दूर बैठे अमेरिका तक ने स्‍वीकार किया, उस सर्जीकल स्‍ट्राइक पर हमारे देश के कई विपक्षी नेताओं ने सवाल खड़े कर दिए। उन्‍हें सर्जीकल स्‍ट्राइक के सबूत चाहिए थे क्‍योंकि उनकी दुकानदारी ऐसे ही फरेबी बातों से चलती है। उनकी गुमनाम जिंदगी को प्रसिद्धि मिलती है क्‍योंकि मीडिया ऐसी बकवासों पर भी बहस जो कराता है।
नेता नगरी की करतूतों का एक दूसरा पहलू भी है परंतु दुर्भाग्‍य से उन करतूतों पर कोई धरना-प्रदर्शन, आंदोलन अथवा विरोध नहीं होता। टीवी भी उन पर बहस नहीं कराता। यह पहलू बड़ा मजेदार है। इस पर रिसर्च की जा सकती है।
पहलू यह है कि लगभग हर मुद्दे पर परम विरोधाभाषी और एक-दूसरे की जान के दुश्‍मन व खून के प्‍यासे दिखाई देने वाले हमारे राजनीतिक दल, तब पूरी तरह एकस्‍वर से बोलते सुने जाते हैं जब बात आती है इनके वेतन-भत्‍तों एवं सुख-सुविधाओं में बढ़ोत्तरी की। इस पहलू को देखें तो लगता है जैसे सब एक ही थैली के चट्टे-बट्टे हैं और सहोदर हैं। कुर्सी-कुर्सी करना इनके प्रिय खेल का हिस्‍सा है। म्‍यूजिकल चेयर नामक गेम की तरह। शतरंज की बिसात बिछाए बैठे इन विभिन्‍न राजनीतिक दलों के लिए जनता, गरीब, गरीबी, बेरोजगारी, कानून-व्‍यवस्‍था, देशहित, राष्‍ट्रहित, जनहित आदि-आदि बहुत से मोहरे हैं जिनका प्रयोग यह म्‍यूजिकल चेयर के गेम में करते हैं।
म्‍यूचुअल अंडरस्‍टेंडिंग के तहत यह बारी-बारी से इन मोहरों को इस्‍तेमाल करते हैं और जब जरूरत होती है तब धर्म, जाति तथा संप्रदाय आदि के नाम पर मरवा भी देते हैं। शह और मात के लिए यह सब जरूरी जो होता है। कुल मिलाकर आंखों में धूल झोंकने का काम पिछले करीब 70 वर्षों से बदस्‍तूर जारी है लेकिन आज तक कोई पकड़ नहीं पाया।
कहने को यहां दुनिया की सबसे बड़ी लोकतांत्रिक व्‍यवस्‍था है, इस व्‍यवस्‍था के तहत चुनाव भी होते हैं। लोग बड़ी संख्‍या में मतदान करते हैं। व्‍यवस्‍था परिवर्तित होते दिखती भी है लेकिन परिवर्तित होती नहीं क्‍योंकि सांपनाथ कहें या नागनाथ, सत्ता तो उन्‍हीं में से किसी एक को मिलनी है। स्‍वतंत्रता के बाद से ही ऐसे मुकम्‍मल इंतजाम कर दिए गए कि सूरतें बेशक बदलती रहें, किंतु सीरत नहीं बदलनी चाहिए। जनता को विकल्‍प ही ऐसे दो कि उसके पास कोई विकल्‍प हो ही नहीं। वह सांपनाथ या नागनाथ में से ही किसी एक को चुनने पर मजबूर रहे।
हाल ही में समाजवादी पार्टी के सांसद नरेश अग्रवाल ने सदन के अंदर पहले तो हिंदू देवी-देवताओं पर शर्मनाक टिप्‍पणी की, और जब उसे किसी अखबार ने छाप दिया तो कहने लगे कि संबंधित पत्रकारों को विशेषाधिकार हनन का दोषी मानते हुए खिंचवाया जाए जिससे फिर कोई पत्रकार माननीयों के मान से खिलवाड़ न कर सके।
सीधा सा मतलब यह है कि जिन सड़क छापों को जनता ने विकल्‍प न होने की मजबूरी में नेता बना दिया, वह तो सबकुछ बोलने को स्‍वतंत्र हैं लेकिन पत्रकार को उनके शर्मनाक कृत्‍य सामने लाने की भी स्‍वतंत्रता नहीं है। ये तो चंद उदाहरण हैं अन्‍यथा माननीयों के कुकृत्‍यों से स्‍वतंत्र भारत का इतिहास भरा पड़ा है।
झूठ बोलकर और जनता से फरेब करके सदन के माननीय सदस्‍य तथा मंत्री बनने वाले लोगों पर क्‍या किसी अदालत में इस बात के लिए मुकद्दमा चला कि उन्‍होंने देश को धोखा क्‍यों दिया। क्‍यों झूठे वायदे करके जनता को ठगा। क्‍यों उनके अपने पास तो हर सुख-सुविधा होती है लेकिन आम जनता छोटी-छोटी जरूरतों के लिए व्‍यवस्‍था की कदम-कदम पर बना दी गई चौखटों पर माथा रगड़ती फिरती है।
इतने तो पूरे देशभर में मंदिर-मस्‍जिद, गुरद्वारे और चर्च भी नहीं होंगे जितने कि व्‍यवस्‍थाओं के जाल बुने हुए हैं। परेशानी में पड़े हुए व्‍यक्‍ति को समझ में ही नहीं आता कि वह शुरू कहां से करे। शुरू कर भी दे तो खत्‍म कहां जाकर होगा। इसी जन्‍म में उसकी परेशानी का निदान हो जाएगा या फिर और कई जन्‍म लेने पड़ेंगे। न पहले पायदान का पता है और न आखिरी का। एकबार फंस गया व्‍यवस्‍था के भंवरजाल में तो फिर उबरना केवल ”संभावना” पर निर्भर है।
जो न्‍याय व्‍यवस्‍था किसी भी ”आम आदमी” की आखिरी उम्‍मीद होती है, वह दरअसल ”खास लोगों को उपलब्‍ध है। आम आदमी को तो वहां भी तारीख ही मिलती है, हर तारीख पर एक नई तारीख।
भारत, दुनिया का एक अकेला ऐसा अजूबा मुल्‍क है जहां न्‍यायाधीश ही न्‍यायाधीश को नियुक्‍त करते हैं, वही तय करते हैं कि कौन कहां होगा और वही ”मानना” तथा ”अवमानना” की परिभाषा निर्धारित करते हैं।
न्‍याय व्‍यवस्‍था का मजाक देखिए कि जिनके आगे विद्वान न्‍यायाधीश लिखा जाता है, उनकी विद्वता को उन्‍हीं के साथी खुली चुनौती देते हैं और उनके फैसलों को गलत साबित करते हैं लेकिन जिम्‍मेदारी किसी पर तय नहीं होती। सेशन कोर्ट जो निर्णय देता है, उसे हाईकोर्ट पूरी तरह पलट देता है और हाईकोर्ट जो फैसला सुनाता है, उसे सुप्रीम कोर्ट पूरी तरह खारिज करके नए सिरे से सुनवाई का आदेश सुना देता है। आखिर सब के सब विद्वान न्‍यायाधीश जो हैं। पुलिस का एक दरोगा यदि अपनी तफ्तीश में गलती कर दे तो उसे कठघरे में खड़ा किया जा सकता है किंतु विद्वान न्‍यायाधीश पूरा फैसला गलत सुना दे तो भी सिर्फ उच्‍च न्‍यायालय में अपीलभर की जा सकती है। वो अपील जिसे स्‍वीकार करना अथवा न करना एक अन्‍य विद्वान न्‍यायाधीश का ”विशेषाधिकार” है।
कितनी अजीब है ये व्‍यवस्‍था कि जिस काम के लिए ”विद्वान न्‍यायाधीश” के पद पर नियुक्‍ति हुई है, जिसके लिए सरकार वेतन-भत्ते देती है, मान-सम्‍मान और अनेक सुख सुविधाएं देती है, समाज में प्रतिष्‍ठा मिलती है, उसी काम पर प्रश्‍नचिन्‍ह लगता है लेकिन जवाबदेही तय नहीं होती।
रामजन्‍मभूमि का केस कई दशकों तक हाईकोर्ट में चलता है, और जब तीन जजों की बैंच उस पर फैसला सुनाती है तो सर्वोच्‍च न्‍यायालय कहता है कि यह कैसा फैसला है। यह फैसला तो किसी दृष्‍टि से उचित है ही नहीं। अब फिर कई वर्षों से वह केस सुप्रीम कोर्ट में लंबित है।
अब अगर बात करें लोकतंत्र के तीसरे स्‍तंभ यानि कार्यपालिका की, तो वह भी झूठ ही झूठ परोस रही है। जनहित जैसे शब्‍द और लोकतंत्र की व्‍यवस्‍था उसके लिए केवल वहीं तक सीमित है जहां तक उससे उसके अपने स्‍वार्थ पूरे होते हों, बाकी तो सब दिखावा है। उनके लोकतंत्र में लोक कहीं होता ही नहीं, सिर्फ तंत्र ही तंत्र होता है जो उन्‍हें स्‍वतंत्र व ”लोक” को परतंत्र बनाकर रखता है।
उत्तर प्रदेश में योगी सरकार आ गई, बड़ी उम्‍मीदों के साथ जनता ने सत्ता परिवर्तन किया। भाजपा ने भी कहा था कि यह सत्ता का नहीं, व्‍यवस्‍था का परिवर्तन होगा लेकिन व्‍यवस्‍था है कि कहीं से बदलने का नाम नहीं ले रही। न पुलिस का रवैया बदला और न प्रशासन का। जब कुछ बदल ही नहीं रहा तो कानून-व्‍यवस्‍था बदलेगी कैसे।
योगी जी ने भी अपनी पूर्ववर्ती सरकारों की तरह अफसरों को ताश के पत्‍तों की भांति फैंट कर देख लिया किंतु नतीजा वही ढाक के तीन पात बना हुआ है। झूठ का कारोबार बदस्‍तूर जारी है। ठगों के मायाजाल की तरह सरकार को वही दिखाया जाता है जो वह देखना चाहती है। जनता दर्शन, दिग्‍दर्शन बनकर रह गया। गधे को घोड़ा और गाय के बछड़े को गधे का बच्‍चा बताकर आंखों में धूल झोंकी जा रही है। उत्तर प्रदेश, उत्तम प्रदेश बनने का सपना आंखों में पाले योगी जी और मोदी जी की ओर टकटकी लगाकर देख रहा है किंतु व्‍यवस्‍थाएं जस की तस हैं।
पेट्रोल पंपों की घटतौली का हाल शुरू में ही सामने आ जाने के बावजूद एक ठेल-ढकेल लगाने वाले से लेकर मॉल में बैठा दुकानदार तक घटतौली करने से नहीं चूक रहा। कल की ही खबर है कि बांट-माप विभाग ने छापेमारी की तो पता लगा कि तीन किलोमीटर के दायरे में मौजूद एक भी दुकानदार ऐसा नहीं मिला जो ग्राहक को पूरा सामान तौलकर दे रहा हो। कोई 18 ग्राम कम दे रहा है तो कोई 20 ग्राम। इस पर तुर्रा यह कि सरकार व्‍यापारियों की विरोधी है।
हर किस्‍म का टैक्‍स अदा करता है ग्राहक, लेकिन रोता है व्‍यापारी। बंद और धरना प्रदर्शन करता है करोबारी। कैसी विडंबना है कि बेईमानी करने से रोकने की व्‍यवस्‍था की जाती है तो वह गलत और बेईमानी करने की छूट मिल जाए तो वह सही।
एक मजदूर तक बीड़ी फूंकने और चाय की चुस्‍की लेते हुए घड़ी पर नजर रखता है कि कब पांच बजें और कब वह काम छोड़कर जाए। उसका ध्‍यान काम की जगह दिहाड़ी पूरी करने पर लगा रहता है।
सीमा पर तैनात जवान बेशक अपनी जान जोखिम में डालकर देश तथा देशवासियों की सुरक्षा करते हैं किंतु किसी जवान के शहीद हो जाने पर उसके परिजन जिस तरह तमाशा खड़ा करते हैं और जायज-नाजायज मांगों को सामने रखकर सरकार को ब्‍लैकमेल करते हैं, क्‍या वह उचित है। निश्‍चित ही हर शहीद के परिजन ऐसा नहीं करते किंतु पिछले कुछ समय से अधिकांश परिजनों को यही करते देखा गया है। यहां तक कि बहुत से परिवारीजन तो शहीद के शव तक की बेकद्री करने पर आमादा हो जाते हैं। अंतिम संस्‍कार करने को तैयार नहीं होते।
कानून-व्‍यवस्‍था में बड़ी भूमिका निभाने वाली पुलिस का तो कहना ही क्‍या। पुलिस की चाल और उसका चरित्र जिस दिन बदल जाएगा, उस दिन शायद इस देश में बदलाव की पहली किरण फूटेगी।
यही कारण है कि मोदी की दिल्‍ली हो या योगी की यूपी, क्राइम कहीं कम होता नजर नहीं आता। आंकड़ों की बाजीगरी अथवा राजनीति के दांवपेचों से चाहे कोई दावा कुछ भी कर ले किंतु हकीकत यही है कि खाकी को खुराक दे पाने में हर सरकार असफल है जबकि खाकी ही किसी सरकार की असफलता या सफलता तय करने का मानक बनती है।
अपराध चाहे टीवी पर आने वाले फर्जी विज्ञापनों से जुड़ा हो अथवा सड़क पर और किसी चारदीवारी के अंदर हो, बिजली चोरी का हो अथवा घटतौली का, सामाजिक न्‍याय व्‍यवस्‍था से ताल्‍लुक रखता हो या फिर न्‍यायिक व्‍यवस्‍था से, पुलिस की भूमिका हर जगह महत्‍वपूर्ण हो जाती है क्‍योंकि कि अंतत: पुलिस ही वह ”बॉडी” है जो तत्‍काल व प्रभावी भूमिका अदा करती है। कहने को जांच एजेंसियों की देश में कोई कमी नहीं है किंतु अंग्रेजों के जमाने से चला आ रहा खाकी का खौफ सर्वाधिक कारगर साबित होता है।
किसी तरह खाकी के चाल-चरित्र में समय की मांग के अनुरूप बदलाव हो जाए और वह अपने सूत्र वाक्‍य ”परित्राणय साधुनाम, विनाशाय च दुष्‍कृताम” को सार्थक सिद्ध करने लगे तो निश्‍चित ही कोई एक मोदी तथा कोई एक योगी देश तथा प्रदेश को बदलने में सक्षम साबित होगा अन्‍यथा मोदी एवं योगियों की फौज भी उस बदलाव की वाहक नहीं बन सकती जिसकी उम्‍मीद आम जनता ”सरकारों” से करती चली आ रही है।
हालांकि बदलाव के लिए उस आम आदमी को भी बदलना होगा जिससे ईमानदारी पूर्वक अपना-अपना काम करने की अपेक्षा की जाती है। जिससे देशहित को सर्वेपरि समझने की उम्‍मीद रखी जाती है।
उस न्‍यायपालिका को भी बदलना होगा जो हर देशवासी के लिए उम्‍मीद की आखिरी किरण है। उस ब्‍यूरोक्रेसी को भी बदलना होगा जो 70वां स्‍वतंत्रता दिवस मनाने के लिए भले ही तैयार हों परंतु ”लाटसाहिबी” के अहम् से अब भी स्‍वतंत्र नहीं हो पाए हैं।
और हां, उन माननीयों को तो बदलना ही होगा जिन्‍होंने बेमन के साथ अपनी गाड़ियों के ऊपर से लालबत्‍ती भले ही हटा ली हो किंतु दिमाग से वीवीआईपी कल्‍चर नहीं हटा पाए हैं। उन्‍हें अपने वेतन-भत्ते तो बहुत कम लगते हैं किंतु अपने आचार-व्‍यवहार में कोई कमी नजर नहीं आती। शासक होने की उनकी ”बू” खत्‍म होने का नाम नहीं ले रही।
यही वो बू है जो सत्ता बदलने के बावजूद व्‍यवस्‍था बदलने में आड़े आती है क्‍योंकि व्‍यवस्‍था उस अहम् की तुष्‍टि करने का माध्‍यम रही है जो विशिष्‍ट तथा अति विशिष्‍ट होने का अहसास कराती है।
व्‍यवस्‍था बदलनी है तो सत्ता के सोपान पर बैठकर भी विशिष्‍टता के भाव को किनारे करना होगा अन्‍यथा झूठ, धोखा, फरेब, बेईमानी, भ्रष्‍टाचार का यह कारोबार हर स्‍तर पर उसी तरह जारी रहेगा जिस तरह आज भी जारी है।
बदलाव मोदी और योगियों के हाथ में कमान आ जाने से नहीं, उस सोच से होगा जिसमें राष्‍ट्रहित सर्वोपरि है और जो ”सर्वे भवन्तु सुखिनः” में पूर्ण आस्‍था व विश्‍वास के साथ जीवन जीने की परंपरा कायम कर सकती है।
-सुरेन्‍द्र चतुर्वेदी

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