शनिवार, 28 अक्तूबर 2017

निकाय चुनाव और समाजसेवियों की फौज

हमारे यहां लोगों में समाजसेवा का जज्‍बा इस कदर कूट-कूट कर भरा है कि वह घर फूंक कर भी तमाशा देखने को बेताब रहते हैं। बस जरूरत होती है तो एक अदद चुनाव की।
चुनाव की आहट सुनाई दी कि मोहल्‍ले के हर तीसरे-चौथे आदमी के अंदर से समाजसेवा छलक कर टपकने लगती है।
अभी बहुत दिन नहीं बीते कि विधानसभा चुनावों के दौरान प्रदेशभर के समाजसेवियों ने अपने-अपने जिलों से लखनऊ तक की सड़क एक-एक इंच नाप ली थी।
समाजसेवा के इस जूनून में कुछ को सफलता मिली और कुछ को नहीं मिली, किंतु हिम्‍मत किसी ने नहीं हारी।
जो जीत गए वो आज सिकंदर बने बैठे हैं और हारने वाले समाजसेवा का टोकरा सिर पर उठाए एकबार फिर तैयार हैं।
इस मर्तबा विधानसभा के न सही, नगर निकाय के चुनाव तो हैं लिहाजा समाजसेवा का कुलाचें भरना स्‍वाभाविक है।
सच पूछें तो नगर निकाय के चुनावों में सेवा का मर्म वही जानता है जो उसके छद्म रूप में छिपी मेवा से वाकिफ हो।
निर्वाचन आयोग भी इन समाजसेवियों की भावनाओं का कितना ध्‍यान रखता है कि इस बार उसने निकाय चुनावों में प्रत्‍याशियों के लिए खर्च की सीमा पहले के मुकाबले दोगुनी कर दी है। वो भी तब जबकि इस खर्चे की भरपाई का कोई प्रत्‍यक्ष स्‍त्रोत नहीं होता।
पद नाम भले ही ऊपर-नीचे हो जाता हो किंतु कमाई के नाम पर मेयर और पार्षद उसी तरह समान हैं जिस तरह समाज में स्‍त्रियों को बराबर का दर्जा प्राप्‍त है। न मेयर को धेला मिलता है और न पार्षद को। बुढ़ापे की लाठी रुपी पेंशन भी नहीं है बेचारे माननीयों के लिए लेकिन क्‍या मजाल कि इससे किसी प्रत्‍याशी की समाजसेवा का जज्‍बा रत्तीभर कम हो जाता हो।
सुना है कि एक-एक पार्टी के पास समाजसेवा के हजार-हजार आवेदन आए पड़े हैं। आर्थिक रूप से कमजोर आवेदकों ने तो कर्ज का इंतजाम भी कर लिया है जिससे इधर पार्टी समाजसेवा के लिए अधिकृत करे और उधर वो गुलाबी व हरे नोटों के बंडल लेकर समाजसेवा को कूद पड़ें।
समाजसेवा में हाथ का मैल कहीं आड़े न आए इसलिए उन लोगों ने भी बैंक एकाउंट का ब्‍यौरा लेना शुरू कर दिया है जो कल तक आलू, प्याज और टमाटर की कीमतों पर धरना-प्रदर्शन करने को आमादा थे।
समाजसेवा को लालायित लोगों के विचार इस मामले में कभी नहीं टकराते। बैनर कोई हो, झंडा किसी का भी टंगा हो, हैं तो सभी के नुमाइंदे समाजसेवी। समाजसेवी और समाजसेवियों के बीच कैसा भेद। बस कैसे भी एकबार मौका मिल जाए। बहती गंगा में हाथ धोना किसे सुकून नहीं देता।
सरकार भी कितनी समझदार है। मतदान की तारीखों के साथ यमुना में गिर रहे नाले-नालियों को रोकने के लिए 3 हजार 500 करोड़ की रकम भी घोषित कर दी ताकि मेयर और पार्षद तथा चेयरमैन तथा सदस्‍यों के बीच किसी प्रकार का कन्‍फ्यूजन न रहे। लक्ष्‍य सामने हो तो समाजसेवा करने का आनंद ही कुछ और है। समाजसेवा की यमुना कभी दूषित नहीं होती। जनता के विचार दूषित हो सकते हैं किंतु समाजसेवियों की भावना हमेशा पवित्र रहती है।
वेतन-भत्ता नहीं है नगर निकाय की सेवा में तो न सही। पेंशन या फंड नहीं मिलता तो कोई बात नहीं। सेवा तो नाम ही है मेवा का। सेवा करेंगे तो मेवा भी मिलेगी। मेवा का इंतजाम ”ऊपर वाला” करता रहता है। यूं भी यमुना मैया सबकी सुनती है। चोंच के साथ चुग्‍गे का इंतजाम हो जाता है। मेयर की चोंच को मेयर के लायक और पार्षद की चोंच को पार्षद के लायक। ईश्‍वर हाथी से लेकर चींटीं तक के पेट की व्‍यवस्‍था करता है। किसी को भूखा नहीं रखता।
समाजसेवी लोग ईश्‍वर में पूरी आस्‍था रखते हैं इसलिए चुनाव की खातिर सबकुछ दांव पर लगाने से गुरेज नहीं करते। वो जानते हैं कि व्‍यवस्‍था कभी इतनी निर्मम नहीं हो सकती कि सेवा की मेवा देने में कोताही बरते।
यमुना को प्रदूषण मुक्‍त कराने के लिए 3500 करोड़ की घोषणा तो कुछ नहीं, तीर्थस्‍थल के नाम पर बहुत कुछ मिलना बाकी है।
जय यमुना मैया की, जय कृष्‍ण कन्‍हैया की।
-सुरेन्‍द्र चतुर्वेदी

गुरुवार, 26 अक्तूबर 2017

उधार के सिंदूर से सुहाग सहेजने को मजबूर है भारतीय जनता पार्टी

मथुरा। कृष्‍ण की जन्‍मस्‍थली मथुरा और क्रीड़ा स्‍थली वृंदावन को मिलाकर पहली बार नगर निगम बनी मथुरा में भारतीय जनता पार्टी उधार के सिंदूर से सुहाग सहेजने को मजबूर है।
दरअसल, भाजपा के सामने यह स्‍थिति मथुरा-वृंदावन का ”मेयर” पद अनुसूचित जाति के लिए ”आरक्षित” हो जाने के कारण पैदा हुई है क्‍योंकि मथुरा-वृंदावन में भाजपा के पास अनुसूचित जाति का कोई ऐसा उम्‍मीदवार नहीं है जो पूरी तरह भाजपा को समर्पित रहा हो या पार्टी का वफादार सिपाही माना जा सके।
मथुरा में भाजपा के पास उसी प्रकार मेयर पद के लिए अनुसूचित जाति के अपने किसी प्रत्‍याशी का अभाव है जिस प्रकार लोकसभा चुनाव के लिए स्‍थानीय प्रत्‍याशी का अभाव था लिहाजा तब काफी दिमागी कसरत के बाद स्‍वप्‍न सुंदरी का खिताब प्राप्‍त सिने अभिनेत्री हेमा मालिनी को लाया गया।
विधानसभा चुनावों में भी मथुरा-वृंदावन सीट के लिए श्रीकांत शर्मा को दिल्‍ली से लाना पड़ा, हालांकि श्रीकांत शर्मा कस्‍बा गोवर्धन (मथुरा) के ही मूल निवासी हैं किंतु वह करीब दो दशक पहले मथुरा को छोड़ चुके थे इसलिए उन्‍हें बाहरी प्रत्‍याशी माना गया।
निकाय चुनावों में पहली बार मेयर पद (आरक्षित) के लिए चुनाव लड़ रही मथुरा नगरी के अंदर भाजपा के पास जो संभावित प्रत्‍याशी दिखाई दे रहे हैं उनमें पूर्व विधायक श्‍याम सिंह अहेरिया, पूर्व विधायक अजय पोइया और बल्‍देव क्षेत्र से भाजपा के विधायक पूरन प्रकाश के पुत्र पंकज प्रकाश प्रमुख हैं।
श्‍याम सिंह अहेरिया सबसे पहले भाजपा की ही टिकट पर गोवर्धन (आरक्षित) सीट से विधायक चुने गए किंतु बाद के चुनावों में जब भाजपा ने उनका टिकट काट दिया तो वह अपने पुत्र सहित ”समाजवादी” हो लिए। उनके पुत्र को समाजवादी पार्टी ने सत्ता में रहते दर्जाप्राप्‍त राज्‍यमंत्री के पद से भी नवाजा था।
समाजवादी पार्टी के सत्ता से बेदखल होने पर वह फिर भाजपाई हो गए किंतु अब उन्‍हें पार्टी का समर्पित कार्यकर्ता अथवा वफादार सिपाही नहीं माना जा सकता।
इसी प्रकार एडवोकेट अजय कुमार पोइया का राजनीतिक सफर भी भाजपा की टिकट पर गोवर्धन सुरक्षित सीट से निर्वाचित होने के साथ शुरू हुआ। इससे पहले अजय कुमार पोइया मथुरा में ही वकालत की प्रेक्‍टिस करते थे।
बाद के चुनावों में पार्टी से उपेक्षित अनुभव करने के कारण अजय कुमार पोइया ने भी भाजपा का दामन छोड़ दिया और बहुजन समाज पार्टी की गोद में जा बैठे। बहुजन समाज पार्टी में रहते हुए कोई उपलब्‍धि हासिल न होने पर अजय कुमार पोइया एकबार फिर भाजपा की शरण में लौट आए।
गत विधानसभा चुनावों में बल्‍देव सुरक्षित सीट से चुनाव लड़ने की उम्‍मीद पाले बैठे अजय कुमार पोइया को तब तगड़ा झटका लगा जब पार्टी ने उनकी बजाय राष्‍ट्रीय लोकदल से भाजपा में आए सिटिंग विधायक पूरन प्रकाश को बल्‍देव से चुनाव लड़ाने का फैसला किया।
पार्टी से मिले इस झटके पर अजय पोइया ने पूरन प्रकाश के खिलाफ अपने पुत्र को चुनाव लड़ने के लिए खड़ा कर दिया, और दलील यह दी कि वह तो पार्टी के अनुशासित सिपाही हैं किंतु पुत्र द्वारा चुनाव लड़ना उसका अपना निर्णय था।
यानि अजय पोइया एकबार फिर पार्टी के प्रति बड़ी चालाकी के साथ बेवफाई पर उतर आए ताकि संभव हो तो सांप मर जाए और लाठी भी न टूटे की कहावत को चरितार्थ कर सकें।
यह बात अलग है कि अजय पोइया के पुत्र, पूरन प्रकाश का कुछ नहीं बिगाड़ सके और पूरन प्रकाश लगातार दूसरी बार बल्‍देव सुरक्षित सीट से निर्वाचित होने में सफल रहे।
जहां तक सवाल पूरन प्रकाश के पुत्र पंकज प्रकाश का है तो बेशक उन्‍होंने 2010 के जिला पंचायत चुनावों में सर्वाधिक मतों से चुनाव जीतकर एक रिकॉर्ड कायम किया किंतु बुनियादी रूप से उनके विधायक पिता या दादा का कभी भाजपा की नीतियों में विश्‍वास देखने को नहीं मिला। पंकज प्रकाश के दादा मास्‍टर कन्‍हैया लाल भी विधायक रहे थे लेकिन भाजपा से कभी उनका कोई वास्‍ता नहीं रहा।
इन तीन प्रमुख दावेदारों के अलावा जो अन्‍य दो दावेदार हैं उनमें से एक मुकेश आर्यबंधु के पूरे परिवार की निष्‍ठा हमेशा कांग्रेस से जुड़ी रही है और उनके बड़े भाई ब्रजमोहन बाल्‍मीकि ने कांग्रेस की टिकट पर गोवर्धन सुरक्षित सीट से ही चुनाव भी लड़ा था।
दूसरे दावेदार ब्रजेश खरे ही एकमात्र ऐसे दावेदार हैं जो पूर्व में भाजपा सभासद रह चुके हैं और एक लंबे समय से भाजपा के प्रति समर्पित हैं किंतु ब्रजेश खरे की दो पूर्व विधायकों तथा एक विधायक पुत्र के सामने कितनी दाल गल पाएगी, यह देखने वाली बात होगी।
भाजपा की सबसे बड़ी समस्‍या ही यह है कि विश्‍व विख्‍यात धार्मिक नगरी मथुरा राजनीतिक रूप से उसके लिए चाहे कितनी ही महत्‍वपूर्ण क्‍यों न हो किंतु यहां उसके पास कद्दावर नेताओं का काफी समय से अभाव रहा है।
2009 के लोकसभा चुनावों में भाजपा को रालोद के युवराज जयंत चौधरी को समर्थन देना पड़ा क्‍योंकि तब भी भाजपा के पास कोई दमदार उम्‍मीदवार नहीं था।
यह स्‍थिति तो तब है जबकि मथुरा से दो बार भाजपा की टिकट पर डॉ. सच्‍चिदानंद हरि साक्षी लोकसभा के लिए निर्वाचित हुए थे और तीन बार वर्तमान जिलाध्‍यक्ष चौधरी तेजवीर सिंह सांसद चुने गए।
उधार के सिंदूर या बेवफाओं में से किसी को मेयर पद पर चुनाव लड़वाना भाजपा को इसलिए मुसीबत में डाल सकता है क्‍योंकि निवर्तमान पालिका अध्‍यक्ष मनीषा गुप्‍ता भी जनआंकाक्षाओं पर खरी नहीं उतरीं। साथ ही उनके ऊपर पौने दो करोड़ रुपए के भ्रष्‍टाचार का आरोप भी एनजीटी में लंबित है।
मनीषा गुप्‍ता के कार्यकाल में यमुना को प्रदूषण मुक्‍त रखने के लिए किए जाने वाले उपायों से पैसे का तो खूब बंदरबांट हुआ किंतु यमुना हर दिन पहले से अधिक प्रदूषित होती गई।
जाहिर है कि मनीषा गुप्‍ता के कार्यकाल की छाया भी इन नगर निकाय चुनावों में किसी न किसी स्‍तर पर देखने को जरूर मिलेगी क्‍योंकि यमुना प्रदूषण का मुद्दा फिर गर्माने लगा है। संत समाज भी यमुना प्रदूषण के मामले में न सिर्फ मथुरा-वृंदावन की नगर पालिकाओं से नाराज है बल्‍कि केन्‍द्र सरकार के आश्‍वासनों की घुट्टी से भी आजिज आ चुका है और उसने मार्च 2018 से इसके लिए आंदोलन करने का ऐलान कर दिया है।
वैसे भी देखा जाए तो फिलहाल मथुरा-वृंदावन नगर निगम के मेयर पद हेतु जिन दो पूर्व विधायकों के नाम सामने आ रहे हैं उनकी वफादारी के अलावा कार्यक्षमता पर भी पहले से सवालिया निशान लगे हैं। उनकी उम्र भी उनकी कार्यक्षमता को लेकर चुगली करती प्रतीत होती है जबकि नगर निगम बन जाने के बाद जनआकांक्षाएं काफी प्रबल हैं।
बल्‍देव क्षेत्र के विधायक पूरन प्रकाश के पुत्र पंकज प्रकाश ही एकमात्र ऐसे संभावित उम्‍मीदवार हो सकते हैं जो युवा होने के साथ-साथ अच्‍छे-खासे शिक्षित भी हैं लेकिन उनकी उम्‍मीदवारी में भाजपा की नीतियां आड़े आती हैं।
इस सबके बावजूद यदि भाजपा इन्‍हीं चर्चित लोगों में से किसी एक को मथुरा में मेयर पद के लिए खड़ा करती है तो यही माना जाएगा कि वह या तो उधार के सिंदूर से सुहाग सहेजने को मजबूर है या फिर बेवफाओं से वफादारी की उम्‍मीद पालकर मथुरा-वृंदावन की जनता को उसी दलदल में धकेलने जा रही है जिससे निकलने का जनता को वर्षों से इंतजार है।
रहा सवाल अन्‍य राजनीतिक दलों का तो समाजवादी पार्टी मथुरा में कभी किसी स्‍तर पर अपना जनाधार खड़ा नहीं कर सकी और बहुजन समाज पार्टी फिलहाल भाजपा के मुकाबले में दिखाई नहीं देती। कांग्रेस के पास भी अच्‍छे उम्‍मीदवारों का भारी अकाल है और राष्‍ट्रीय लोकदल की स्‍थिति उस बूढ़े सांड़ की तरह है जो खुरों से मिट्टी खोदकर रास्‍ते की धूल तो उड़ा सकता है किंतु किसी से मुकाबला करने की सामर्थ्‍य पूरी तरह खो चुका है।
-सुरेन्‍द्र चतुर्वेदी

गुरुवार, 5 अक्तूबर 2017

कहीं आप भी तो नहीं हैं किसी “वैध” कॉलोनी के “अवैध” मकान मालिक ?

कहीं आप भी तो किसी ”वैध” कॉलोनी के ”अवैध” मकान मालिक नहीं हैं ?

हो सकता है कि यह प्रश्‍न आपको कुछ अजीब लग रहा हो, या आप सोचने लगे हों कि यदि कॉलोनी ”वैध” है तो मकान ”अवैध” कैसे हो सकता है ?

यदि आप यह सोच रहे हैं तो जान लीजिए कि ऐसा हो सकता है। साथ ही यह भी हो सकता है कि बिल्‍डर को लाखों रुपए देकर जिस मकान को आप अपना समझ रहे हैं वह कल किसी कोर्ट के आदेश पर ध्‍वस्‍त कर दिया जाए और आपकी जिंदगी भर की जमा पूंजी सहित वो पैसा भी डूब जाए जिसे आपने इस कथित वैध मकान को खरीदने के लिए बैंक या फिर साहूकार से कर्ज ले रखा हो।
ऐसी स्‍थिति में मकान तो आपका रहेगा नहीं, ऊपर से आप जिंदगीभर उस कर्ज के बोझ तले दबे रहेंगे जिसे लेकर आपने अपने लिए एक अदद आशियाने का सपना संजोया था।
वैसे तो रियल एस्‍टेट कंपनियों ने यह खेल पूरे उत्तर प्रदेश में बड़े पैमाने पर खेला है किंतु बात करें विश्‍व विख्‍यात धार्मिक जिले मथुरा की तो यहां भी ऐसे बिल्‍डर्स की कोई कमी नहीं है जिन्‍होंने अपने प्रोजेक्‍ट के किसी एक हिस्‍से का नक्‍शा पास कराकर उसमें सैकड़ों अवैध मकान, बंगले और फ्लैट बनाकर बेच दिए हैं।
नेशनल हाई-वे नंबर दो पर बने मल्‍टीस्‍टोरी प्रोजेक्‍ट्स में नियम-कानून की किस कदर धज्जियां उड़ाई गई हैं, इन्‍हें मौके पर जाकर ही समझा जा सकता है। यहां न तो नियम के मुताबिक पार्किंग की जगह छोड़ी गई है और न पार्क बनाए हैं। आग लगने की स्‍थिति में फायर ब्रिगेड की एक गाड़ी इनके अंदर मूव नहीं कर सकती जबकि सैकड़ों फ्लैट खड़े कर दिए गए हैं। भूकंप जैसी किसी प्राकृतिक आपदा के लिए यहां सिर छिपाने की कोई व्‍यवस्‍था नहीं है, और न किसी इमारत में भूकंपरोधी कोई इंतजाम किए गए हैं। हजारों जिंदगियां भगवान भरोसे रह रही हैं क्‍योंकि डेवलपमेंट अथॉरिटी चुप्‍पी साधे बैठी है।
रियल एस्‍टेट कंपनियों के इस खेल में तमाम वो सरकारी विभाग भी शामिल हैं जिनमें ऊपर से नीचे तक भ्रष्‍टाचार व्‍याप्‍त है और वो बैंकें भी लिप्‍त हैं जो बिल्‍डर्स से ऑब्‍लाइज होकर उनके एक इशारे पर कुछ भी करने को तत्‍पर रहती हैं।
दरअसल, रियल एस्‍टेट कंपनियों और बिल्‍डर्स का यह खेल वहीं से शुरू हो जाता है जहां से किसी प्रोजेक्‍ट का नक्‍शा पास कराने की प्रक्रिया शुरू होती है। कोई भी रियल एस्‍टेट कंपनी या बिल्‍डर कभी अपने पूरे प्रोजेक्‍ट का नक्‍शा एकसाथ पास नहीं कराता क्‍योंकि पूरे प्रोजेक्‍ट का एकसाथ नक्‍शा पास कराने के लिए उसे प्रोजेक्‍ट का एकमुश्‍त डेवलपमेंट चार्ज भी जमा कराना होता है। प्रोजेक्‍ट के किसी छोटे से हिस्‍से का नक्‍शा पास कराकर वह उसका प्रचार-प्रसार शुरू कर देता है और उसके नाम पर पैसा इकठ्ठा करने लगता है।
इस प्रक्रिया में नगर पालिका, नगर पंचायत, जिला पंचायत तथा अग्‍निशमन विभाग आदि भी रियल एस्‍टेट कंपनियों तथा बिल्‍डर्स को नियम विरुद्ध एनओसी देकर मदद करते हैं।
विकास प्राधिकरण से एकबार नक्‍शा पास हो जाने पर यह मान लिया जाता है कि सबकुछ जायज है लिहाजा रियल एस्‍टेट कंपनियों और बिल्‍डर्स को मनमानी करने की पूरी छूट मिल जाती है।
बताया जाता है कि मथुरा जनपद में नेशनल हाई-वे नंबर दो से लेकर वृंदावन, और गोवर्धन तक ऐसे प्रोजेक्‍ट्स की भरमार है जिनमें विकास प्राधिकरण से एप्रूव्‍ड नक्‍शे के अलावा सैकड़ों मकान फर्जी तरीके से बनाकर खड़े कर दिए गए।
किसी प्रोजेक्‍ट में चार टावर का अप्रूवल लेकर छ: टावर खड़े कर दिए गए तो किसी में अवैध व्‍यापारिक कॉम्‍पलेक्‍स बना दिए गए। किसी प्रोजेक्‍ट में ”प्रस्‍तावित” नक्‍शे के आधार पर ही पूरा निर्माण करा दिया गया तो किसी में मॉरगेज प्‍लॉट पर भी मकान खड़े कर दिए गए।
भ्रष्‍टाचार की नींव पर खड़े किए गए इन मकान और दुकानों का आलम यह है कि कहीं-कहीं तो ग्राम समाज की जमीन इसके लिए इस्‍तेमाल कर ली गई है और कहीं नहर, नाले व बंबों को पाटकर फ्लैट खड़े कर दिए गए हैं।
आश्‍चर्य की बात यह है कि वैध कॉलोनियों में बने ऐसे अवैध मकानों में आज अनेक लोग रह रहे हैं और दुकानों में कारोबार शुरू हो गया है लेकिन इन रहने वालों तथा कारोबार करने वालों को पता तक नहीं कि उनके ऊपर हर पल एक नंगी तलवार लटक रही है।
जहां तक सवाल विकास प्राधिकरण का है तो उसके अधिकारी और कर्मचारी पूरी मलाई मारकर अब तमाशबीन बने हुए हैं क्‍योंकि 01 मई 2017 से ”रियल एस्‍टेट रेगुलेशन एक्‍ट” अर्थात RERA लागू होने के बाद से उनके लिए भी काले को सफेद करना इतना आसान नहीं रह गया।
यह बात अलग है कि विकास प्राधिकरण, बिल्‍डर्स के अधिकांश काले कारनामों की ओर से अब भी आंखें फेरे बैठा है और कार्यवाही के लिए ऐसी अथॉरिटी के आदेश-निर्देश का इंतजार कर रहा है जिसके बाद वह आराम से यह कह सके कि अब हमारे हाथ में कुछ रहा ही नहीं।
रियल एस्‍टेट रेगुलेशन एक्‍ट के अनुसार अब किसी भी रियल एस्‍टेट कंपनी या बिल्‍डर को प्रोजेक्‍ट के गेट पर प्रोजेक्‍ट का पूरा ”ले-आउट” संबंधित अथॉरिटी से पास नक्‍शे सहित लगाना अनिवार्य है, जिससे खरीदार को पता लग सके कि उसके प्रोजेक्‍ट में कितनी तथा कौन-कौन सी इकाइयां पास हैं और उनका निर्माण कितने समय में पूरा हो जाएगा।
चूंकि यह नियम निर्माणाधीन प्रोजेक्‍ट सहित सभी पुराने प्रोजेक्‍ट्स पर भी लागू किया गया है इसलिए पूरे हो चुके प्रोजेक्‍ट भी इस दायरे में आते हैं, लेकिन अब तक किसी ऐसे प्रोजेक्‍ट पर बाहर नक्‍शा चस्‍पा नहीं किया गया और ना ही डेवलपमेंट अथॉरिटी ने किसी प्रोजेक्‍ट पर इसे लेकर कोई कार्यवाही की है।
इसी प्रकार रियल एस्‍टेट के हर कारोबारी, ग्रुप या कंपनी को RERA के तहत अपना रजिस्‍ट्रेशन कराना अनिवार्य है और उस रजिस्‍ट्रेशन की जानकारी के साथ प्रोजेक्‍ट की वेबसाइट पर पैसे का पूरा ब्‍यौरा भी दिया जाना जरूरी है किंतु यहां तो कई नामचीन बिल्‍डर्स ने अब तक न RERA में रजिस्‍ट्रेशन कराया है और ना ही उनकी कोई वेबसाइट है। इन हालातों में उनसे ब्‍यौरा उपलब्‍ध कराने की उम्‍मीद भी कैसे की जा सकती है।
इस पूरे घपले-घोटाले का एक महत्‍वपूर्ण पहलू किसी प्रॉपर्टी की रजिस्‍ट्री कराने में छिपा है क्‍योंकि रजिस्‍ट्री कार्यालय को सिर्फ और सिर्फ मतलब है तो रैवेन्‍यू वसूलने से, बाकी कौन कितना काला-पीला करता है, इससे उसे कोई वास्‍ता नहीं।
उसका सारा फोकस रजिस्‍ट्री के लिए जरूरी स्‍टांप लगवाने तथा उसमें हेर-फेर के लिए सुविधा शुल्‍क वसूलने तक सीमित है, बाकी जिम्‍मेदारी क्रेता तथा विक्रेता की है क्‍योंकि जब भी फंसते हैं तो वही फंसते हैं। रजिस्‍ट्री विभाग अपना पल्‍लू झाड़कर खड़ा हो जाता है।
यही कारण है कि रियल एस्‍टेट के कारोबारी पहले भी खरीदारों को बड़े इत्‍मीनान से लूटते रहे और आज भी लूट रहे हैं क्‍योंकि RERA लागू होने के बावजूद डेवलपमेंट अथॉरिटी ने नए कानून पर अमल करना शुरू नहीं किया है।
अथॉरिटी से शायद ही किसी नामचीन बिल्‍डर को अब तक RERA के तहत रजिस्‍ट्रेशन न कराने, वेबसाइट न बनवाने, नक्‍शा प्रदर्शित न करने तथा खरीदारों से प्राप्‍त रकम का ब्‍यौरा न देने पर नोटिस जारी किया गया हो।
डेवलपमेंट अथॉरिटी की इस ढील का कुछ बिल्‍डर तो भरपूर फायदा उठा रहे हैं और अब भी ऐसी इकाइयों को बेच रहे हैं जिनके नक्‍शे तक पास नहीं कराए गए।
ठीक इसी प्रकार अधिकांश पॉश कॉलोनियों में बिना नक्‍शा पास कराए दो से चार मंजिल तक का निर्माण कार्य अपनी मनमर्जी से करा लिया गया है लेकिन न कोई रोकने वाला है और न टोकने वाला। इस स्‍थिति में सरकार को तो राजस्‍व की बड़ी हानि हो ही रही है, साथ ही कॉलोनियों की वैधता पर भी सवाल खड़े हो रहे हैं।
विकास प्राधिकरण की भ्रष्‍ट तथा लचर कार्यप्रणाली का ही परिणाम है कि रियल एस्‍टेट के बहुत से करोबारी आम जनता का अरबों रुपया अब भी दबाकर बैठे हैं और उनके नीचे फंसे लोग किसी तरह अपनी जान छुड़ाने के प्रयास में हैं।
कोई कोर्ट कचहरी के चक्‍कर लगा रहा है तो कोई पुलिस से उम्‍मीद पाले बैठा है किंतु समस्‍या यह है कि बिना ठोस लिखा-पढ़ी के उनके लिए बिल्‍डर्स से निपटना आसान नहीं है।
हाल ही में नोएडा विकास प्राधिकरण ने कई नामचीन रियल एस्‍टेट कंपनी के सैकड़ों फ्लैट्स को अवैध घोषित कर दिया है। ये वो फ्लैट्स हैं जिनका पूरा पैसा बिल्‍डर्स की जेब में पहुंच चुका है। शासन-प्रशासन तक इन बिल्‍डर्स के सामने असहाय है क्‍योंकि वह अपने हाथ खड़े करने को तैयार बैठे हैं। कोर्ट में भी उन्‍होंने अपनी आर्थिक बदहाली का रोना रोकर राहत पाने की कोशिश की थी, हालांकि कोर्ट ने उनके घड़ियालू आंसुओं पर तवज्‍जो नहीं दी।
नोएडा डेवलेपमेंट अथॉरिटी इन नामचीन बिल्‍डर्स से कैसे निपटेगी और कैसे उन हजारों लोगों को राहत पहुंचाएगी जो इनके नीचे अपनी तमाम पूंजी फंसा बैठे हैं, यह प्रश्‍न तब गौण हो जाता है जब पता लगता है कि यहां सवाल सिर्फ दिल्‍ली से सटे नोएडा का नहीं है, सवाल मथुरा जैसे छोटे किंतु विश्‍व प्रसिद्ध धार्मिक शहरों का भी है जहां न केवल स्‍थानीय लोग ऐसे बिल्‍डर्स का शिकार बन रहे हैं बल्‍कि बाहरी लोग भी इनके शिकंजे में फंसे हुए हैं। उन्‍हें नहीं पता कि जिस प्रोजेक्‍ट को वैध समझकर उन्‍होंने मुंहमांगे दामों पर मकान या फ्लैट खरीदा है, उस प्रोजेक्‍ट के अंदर ही अवैध निर्माण कराकर उन्‍हें लूटा गया है।
इससे भी अधिक आश्‍चर्य तब होता है जब पता लगता है कि स्‍थानीय डेवलपमेंट अथॉरिटी की मिलीभगत तथा उसकी भ्रष्‍ट कार्यप्रणाली के चलते लूट का यह सिलसिला अब भी जारी है और ”रियल एस्‍टेट रेगुलेशन एक्‍ट” अर्थात RERA जैसा सख्‍त कानून भी फिलहाल तो ताक पर रखा हुआ है।
बताया जाता है कि हाल ही मथुरा-वृंदावन विकास प्राधिकरण की कमान संभालने वाली महिला आईएएस अधिकारी को विभाग की कार्यप्रणाली सुधारने के लिए खासे पापड़ बेलने पड़ रहे हैं किंतु विभागीय कर्मचारी हैं कि सुधरने का नाम नहीं ले रहे क्‍योंकि उन्‍हें पहले से चली आ रही अतिरिक्‍त कमाई पर आंच आना मंजूर नहीं। फिर चाहे बिल्‍डर किसी को लूटें या लुटे हुओं को ठेंगा दिखाकर खुलेआम रियल एस्‍टेट रेगुलेशन एक्‍ट को चुनौती दें।
-सुरेन्‍द्र चतुर्वेदी
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